मूर्तियों को पूजने के बजाय
मानवता को पूजता हूं मैं !
काल्पनिक देवताओं को न मानकर,
फुले, साहू, अम्बेडकर को पढ़ता हूं मैं!
छाती ठोककर बोलता हूं,
असत्य को नकारने वाला
नास्तिक हूं मैं! ... यह कविता है, नरेन्द्र दाभोलकर की. उन्होंने तर्कवाद की स्थापना और अन्धविश्वास के उन्मूलन के लिए आन्दोलन की शुरुआत की थी. हालांकि डॉ नरेन्द्र दाभोलकर का मानना था कि यह आन्दोलन अन्धविश्वास के उन्मूलन से शास्त्रीय विचार, शास्त्रीय विचार से वैज्ञानिक दृष्टिकोण, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से धर्मशास्त्र, धर्मशास्त्र से धर्मनिरपेक्षता, धर्मनिरपेक्षता से तर्कवाद और मानवतावाद की ओर बढ़ना चाहता है.... और अगर ऐसा है तो स्वाभाविक रूप से, 'तर्कवाद' का मूल्य अन्धविश्वास विरोधी आन्दोलन के व्यापक दर्शन का हिस्सा है.
फिर विवेकवाद का दर्शन क्या है? विवेकवाद ही सुखी जीवन का दर्शन है. लेकिन साथ ही यह खुशी भौतिक, बौद्धिक, भावनात्मक, नैतिक और रचनात्मक है. दूसरी ओर, यह खुशी पूरी मानव जाति, सभी जानवरों और प्रकृति के अनुकूल है. जब यह सुख अस्तित्व में आता है, तो साध्य-साधन की शुचिता का पालन किया जाता है. अतः इतने सन्तुलित और व्यापक अर्थ में 'विवेकवाद' सुखी जीवन का दर्शन है. ईश्वर के अस्तित्व पर विचार करते हुए उनका मुख्य तर्क था कि- 'व्यक्ति को विवेकशील बनाकर ही विवेकवादी समाज-निर्माण का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है.'
अन्धविश्वास उन्मूलन पर डॉ नरेन्द्र दाभोलकर ने जो दस बेहद चर्चित भाषण दिए थे वह पुस्तक 'विवेक की आवाज: अन्धविश्वास उन्मूलन पर दस भाषण' में दर्ज हैं. दाभोलकर मानते थे कि जहां विज्ञान का अंत होता है वहां से अध्यात्म शुरू होता है.
नरेंद्र दाभोलकर का जन्म 1 नवम्बर, 1945 को हुआ था. उन्होंने एमबीबीएस की पढ़ाई कर सन् 1982 में अंधविश्वास उन्मूलन कार्य का प्रारंभ किया. 1989 में उन्होंने 'महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति' की स्थापना की और आजन्म इस समिति के कार्याध्यक्ष रहे. उन्होंने अंधविश्वास उन्मूलन को एक बड़े आंदोलन के रूप में बदल दिया और इस विषय पर हजारों व्याख्यान के साथ दर्जन-भर पुस्तकों का लेखन किया. उनकी पुस्तकों को अनेक पुरस्कार मिले, लेकिन अपने इन्हीं विचारों के चलते वे कई लोगों की नजर पर चढ़ गए और 20 अगस्त, 2013 को अज्ञात तत्त्वों द्वारा गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई. माना यह गया कि यह हत्या उनके आंदोलन से भयभीत कट्टरपंथियों ने की थी. मरणोपरांत भारत सरकार ने दाभोलकर को पद्मश्री से सम्मानित किया था. जैसा कि नारायण गणेश गोरे ने लिखा भी है- नरेंद्र दाभोलकर की ज़िन्दगी के समस्त चिन्तन और सामाजिक सुधार का प्रयास यही था कि इंसान विवेकवादी बने. उनका किसी जाति-धर्म-वर्ण के प्रति विद्रोह नहीं था. लेकिन षड्यंत्रकारी राजनीति के चलते अपनी सत्ता की कुर्सियों, धर्माडम्बरी गढ़ों को बनाए रखने के लिए उन्हें हिन्दू विरोधी करार देने की कोशिश की गई और कट्टर हिन्दुओं के धार्मिक अन्धविश्वासों के चलते एक सुधारक का ख़ून कर दिया गया.
एक सामान्य बात बहुत अहम है, वह यह कि विवेकवादी बनने से हमारा लाभ होता है या हानि इसे सोचें. अगर हमें यह लगे कि हमारा लाभ होता है तो उस रास्ते पर चलें. दूसरी बात यह भी याद रखें कि धर्माडम्बरी, पाखंडी बाबा तथा झूठ का सहारा लेनेवाले व्यक्ति का अविवेक उसे स्वार्थी बनाकर निजी लाभ का मार्ग बता देता है, अर्थात् उसमें उसका लाभ होता है और उसकी नज़र से उस लाभ को पाना सही भी लगता है; लेकिन उसके पाखंड, झूठ के झांसे से हमें हमारा विवेक बचा सकता है.
दाभोलकर की लगभग सभी पुस्तकें हिंदी में भी प्रकाशित हुई हैं, जिनमें 'आओ विवेकशील बनें', 'अंधविश्वास उन्मूलनः विचार', 'अंधविश्वास उन्मूलनः आचार', 'अंधविश्वास उन्मूलनः सिद्धांत', 'भ्रम और निरसन', 'जंग अंधविश्वासों की', 'मन-मन के सवालः मानसिक स्वास्थ्य तथा मनोविकारों की उलझन', 'विश्वास और अंधविश्वास', 'विवेक की प्रतिबद्धता', 'ऐसे कैसे पनपे पाखंडीः ढोंगी बाबाओं की ठगी का समग्र पंचनामा' और 'अंधविश्वासः प्रश्नचिह्न और पूर्णविराम' आदि शामिल है.
दाभोलकर हमेशा अपने लेखन और विचारों से झकझोरते थे. वे अकसर पूछते थे कि चमत्कारी कहलानेवाले बाबा क्या सच में चमत्कार करते हैं? आखिर क्या कारण है कि विज्ञान, तकनीकी और शिक्षा के इतने प्रसार के बाद भी समाज में अंधविश्वासों की जगह बची हुई है? क्यों लोग आज भी अपने दु:खों का, अपनी बीमारियों का इलाज ढूंढ़ने गुरुओं-साधुओं की शरण में जाते हैं? वशीकरण और सम्मोहन क्या वास्तव में होते हैं? कुछ लोग भूतों को देखने तक का दावा करते हैं, इसका आधार क्या है? देवी-देवता या भूतों का संचार ज्यादातर स्त्रियों में ही होता है, ऐसा क्यों? पुनर्जन्म की सच्चाई क्या है? मृतात्मा का आह्वान क्या बला है? और ज्योतिष जिस पर तर्कपरायण लोग भी विश्वास करते पाए जाते हैं, वह क्या है?
इसी तरह वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण को कार्यकारण भाव मानते थे, और चमत्कार को वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव. उनका मानना था कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण और चमत्कार के बीच का संबंध प्रकाश और अंधेरे के समान है. एक का होना यानी अनिवार्यतः दूसरे का ना होना है. विज्ञान में चमत्कार नहीं होते. चमत्कार या तो रासायनिक, भौतिक प्रक्रिया होती है या हाथ की सफ़ाई होती है. बदमाशी भी हो सकती है और प्रसंग के अनुसार प्रकृति की अनसुलझी पहेली भी चमत्कार में हो सकती है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण जीवन में स्वीकारने का अर्थ है, आज या कल समझ में आनेवाली वैज्ञानिक विचार-पद्धति पर समाज का विश्वास होना.
वे कहते थे चमत्कारों को चुनौती देने की भूमिका को ठीक से समझना चाहिए. संविधान ने हर व्यक्ति को उपासना, अलौकिक जीवन, आध्यात्मिक कल्याण की आज़ादी दी है, इसका सम्मान करना चाहिए. लेकिन चमत्कार पर विश्वास करना, उसकी जांच-पड़ताल का विरोध और ऐसे चमत्कारों का प्रसार करते रहना, यह धर्म का हिस्सा नहीं हो सकता. वह मानते थे कि भारतीय समाज बहुत जल्द भयग्रस्त हो जाता है. दैववादी मानसिकता के कारण लोग संकट को भाग्य का परिणाम मानते हैं. कई लोगों को लगता है कि दैवी-शक्ति प्राप्त कोई बाबा या कोई धार्मिक तीर्थ उन्हें कठिनाई से उबार लेगा. इस मानसिकता में रहनेवाला समाज स्वाभिमानशून्य, भगोड़ा, डरपोक और बुद्धि को रेहन पर रखनेवाला होता है. स्वाभिमानी, प्रयत्नवादी और निर्भय समाज बनाने के लिए चमत्कार का विरोध आवश्यक है.
वह कहते थे कि मानसिक ग़ुलामी की सबसे बड़ी भयानकता यह है कि उस अवस्था में व्यक्ति की बुद्धि से प्रश्न पूछना तो दूर की बात है, व्यक्ति की बुद्धि, निर्णय-शक्ति, सम्पूर्ण विचार-क्षमता ये सभी बातें चमत्कार के आगे शून्य हो जाती हैं. व्यक्ति दासता में चला जाता है और फिर परिवर्तन की लड़ाई अधिक कठिन हो जाती है.
दाभोलकर यह जानते थे कि परिवर्तन की आधारशिला युवक ही हैं. इसी कारण वे युवाओं के मन में आनेवाले अंधविश्वास सम्बन्धी प्रश्नों का वैज्ञानिक ढंग से विवेचन प्रस्तुत करते थे और भूत-प्रेत, ज्योतिष, सम्मोहन, पाखंड, सत्यनारायण, मुहूर्त, वास्तुशास्त्र समारोह, जनेऊ, चमत्कार आदि को लेकर विज्ञानवादी विचार व्यक्त करते थे. सोलह से पच्चीस की अवस्था में मनुष्य का मन एक तो श्रद्धाशील बन जाता है या बुद्धिवादी बन जाता है. बहुत सारे लोग समझौतावादी बन जाते हैं. इसीलिए अन्धविश्वास का त्याग करने के ज़रूरी प्रयास कॉलेजों के युवक-युवतियों में ही होने चाहिए. क्षण-प्रतिक्षण तांत्रिक, गुरु अथवा ईश्वर के पास जाने की आदत बन गई कि पुरुषार्थ ख़त्म हो जाता, यह उन्हें समझना चाहिए या समझाना पड़ेगा. ऐसे समय में जब वैज्ञानिक खोजबीन अपनी चरमसीमा को छू रही है, तब अन्धविश्वासों का चश्मा आंखों पर लगाकर लड़खड़ाते क़दम उठाने में कौन सी अक्लमन्दी है?
वे और उनका आंदोलन धर्म के नाम पर कर्मकांड और पाखंडों के ख़िलाफ़ आन्दोलन, जन-जागृति कार्यक्रम और भंडाफोड़ के साथ ही विचार, उच्चार, आचार, संघर्ष, सिद्धान्त जैसे पंचसूत्र से संचालित होता था. एक ही समय क्लास और मास अपील हो, ऐसा लेखन और भाषण करना डॉ नरेन्द्र दाभोलकर की खासियत थी. डॉ नरेन्द्र दाभोलकर की 'विवेक की आवाज: अन्धविश्वास उन्मूलन पर दस भाषण' पुस्तक के प्रधान सम्पादक हैं, डॉ सुनीलकुमार लवटे और समन्वय सम्पादक-अनुवादक हैं, डॉ चन्दा सोनकर. पुस्तक सार्थक प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. यह पुस्तक मूल मराठी ग्रंथ 'विवेकाचा आवाज' का हिंदी अनुवाद है. यह पुस्तक विशेषकर उन लोगों को अवश्य पढ़नी चाहिए जो श्रद्धा और अंधश्रद्धा के बीच के तर्क को समझना चाहते हैं. साथ ही स्त्रियों की अन्धविश्वास उन्मूलन में क्या भूमिका रही है इस बात पर भी यह पुस्तक प्रकाश डालती है.
आज बुक कैफे के 'एक दिन एक किताब' कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाण्डेय ने डॉ नरेन्द्र दाभोलकर की महत्वपूर्ण कृति 'विवेक की आवाज: अन्धविश्वास उन्मूलन पर दस भाषण' पुस्तक की चर्चा की है. राजकमल प्रकाशन के सहयोगी उपक्रम सार्थक प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक में कुल 151 पृष्ठ हैं और इसका मूल्य है 199 रुपए है.
डॉ नरेन्द्र दाभोलकर की 'विवेक की आवाज: अन्धविश्वास उन्मूलन पर दस भाषण' पुस्तक के प्रधान सम्पादक हैं डॉ सुनीलकुमार लवटे और समन्वय सम्पादक-अनुवादक हैं डॉ चन्दा सोनकर. राजकमल प्रकाशन के सहयोगी उपक्रम सार्थक प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक में कुल 151 पृष्ठ हैं और इसका मूल्य है 199 रुपए है.