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फिल्मों को साहित्य की जुबान दे गए शरतचंद्र...

शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का नाम सुना है? शायद थोड़ी मुश्किल हो पहचानने में, 'देवदास' लिखी थी इन्होंने जिस पर 16 फिल्में बन चुकी हैं (शाहरूख वाली भी). कहा जाए तो शायद तपाक से पहचान जाएं आप. वैसे यह कहकर बंगाल के कला प्रेमी समाज के साथ ज्यादती नहीं की जा सकती कि वो शरत बाबू को भूल गया होगा.

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शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का नाम सुना है? शायद थोड़ी मुश्किल हो पहचानने में, 'देवदास' लिखी थी इन्होंने जिस पर 16 फिल्में बन चुकी हैं (शाहरूख वाली भी). कहा जाए तो शायद तपाक से पहचान जाएं आप. वैसे यह कहकर बंगाल के कला प्रेमी समाज के साथ ज्यादती नहीं की जा सकती कि वो शरत बाबू को भूल गया होगा.

आज भले आपको शरत बाबू को पहचानने के लिए फिल्मों को नत्थी करना पड़ता हो, लेकिन शरत बाबू उस दौर में लिख रहे थे जब लेखक समाज का अग्रदूत हुआ करता था और फिल्में तमाशा. 15 सितंबर 1876 को वह ब्रिटिश भारत में पैदा हुए थे. दर्जनों किताबें लिखने वाले शरत अपनी पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाए थे. लेखन का ये वो काल था जब हिंदी अपना आकार लेने की कोशिश कर रही थी और अंग्रेजी समझने वाले उंगलियों पर थे. अपनी मादरी जबान में शरत ने जो जो लिखा हर एक शब्द मोती की तरह चमका. शरत प्रेमिका के जुल्फों में सितारें नहीं जड़ रहे थे, समाज की सड़ांध के खिलाफ कलम के खोमचे लेकर खड़े थें.

उनकी जिंदगी उनके उपन्यास के पात्रों से कम जटिल कहां थी. गले की मस भी नहीं फूटी थी कि अनाथ हो गए. पैसे थे नहीं तो आगे पढ़ नहीं पाए. देश में नौकरी नहीं मिली तो चले गए बर्मा. जिंदगी की उलझनों से ऊबे तो सन्यासी हो गए. इसी दौर में पहली कहानी छपी 'मंदिर'.

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जब लिखना और छपना शुरू हुआ तो बंगाल के लोगों ने अपने युगपुरुष को सर-माथे पर बिठाया. शरतचंद्र अब शरत बाबू बन गए. लेखक के तौर पर जिंदगी के सबसे कीमती साल गुजारे बंगाल के समताबाड़ी में. इस घर में जहां शरत बैठ कर लिखते थे वहां से होकर रूपनारायण नदी बहा करती थी. ये नदी गवाह रही होगी शब्द को नारायण का रूप लेते देखने की. इसमें कोई हैरत भी नहीं होनी चाहिए कि जब शरत दुनियां का अध्याय निपटा कर गए तो इस नदी ने भी अपनी दिशा बदल ली. बाजार के लिए शरत ने कभी नहीं लिखा, लेकिन उनके लिखे हुए से बाजार भी हमेशा गुलजार ही रहा.

कई उपन्यासों पर फिल्में बनी वो भी कई जबानों में. 'परिणिता', 'देवदास', 'स्वामी', 'छोटी बहू' और ये सूची बढ़ती ही जाती है. शरत के गांव में आज भी उनके चाहने वाले बदस्तूर हर साल शरत मेला का आयोजन करते हैं बगैर किसी सरकारी मदद के. बंगाल के लोगों ने हमेशा कलाकारों, साहित्यकारों को मोहब्बत बख्शी है. शायद यही कारण है कि कुदरत ने भी बंगाल की धरती पर एक से बढ़कर एक नगीने जड़े.

हालांकि, शरत चंद्र की पुण्यतिथि बीत गई. उनकी कोई किताब खरीदकर पढ़िएगा. एक लेखक को याद करने का इससे बेहतर तरीका कोई हो भी नहीं सकता.

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