पूरब से लेकर पश्चिम तक, उत्तर से लेकर दक्षिण तक, कोई भी राजमार्ग प्रवासी मजदूरों से खाली नहीं है. जिन सड़कों को अपनी लंबाई का गुमान था, आज वह मजदूरों के कदमों के आगे छोटे पड़ने लगे हैं. सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर भारत के प्रवासी मजदूर अब अपने गांव की ओर पहुंचने लगे हैं. कई लोगों ने यात्रा शुरू की है तो कई की यात्रा आखिरी पड़ाव पर है. प
रेशानी, बेहाली, गरीबी, बेरोजगारी और अनिश्चित भविष्य लेकर बेबस मजदूर अपने गांव की ओर चल पड़ा है. 'हाईवे ऑन जिंदगी' की कवरेज करते हुए 'आजतक' का सफर अब वाराणसी से आगे बिहार की ओर चल पड़ा है. प्रवासी मजदूरों में सबसे ज्यादा संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों की है. यह 'आजतक' संवाददाता भी महापलायन करने वाले प्रवासी मजदूरों के साथ उसी सफर पर आगे चल पड़ा है.
वाराणसी से बिहार के बीच मुगलसराय से कुछ दूर आगे राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर दो पर हमारी मुलाकात संजय नाम के एक शख्स से हुई. 6 बच्चे, पत्नी समेत 8 लोगों के परिवार को लेकर संजय हरियाणा के बल्लभगढ़ से चले हैं और आगे बिहार के जमुई में अपने गांव जाना है. पिछले 7 दिनों से साइकिल रिक्शा पर संजय का सफर चल रहा है.
बल्लभगढ़ की एक फैक्ट्री में रोटी बनाने का काम करते थे. रास्ते में साइकिल की रफ्तार के साथ हमारे कदम आगे चले तो संजय ने अपनी दुख भरी कहानी हमें सुनाई. हरियाणा से चले इस मजदूर ने बताया, "7 दिन हो गया चलते-चलते, कंपनी पैसा नहीं दे रही थी. दो-तीन महीने से बैठे थे. सोचा कि घर बैठने से अच्छा है कि अपने घर चले जाएं. कंपनी से कोई मदद नहीं मिली. 17-18 दिन का काम हुआ वही पैसा मिला. कोई सरकारी मदद नहीं मिली. जहां खाना बांट रहे थे, वही चार-पांच दिन खाना खाए फिर पैसा खत्म हो गया.
दो छोटे बेटे भी सफर में
हिंदुस्तान के दूसरे मजदूरों की तरह संजय की परेशानी भी वही थी. जहां रहते थे, वहां किराया देना पड़ता था. लॉकडाउन में काम बंद हुआ लेकिन बढ़ते किराए में कोई कमी नहीं हुई. ऊपर से खाने-पीने की दिक्कत अलग से. संजय ने कहा, "वहां 3000 रुपये किराया ले रहे थे, मैं किराया कैसे देता. इसलिए मैं चल दिया. खाने पीने की दिक्कत थी." इस मजबूर मजदूर पिता के साथ उसके छोटे दो बेटे भी सफर में साथ हैं. 13 साल का बेटा चंद्रदीप भी 7 दिनों से पिता के साथ साइकिल चला रहा है.
छोटा बेटा कमलेश 9 साल का है. पैरों में चप्पल टूट गई तो हमने उसे नई चप्पल दे दी. शायद आगे का रास्ता कुछ आसान हो जाए. बड़े बेटे चंद्रदीप ने भी बातचीत करते हुए बताया, "7 दिन से मैं भी साथ चल रहा हूं. हाईवे पर खतरा होता है इसलिए छोटे-छोटे रास्तों से जाते हैं, जहां गाड़ियां कम चलती हैं. छोटा भाई जब थक जाता है तो उसकी साइकिल पिताजी ठेले पर रख देते हैं और उसे ऊपर बिठा देते हैं."
संजय का पूरा परिवार रात के 10:00 बजे तक चलते रहता है. संजय की पहली गाड़ी और उसके बच्चों की साइकिल रात में पेट्रोल पंप जैसी कई जगहों पर रुक जाती है और सुबह सूरज की पहली किरण के साथ यात्रा फिर शुरू हो जाती है. हालांकि हरियाणा से आगे चलने के बाद लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर की यात्रा के लिए उन्हें सरकारी बस भी मिली थी, जिस बस ने उन्हें वाराणसी तक छोड़ा. संजय को पता है कि अभी सफर लंबा है. लगता है कि अगले 5 दिन में वह अपने गांव पहुंच जाएगा. बेबस पत्नी सीता देवी भी मदद की उम्मीद लगाए चल रही हैं कि कोई मदद कर दे तो रास्ता छोटा हो जाए.
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ठेला गाड़ी पर जीवन की सारी कमाई
हरियाणा से बिहार के सफर पर निकली संजय की साइकिल ठेला गाड़ी पर जीवन की सारी कमाई रखी है. राशन, बर्तन, कपड़े के बाद साइकिल पर इतनी जगह भी नहीं कि उनकी पत्नी ठीक से छोटे बच्चे को गोद में लेकर बैठ सकें. झुलसाने वाली गर्मी में मासूम की रोती आवाज मां-बाप दोनों को कचोटती है. दूसरे छोटे बच्चों को प्यास लगी तो पिता ने गैलन खोलकर पानी भी दे दिया. 'आजतक' की टीम के पास जो भी खाने-पीने का सामान था, वह इन बच्चों को दे दिया. बच्चों के हाथों में बिस्किट आए तो चेहरे पर मुस्कुराहट भी आई, भले वह कुछ पल के लिए ही क्यों ना हो.
इन 7 दिनों का सफर कैसे कटा, संजय ने हमें वह भी बताया. जमुई के इस मजदूर ने अपनी व्यथा सुनाते हुए कहा, "ठेला गाड़ी पर बच्चों के कपड़े हैं, बर्तन हैं और राशन पानी 15 दिन का साथ लेकर चले हैं. कहीं पर कोई बच्चों को दूध भी दे देता है. कोई चावल दे देता है कोई कुछ खाने को दे देता है."
संजय की पत्नी ने भी रास्ते में कई लोगों को देखा जिनके अंदर माया ममता जिंदा थी और उन लोगों ने इन मजदूरों की मदद की. पलायन की इस महा त्रासदी से संजय ने एक शब्द जो सीख लिया है कि अब गांव में ही रोजी रोटी कमानी पड़ेगी. लेकिन पेट की आग जब जल आएगी तो इस मजदूर को फिर शहर की ओर शायद जाना पड़ेगा. लेकिन संजय कहते हैं, "कंपनी फिर चलेगी तो वापस आ जाएंगे लेकिन अब पूरा परिवार लेकर नहीं जाऊंगा, अकेले जाऊंगा."
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शरीर जलाने वाली गर्मी और दुर्गम सफर का अभी लंबा रास्ता बाकी है. न जाने कितने दिन लगेंगे जब यह मजदूर जमुई में अपने गांव पहुंचेगा. इंसानी सभ्यता की इतनी बड़ी त्रासदी अपने आप में सत्ता, सरकार और सिस्टम पर सवाल खड़े कर रही है. मजदूर सवाल पूछ नहीं सकता इसलिए बेबस मजबूर होकर चला जा रहा है.