श्रीकांत वर्मा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिंदी के संभवत: सबसे ऊर्जस्वित लेखकों में हैं. वे मूर्धन्य कवि हैं, सटीक कहानीकार हैं, और अनोखे उपन्यासकार. वे उन विरले कवियों में हैं जिन्होंने अपने भीतर से होकर बहती पिघलते लोहे-सी काव्य-धारा को पूरे धीरज से सहा और उसे बिल्कुल नए काव्य-विन्यासों में ढाला.
यह भी सच है कि कई बार इस पिघले लोहे के-से काव्य-आवेग ने उन्हें धीरज बरत सकने का अवकाश नहीं दिया या शायद अपने घुमड़ते काव्य-आवेग के आगे कवि का धीरज निष्फल हो गया, लेकिन तब यह काव्य-आवेग या काव्य-संवेदन उन्हीं की कविताओं के सुघड़ विन्यासों में आसपास, यहां-वहां चिनगारियों की तरह बिखर गया. शायद इसीलिए उनकी कविताएं उनके काव्य-संयम और काव्य-असंयम का विलक्षण साक्ष्य और फलन हैं. उनके धीरज और उनकी हड़बड़ी दोनों का पारदर्शी अंकन. श्रीकांत वर्मा की जयंती पर साहित्य आजतक पर पढ़िए उदयन वाजपेयी द्वारा संपादित श्रीकांत वर्मा संचियता से कुछ कविताएं.
1.
पतझर
हर बार प्रेम-पत्र लिखने के बाद हर बार अपना
हस्ताक्षर करते समय
ज़रा काँप जानेवाली स्त्री
दोष देती है मौसम को
और फिर से शुरू करती है प्रेम-पत्र;
अबकी बार कोसती है शोर को,
खिड़की से आती हुई हवा को,
द्वार पर पड़ती हुई दस्तक को,
शेल्फ से गिरकर चौंका देनेवाली एक पुस्तक को,
बिस्तर पर बल खाकर गिरते समुद्र को,
बाहर बेफ़िक्र खड़े ताड़ को,
आख़िर में वक़्त को.
घबराकर ढूँढ़ती है सारा दिन किसी परित्यक्त को!
2.
अन्तिम वक्तव्य
(इसके बाद कुछ कहना बेकार है)
आदमी से प्रेम करने का ठेका
ले रखा है
क़साई ने:
मुझे न औरों से
प्रेम है
न अपने से!
मैं टकटकी लगाए
देख रहा हूँ
कैसे गिरती है इमारत
धरती के कँपने से!
न कँपती है
धरती
न होता है
युद्ध
सब कुछ
अवरुद्ध
है !
मैं कहना कुछ चाहता हूँ
कुछ और
कह जाता हूँ-
झूठे हैं समस्त कवि
गायक
पत्रकार
आत्माएँ
राजनीतिज्ञों की
बिल्लियों की तरह
मरी पड़ी है
सारी पृथ्वी से
उठती है
सड़ान्ध !
कोई भी जगह नहीं रही
रहने के लायक़
न मैं आत्महत्या
कर सकता हूँ
न औरों का
ख़ून !
न मैं तुमको ज़ख़्मी
कर सकता हूँ
न तुम मुझे
निरस्त्र !
तुम जाओ अपने बहिश्त में
मैं जाता हूँ
अपने जहन्नुम में !
3.
प्रक्रिया
मैं क्या कर रहा था
जब
सब जयकार कर रहे थे ?
मैं भी जयकार कर रहा था-
डर रहा था
जिस तरह
सब डर रहे थे।
मैं क्या कर रहा था
जब
सब कह रहे थे,
‘अज़ीज मेरा दुश्मन है ?’
मैं भी कह रहा था,
‘अज़ीज मेरा दुश्मन है।’
मैं क्या कर रहा था
जब
सब कह रहे थे,
‘मुँह मत खोलो ?’
मैं भी कह रहा था,
‘मुँह मत खोलो
बोलो
जैसा सब बोलते हैं।’
ख़त्म हो चुकी है जयकार,
अज़ीज मारा जा चुका है,
मुँह बन्द हो चुके हैं।
हैरत में सब पूछ रहे हैं,
यह कैसे हुआ ?
जिस तरह सब पूछ रहे हैं
उसी तरह मैं भी,
यह कैसे हुआ ?
4.
कलिंग
केवल अशोक लौट रहा है
और सब
कलिंग का पता पूछ रहे हैं
केवल अशोक सिर झुकाए हुए है
और सब
विजेता की तरह चल रहे हैं
केवल अशोक के कानों में चीख़
गूँज रही है
और सब
हँसते-हँसते दोहरे हो रहे हैं
केवल अशोक ने शस्त्र रख दिए हैं
केवल अशोक
लड़ रहा था।
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पुस्तक: श्रीकांत वर्मा संचियता
संपादक: उदयन वाजपेयी
प्रकाशन: राजकमल प्रकाशन
मूल्य: 995/-रुपए हार्डबाउंड
पृष्ठ संख्या: 399