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झारखंड-बंगाल में फ्लॉप, क्या बिहार में 'घुसपैठियों' का मुद्दा बीजेपी के काम आएगा?

डेमोग्रेफी चेंज का मुद्दा बीजेपी के लिए नया नहीं है. पर जिस तरह पीेएम मोदी ने लाल किले के प्राचीर से डेमोग्रेफी मिशन की घोषणा की है जाहिर है कि इस मुद्दे को लेकर कुछ बड़ा होने वाला है. झारखंड में इस मुद्दे को अपेक्षित सफलता न मिलने के अपने कारण थे . देखना है कि बिहार विधानसभा चुनावों में यह मुद्दा कितना काम करता है?

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 79वें स्वतंत्रता दिवस समारोह पर अपने स्पीच में डेमोग्रेफी मिशन शुरूआत  करने की बात कही थी. (Photo: Reuters/@Altaf Hussain)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 79वें स्वतंत्रता दिवस समारोह पर अपने स्पीच में डेमोग्रेफी मिशन शुरूआत करने की बात कही थी. (Photo: Reuters/@Altaf Hussain)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले के प्राचीर से देश की डेमोग्रेफी बदलने में जुटे घुसपैठियों पर चिंता जाहिर कर यह जता दिया है कि भविष्य में सरकार इसके लिए कुछ कड़ा कदम उठाएगी. पीएम मोदी ने साफ-साफ शब्दों में कहा, 'मैं आज एक चिंता और चुनौती के संबंध में आगाह करना चाहता हूं. सोची-समझी साजिश के तहत देश की डेमोग्राफी को बदला जा रहा है, एक नए संकट के बीज बोए जा रहे हैं. ये घुसपैठिए मेरे देश के नौजवानों की रोजी-रोटी छीन रहे हैं. ये घुसपैठिए मेरे देश की बहन-बेटियों को निशाना बना रहे हैं, यह बर्दाश्त नहीं होगा.' प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि मैं आज लाल किले की प्राचीर से कहना चाहता हूं कि हमने एक 'हाई पावर डेमोग्राफी मिशन' शुरू करने का फैसला किया है. इस मिशन के जरिए जो भीषण संकट नजर आ रहा है, उसको निपटाने के लिए तय समय में अपने कार्य को करेगा.

जाहिर है कि केंद्र सरकार इस संबंध में कुछ बड़ा करने की तैयारी में है. मोदी के हर कार्य में विपक्ष को राजनीति की गंध आती है. और यह मुद्दा तो पहले से ही बीजेपी बिहार, बंगाल और झारखंड के चुनावों में उठाती रही है. हालांकि एक बात और है कि बंगाल  और झारखंड के विधानसभा चुनावों में दोनों राज्यों में बीजेपी को इस मुद्दे का लाभ अब तक नहीं मिला है. बिहार विधानसभा चुनाव सामने है. सवाल उठता है कि क्या बीजेपी पीएम के इस बयान को आधार बनाकर बिहार में बड़े पैमाने पर वोटों के ध्रुवीकरण कराने में सक्षम हो सकेगी? 

बिहार में डेमोग्रेफी चेंज की राजनीति कितना सिरे चढ़ेगी?

बिहार में बांग्लादेश और नेपाल की सीमा से सटे बिहार के किशनगंज, अररिया, कटिहार और पूर्णिया को सीमांचल के नाम से पुकारा जाता है. सीमांचल में अवैध घुसपैठियों के कारण डेमोग्राफी पूरी तरह बदल चुकी है. 1951 से 2011 तक देश की कुल आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी जहां चार प्रतिशत बढ़ी है, वहीं सीमांचल में यह आंकड़ा करीब 16 प्रतिशत है. किशनगंज बिहार का ऐसा जिला है जहां हिंदू अल्पसंख्यक हो चुके हैं.

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2011 की जनगणना के अनुसार, किशनगंज में मुस्लिमों की जनसंख्या 67.58 प्रतिशत थी और हिंदू मात्र 31.43 प्रतिशत रह गए हैं. इसी तरह कटिहार में 44.47, अररिया में 42.95 और पूर्णिया में मुस्लिम जनसंख्या 38.46 प्रतिशत हो चुकी है. कई जिलों के दर्जनों गांवों में हिंदू अल्पसंख्यक होकर पलायन कर चुके हैं. कई मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया है कि अररिया जिले के रानीगंज प्रखंड के रामपुर गांव से दर्जनों लोग पलायन कर दोगच्छी गांव चले गए, जहां हिंदुओं की जनसंख्या अपेक्षाकृत अधिक है. कई जगहों पर इनकी जमीन मुस्लिमों ने खरीद ली है.

घुसपैठ का मुद्दा केंद्र सरकार के लिए कितना अहम है यह इससे समझा जा सकता है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बिहार में लोकसभा चुनाव का शंखनाद राजधानी पटना में न करके सीमांचल में किया था.मोदी सरकार के आने के बाद से पूर्वोत्तर राज्यों की केंद्र सरकार के साथ हुई बैठक में भी यह मुद्दा प्रमुखता से उठता रहा है. 

2001 से 2011 के बीच दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर पर नजर डालें तो पूर्णिया में 28.66, कटिहार में 30, अररिया में 30 और किशनगंज में यह 30.44 प्रतिशत है.  घुसपैठ को नकारने वाले दलील देते हैं कि मुस्लिम बहुल इलाका होने के कारण सीमांचल में जनसंख्या वृद्धि दर अधिक है. पर देश के अन्य हिस्सों में मुसलमानों की वृद्धि दर इतनी नहीं है. साफ जाहिर है कि इन जिलों में बाहर से आए घुसपैठियों ने पनाह ले ली है. 

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यही कारण है कि BJP ने डेमोग्रेफी चेंज को राष्ट्रीय सुरक्षा और हिंदू अस्मिता से जोड़ दिया है. पीएम मोदी तक ने कहा कि बाहर से आने वाले घुसपैठिये हमारे जवानों की नौकरियां और रोजगार को खा जा रहे हैं. बीजेपी इसे देश की सुरक्षा के लिए भी खतरा बता रही है. 2024 के लोकसभा चुनावों में NDA (BJP, JD(U), LJP) ने बिहार में 30 सीटें जीतीं, जिसमें BJP की 12 सीटें थीं. ये सफलता बताती है कि बिहार के लोगों को यह मुद्दा समझ में आ रहा है.

बंगाल चुनावों में क्या काम आएगा ये मुद्दा

पश्चिम बंगाल में 2026 के विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं और डेमोग्रेफी चेंज का मुद्दा एक बार फिर राजनीतिक विमर्श का केंद्र बन सकता है. पश्चिम बंगाल में जनसांख्यिकीय परिवर्तन, खासकर सीमावर्ती जिलों जैसे मालदा, मुर्शिदाबाद, और उत्तर दिनाजपुर में, एक संवेदनशील मुद्दा रहा है. 2025 में  राज्य में अल्पसंख्यक आबादी करीब 33% तक पहुंच गई है, जबकि 1951 में यह 19.85% थी. इसके विपरीत, हिंदू आबादी 78.45% से घटकर 65% के आसपास रह गई है. BJP इसे अवैध बांग्लादेशी प्रवास से जोड़ती रही है. 
वहीं ममता बनर्जी ने डेमोग्रेफी के मुद्दे को बंगाली अस्मिता से जोड़कर बीजेपी के लिए मुश्किल खड़ी कर दी है.  

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उन्होंने BJP पर मतदाता सूची में हेरफेर और बंगाली पहचान को कमजोर करने का आरोप लगाया. दिल्ली एनसीआर से बांग्लादेशियों को हटाने के मुद्दे को भी टीएमसी ने बहुत गंभीरता से लिया है.  इसलिए यह कहना कि डेमोग्रेफी चेंज का मुद्दा 2026 में प्रभावी हो सकता है, यह आवश्यकता से अधिक उम्मीद करना है. यह मुद्दा सीमावर्ती जिलों में ज्यादा प्रासंगिक है, जहां मुस्लिम आबादी लगातार बढ़ रही  है. शहरी और मध्यम वर्गीय क्षेत्रों में रोजगार, भ्रष्टाचार और बुनियादी ढांचा जैसे मुद्दे डेमोग्रेफी चेंज के मुद्दे से अधिक महत्वपूर्ण हो सकते हैं.

बंगाल में धार्मिक ध्रुवीकरण के चलते बीजेपी को हमेशा नुकसान ही होता है. क्योंकि   TMC को अल्पसंख्यक वोटों का पूरा समर्थन मिल जाता है. पहले मुस्लिम वोट राज्य में वामपंथी दलों और कांग्रेस में विभाजित होता रहा है. पर अब एकमुश्त टीएमसी को मिल रहा है. जबकि BJP को हिंदू वोटों का जरा भी लाभ नहीं होता है. 

झारखंड में क्यों काम नहीं किया ये मुद्दा

झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 में डेमोग्रेफी चेंज का मुद्दा बुरी तरह फ्लॉप रहा है. विशेष रूप से बांग्लादेशी घुसपैठ और संथाल परगना में जनसांख्यिकीय बदलाव, भारतीय जनता पार्टी (BJP) के लिए अपेक्षित रूप से फायदेमंद साबित नहीं हुआ. BJP ने इस मुद्दे को चुनाव प्रचार में जोर-शोर से उठाया, लेकिन इसके बावजूद झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM)-कांग्रेस गठबंधन ने 56 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत हासिल किया. जबकि BJP गठबंधन केवल 24 सीटों पर संतोष करना पड़ा. 

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दरअसल झारखंड में आदिवासी और मूलवासी पहचान की राजनीति डेमोग्रेफी चेंज के मुद्दे पर भारी पड़ गई. हेमंत सोरेन और उनकी पत्नी कल्पना सोरेन ने आदिवासी-मूलवासी पहचान को मजबूती से उठाया. हेमंत ने खुद को धरतीपुत्र के रूप में पेश किया और यह संदेश दिया कि BJP की जीत से राज्य का शासन आदिवासियों के हाथ से निकल जाएगा. यही कारण रहा कि 28 आदिवासी आरक्षित सीटों में से JMM ने अधिकांश जीत ली.

 हेमंत सोरेन के जेल जाने और जमानत के बाद उन्होंने इसे सहानुभूति के रूप में भी भुनाया. यही कारण रहा कि डेमोग्रेफी चेंज जैसे मुद्दे हलके पड़ गए. क्योंकि मतदाताओं ने स्थानीय नेतृत्व और भावनात्मक अपील को प्राथमिकता दी. BJP ने बाहरी नेताओं, जैसे असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा, को प्रचार के लिए उतारा, लेकिन स्थानीय नेताओं जैसे बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, या रघुवर दास को प्रभावी ढंग से आगे नहीं किया गया. एक कारण यह भी रहा कि डेमोग्रेफी चेंज जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को आदिवासियों ने शक की निगाह से देखा. इसके विपरीत, JMM ने स्थानीय मुद्दों, जैसे 1932 का खतियान और सरना धर्म कोड, को उठाकर मतदाताओं से बेहतर तालमेल बनाया. इसके साथ  ही डेमोग्रेफी चेंज का मुद्दा BJP के खिलाफ JMM को आदिवासी और मुस्लिम वोटों को एकजुट करने का मौका दे दिया. 

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राष्ट्रीय स्तर पर कितना काम करेगा यह मुद्दा 

राष्ट्रीय स्तर पर डेमोग्रेफी चेंज का मुद्दा बीजेपी के लिए एक महत्वपूर्ण हथियार साबित हो सकता है. आगामी लोकसभा चुनावों के पहले उम्मीद है कि देश की नई जनगणना रिपोर्ट भी आ जाएगी. उम्मीद की जा रही है इस रिपोर्ट में अल्पसंख्यक बहुल जिलों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी होगी. बीजेपी इसे राष्ट्रीय सुरक्षा, सांस्कृतिक पहचान, और हिंदू अस्मिता से जोड़कर प्रचारित करेगी. 2024 के लोकसभा चुनावों में, इस मुद्दे ने असम और पश्चिम बंगाल जैसे सीमावर्ती राज्यों में कुछ हद तक हिंदू मतदाताओं को एकजुट करने का काम किया था. इन राज्यों में  BJP को क्रमशः 9 और 12 सीटें जीतने में सफल हुई थी.

पर जिस तरह पीएम ने लाल किले के प्राचीर से डेमोग्रेफी मिशन चलाने की बात कही है उससे जाहिर है कि मुद्दा और गरम होगा. एनआरसी और वक्फ बोर्ड संशोधन बिल की तरह पूरे भारत में इस मुद्दे पर बहस शुरू हो सकती है. डेमोग्रेफी मिशन के तहत अगर कुछ कठोर एक्शन होता है तो अल्पसंख्यक समुदाय के साथ पूरा विपक्ष खड़ा दिखेगा और बीजेपी अपने मकसद में कामयाब के नजदीक होगी.

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