उन्होंने 15 साल अलग-अलग जेलों में बिताए हैं. पिछले बीस साल में उन पर 12 जानलेवा हमले हो चुके हैं. उनकी सात सर्जरी हो चुकी हैं, जिसमें मुंबई के टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल में कार्सिनोमा (एक प्रकार का कैंसर) की दो सर्जरी भी शामिल हैं. 81 वर्ष की उम्र में सैयद अली शाह गिलानी ने आखिरकार अपना ख्वाब पूरा कर लिया है- कश्मीर घाटी में भारत विरोधी भावनाओं का नेतृत्व करने का. तहरीक-ए-हुर्रियत के चेयरमैन और जमात-ए-इस्लामी के लंबे समय से सदस्य गिलानी इस बार चुपचाप बाजी छोड़ने के मूड में नजर नहीं आते. बेशक उनके लिए यह हैरत की ही बात होगी कि अरुंधति राय जैसी 'क्रांतिकारी' भी कश्मीर को भारत से अलग करने की उनकी मांग का समर्थन करने को तैयार हैं.
हड़ताल के चार महीने बाद, जिसमें 111 युवक-युवतियां मारे गए, 1,025 गिरफ्तार और 3,500 घायल हुए, गिलानी का मानना है कि वे कश्मीर में इस्लामी शासन स्थापित करने का चमत्कार करने के कगार पर हैं. बेशक यह अभी एक दूर का ख्वाब नजर आता हो, लेकिन 1953 में जमात-ए-इस्लामी में शामिल होने के बाद से ही यह उनके जीवन का मुख्य फोकस रहा है. उस समय वे सरकारी स्कूल में अध्यापक हुआ करते थे, और वे 1940 से 1944 तक चार साल लाहौर में गुजार कर कुरान और धर्मशास्त्र की शिक्षा ले चुके थे. 1944 के बाद वे पाकिस्तान नहीं लौटे, हालांकि उनका 47 वर्षीय बड़ा बेटा नईम पिछले दस साल से पाकिस्तान में ही रह रहा है.{mospagebreak}
मजेदार तथ्य यह है कि एक ऐसा शख्स जो भारत की अखंडता को भंग करना चाहता है, जो धर्मनिरपेक्ष भारत के विचार से नफरत करता है, उसे दिल्ली और श्रीनगर सरकार से वित्तीय मदद लेने से कोई गुरेज नहीं है. ऐसी खबरें भी हैं कि उनके पास इंटेलीजेंस सीक्रेट फंड से भी पैसा आता है. लेकिन जिस बात से इनकार नहीं किया जा सकता वह यह है कि उनकी सर्जरियों के लिए सरकार ने भुगतान किए, और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने तो उन्हें रांची की जेल से लाने के लिए विशेष विमान तक भेजा था. इस जेल में उन्हें बंद करके रखा गया था. उनके पेसमेकर को एस्कॉर्ट्स अस्पताल में बदला गया, उनका पित्ताशय गंगाराम अस्पताल में निकाला गया,
उनके मोतियाबिंद के दो ऑपरेशन अपोलो अस्पताल में हुए. और तो और, उनके दांतों को बतरा अस्पताल में नया रंग-रूप दिया गया. यह सब देश की राजधानी में हुआ. टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल में हुई उनकी सर्जरी इतनी सफल रही कि दाएं गुर्दे का जो हिस्सा रह गया था और वह दोबारा काम करने लग गया है, और दोनों गुर्दों का काम कर रहा है. श्रीनगर के हैदरपुरा इलाके में उनका तीन मंजिला शानदार और आरामदायक घर उन्हें जमात-ए-इस्लामी ने उपलब्ध कराया है. उन्होंने दिल्ली के मालवीय नगर में भी एक घर बना रखा है जहां वे कश्मीर की सर्दियों के तीन माह बिताते हैं. लेकिन वे आजादी की मांग को लेकर अडिग रहते हैं, जो उनकी नजर में कश्मीर को पाकिस्तान के साथ जोड़ देगी. वे आजाद कश्मीर नहीं चाहते हैं, हालांकि आजादी ''भारतीय साम्राज्यवाद'' से श्रेयस्कर होगी. वह उस विचारधारा के समर्थक हैं जो मजहबी पाकिस्तान के तहत कश्मीर को इस्लामी राज्य बनाना चाहती है.{mospagebreak}
आजादी के समर्थक सज्जाद लोन का, जो उनके घोर आलोचकों में से एक हैं, मानना है कि भारत सरकार गिलानी को आगे बढ़ाने को वरीयता देगी ताकि अपने मूल स्वरूप में धर्मनिरपेक्ष, आजादी के आंदोलन को बदनाम किया जा सके. ''यह शासन की कला है. जब तक वे यहां रहेंगे, कश्मीरियों के लिए आजादी एक खतरनाक विचार लगता रहेगा.'' गिलानी इस्लामीकरण के लिए अपना अभियान पहले ही छेड़ चुके हैं. इस बारे में वे खुल कर बोल रहे हैं कि किस तरह कश्मीरी युवाओं को ''दिल्ली के पब्लिक स्कूलों और आर्मी स्कूलों के जरिए भारतीयकरण से बचाया जाना चाहिए.'' शायद तभी डीपीएस श्रीनगर के अध्यक्ष विजय धर को जमात के लोगों ने शुक्रवार की नमाज के लिए बच्चों को छुट्टी देने के लिए कहा था और इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी के वाइस चांसलर सिद्दीक वाहिद को कैंपस में मस्जिद बनाने के लिए कहा गया था. लेकिन इन दोनों ही मांगों को सिरे से खारिज कर दिया गया.
जिस तरह गर्मियों में युवा सड़कों पर उतरे, गिलानी उसका श्रेय लेने के लिए आतुर नजर आते हैं. वे कहते हैं कि मौत को लेकर इन युवकों में खौफ का न होना ''अनूठा'' और ''काबिलेतारीफ'' है. उनकी प्रेरणा का स्त्रोत? वे कहते हैं, ''जब भी हम रैलियों, सेमिनारों या मस्जिदों में युवाओं से बात करते हैं, तो मैं कहता हूं कि प्रेरणा का स्त्रोत कुरान और सुन्नाह है.'' नतीजे आने लगे हैं. उनका कहना है, ''जो जागरूकता फैल रही है उसके लिए हमें 1947 में शुरू किए गए जमात के स्कूलों और तैयार किए गए साहित्य का आभारी होना चाहिए.''{mospagebreak}
यही वह माहौल था जिसने कश्मीरी पंडित और विद्वान शशि शेखर तोशखानी को 1984 में श्रीनगर छोड़ने पर मजबूर कर दिया. ''गिलानी इस विचार के प्रतीक हैं कि इस्लाम किस तरह काफिरों पर ताकत की आजमाइश करता है. यही वह विचार है जिसने स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी त्रासदी को आमंत्रित किया, कश्मीरी पंडितों के जातिसंहार को भुलाया नहीं जा सकता.'' कई युवा कश्मीरी मुस्लिमों के लिए गिलानी एक लोक नायक की तरह हैं, लीबियाई उमर मुख्तार की तरह जिन्होंने लीबिया में इटली के आधिपत्य के खिलाफ जंग लड़ी थी और कभी समझौता नहीं किया. यह ऐसी बात है जिसे मीरवायज उमर फारूक भी मानते हैं. वे कहते हैं, ''जब-जब कश्मीर ने नई दिल्ली के साथ बातचीत की है, चाहे वह 1947, 1953 या 1975 हो, इसके नेता हमेशा अपेक्षाकृत ज्यादा नहीं बल्कि कम स्वायत्तता के साथ लौटे हैं.''
उनका इशारा परवेज मुशर्रफ के चार-सूत्री फॉर्मूले को लेकर हुए तीन चरणों की बातचीत से उन्हें दिल्ली द्वारा बाहर कर देने की ओर है. गिलानी इस कवायद का हिस्सा नहीं थे, हालांकि 2005 में वे मुशर्रफ से मिले थे. मुशर्रफ के समय में पाकिस्तान के रुख बदलने के बावजूद गिलानी ने आजादी के मसले पर नरम पड़ने से इनकार कर दिया था, जिसने युवाओं में उनके प्रभामंडल को और फैलाया था. हमेशा से उनका रुख रहा हैः जम्मू-कश्मीर को विवादास्पद क्षेत्र घोषित करो, यहां से सेना हटाओ, सभी ''सख्त कानूनों'' को हटाओ, सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करो और वार्ता को त्रिपक्षीय बनाओ. लोन का सोचने का तरीका कुछ और हैः ''वे तभी वार्ता चाहते हैं जब वह केवल उनके साथ हो, न कि किसी और के साथ.''{mospagebreak}
लोन के पास खिन्न होने के कारण हैं. गिलानी ने लोन पर उस समय आंदोलन को धोखा देने का आरोप लगाया था जब उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से 2002 का विधानसभा चुनाव लड़ा था और उन्हें 26 दलों के मजबूत संगठन हुर्रियत कॉन्फ्रेंस से बाहर कर दिया गया था. लेकिन गिलानी खुद भी चुनाव लड़ चुके हैं. यहां तक कि उन्होंने 1980 के संसदीय चुनाव में भी हिस्सा लिया था, वे बारामुला से मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के उम्मीदवार थे. वे तीन बार-1972, 1977 और 1987 में- विधायक भी रह चुके हैं. वे कहते हैं, ''हम अपनी आवाज लोकतांत्रिक ढंग से उठाना चाहते थे. हमें उम्मीद थी कि भारत इसका सम्मान करेगा. लेकिन भारत ने ऐसा नहीं किया.'' इसके मायने यह नहीं है कि उन्होंने भारतीय वार्ताकारों से बात ही नहीं की. वे वजाहत हबीबुल्ला और आर.के. मिश्र समेत दूसरों के साथ कई बार वार्ता में शामिल रहे हैं, लेकिन ये सब निजी थीं और उन पर आधिकारिक वार्ता का ठप्पा नहीं लगा. उनके छोटे बेटे नसीम जफर (40), जो शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज और टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी में पीएच.डी के छात्र हैं और हमेशा अपने पिता के साथ रहते हैं, पूछते हैं, ''इन बैठकों के बाद क्या हुआ? वे तस्वीरें खिंचवाने आए और चले गए.''{mospagebreak}
कश्मीर से जुड़े मसले देखने वाले वाले रॉ के पूर्व प्रमुख ए.एस. दुलत कहते हैं, ''एक समय, हमने उन्हें पूरी तरह खारिज करवा दिया था. उन्हें भी एहसास हो गया था कि वे अपने कट्टर रुख के चलते भारत सरकार को कभी भी स्वीकार्य नहीं होंगे.'' सैयद सलाहुद्दीन के नेतृत्व वाले आतंकवादी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन के साथ जुड़े तार भी काम न आ सके. सैयद सलाहुद्दीन, जिसे पहले सैयद यूसुफ शाह के नाम से जाना जाता था, श्रीनगर की अमीर कदल विधानसभा क्षेत्र से मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट का उम्मीदवार था. उसे नतीजों से छेड़छाड़ करने के आरोप में जेल में डाल दिया गया. गिलानी ने चुनाव लड़ा और वे जीत गए. लेकिन 1989 में आंतकवाद शुरू होने के बाद ही उन्होंने विधानसभा छोड़ी.
वे अपने गर्म कमरे में बैठे हैं, उन्होंने परंपरागत ड्रेसिंग गाउन पहन रखा है, गले पर मफलर लपेटा हुआ है और सिर पर ऊन की गरम टोपी पहन रखी है. और हमेशा की तरह सख्त नजर आ रहे हैं. हालांकि उन्होंने अमेरिका के खिलाफ अपने सुर थोड़े नरम कर लिये हैं, इसमें कोई संदेह नहीं कि वे बराक ओबामा की नजरों में आना चाहते हैं. वैसे भी ओबामा की भारत यात्रा के दौरान चार दिन के लिए घाटी में हड़ताल का आह्वान किया गया है. सितंबर में उन्होंने इंडिया टुडे को बताया था कि महाशक्तियां घाटी में ''बहने वाले बेशकीमती लहू'' की ओर ध्यान नहीं दे रही हैं क्योंकि ''राजनीति का मौजूदा युग मानव मूल्यों पर नहीं बल्कि आर्थिक हितों द्वारा संचालित होता है'' और इसलिए ''ईरान, इराक और जम्मू और कश्मीर में कब्जा करने वाली शक्तियां'' मासूम लोगों का दमन कर रही हैं. आज गिलानी कहते हैं कि दुनिया उन शांतिपूर्ण संघर्षों की ओर ध्यान देने लगी है जिनमें बंदूक और बमों का प्रयोग नहीं होता. ''ब्रुसेल्स, वाशिंगटन, लंदन, न्यूयॉर्क और जेनेवा में सम्मेलन हो रहे हैं.''{mospagebreak}
अलगावादियों के बीच आपसी झगड़े को लेकर वे कहते हैं कि यह ''गुजरा हुआ इतिहास'' है. मसर्रत आलम, उनके उत्तराधिकारी के तौर पर बताए जाने वाले कट्टरपंथी, मुस्लिम लीग के वाइस चेयरमैन हैं ''जो हमारी फोरम का एक अंग है.'' उनके मुताबिक, मकसद को लेकर जंग लड़ रहा हर शख्स महत्वपूर्ण है. तो क्या आलम नए नेता हैं? इस सवाल को दरकिनार करते हुए वे कहते हैं, ''यह समस्या नहीं है. हमारे कई लोग सलाखों के पीछे हैं. शब्बीर शाह, मोहम्मद यूसुफ, तारिक अहमद, असिया अंद्राबी विभिन्न जेलों में हैं. असिया के पति डॉ. कासिम जैसे कुछ लोग तिहाड़ जेल में बंद हैं. हम सभी से प्यार करते हैं और उनका सम्मान करते हैं. वे हमारे सहयोगी हैं और हमारे लिए काम करते हैं. हमें साथ में जेल में होना चाहिए था.''
गिलानी इशारा करते हैं कि मैंने भी अपने हिस्से की कुर्बानियां दी हैं. उनके पिता सैयद पीर शाह गिलानी बारामूला जिले के जूरी मुंज के गरीब किसान थे, उनकी मौत 14 नवंबर, 1963 को हुई थी तब गिलानी को श्रीनगर सेंट्रल जेल से अंतिम संस्कार के लिए नहीं आने दिया गया था. 1985 में, उन्हें अपनी बड़ी बेटी और फिर दूसरी बड़ी बेटी की शादी से भी दूर रहना पड़ा था. कुछ क्षणों के लिए यह बुजुर्ग थोड़ा उदास नजर आता है. ''बाद में उसकी मौत हो गई. वह बहुत होशियार थी. वह अंग्रेजी में एम.ए. कर रही थी.''
एक पिता एकदम से उभरकर सामने आ जता है. लेकिन कुछ क्षणों में उनके अंदर का सख्त सियासतदां आगे आ आता है. फिर से.