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Opinion: राहुल गांधी की बातों का मतलब क्या निकला?

कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के टेलीविजन इंटरव्यू पर सभी की निगाहें टिकी हुई थीं. राहुल गांधी ने शुरुआत तो की काफी ज़ोश खरोश से लेकिन प्रश्नों के जाल में फंसते चले गए.

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राहुल गांधी
राहुल गांधी

कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के टेलीविजन इंटरव्यू पर सभी की निगाहें टिकी हुई थीं. राहुल गांधी ने शुरुआत तो की काफी ज़ोशोखरोश से लेकिन प्रश्नों के जाल में फंसते चले गए. वह एक चतुर वक्ता या मंजे हुए राजनीतिज्ञ नहीं हैं कि जिन प्रश्नों के जवाब न देने हों तो उन्हें सफाई से टाल जाएं. ज़ाहिर है उन्हें कई बार जवाब देना भारी पड़ा और कुछ संवेदनशील मुद्दों पर लगभग खामोश रहे. मसलन 1984 के सिख दंगों के लिए उन्होंने कोई माफी नहीं मांगी और न ही अपनी ओर से कुछ कहा, जबकि प्रधानमंत्री ऐसा कर चुके हैं.

सवाल यह है कि राहुल गांधी ने इस महत्वपूर्ण प्रश्न को इस तरह से कैसे जाने दिया? यह तो उनके अंक बढ़ाता और माफी मांग लेने से उन पर या उनके पिता राजीव गांधी पर कोई आंच तो नहीं आ जाती. यह एक बड़े दिल वाली बात होती, क्योंकि जब-जब कांग्रेसी गुजरात दंगों की बात उठाएंगे तब-तब विपक्षी 1984 के दंगों की बात उठाते रहेंगे. वह नरसंहार उतना ही दर्दनाक था जितना गुजरात का. ऐसे में उन्हें कम से कम मरहम लगाने का प्रयास तो करना ही चाहिए था.

राहुल एक नई राजनीतिक व्यवस्था चाहते हैं जिसमें महिला सशक्तिकरण से लेकर पारदर्शिता तक हो. वह नए प्रयोग भी करना चाहते हैं जिससे भ्रष्टाचार का खात्मा हो. लेकिन अब तक उनकी पार्टी ने जो किया उससे तो लगता नहीं कि उनकी बातें वाकई उन तक पहुंची हैं जिन्हें इनकी जरूरत है. वह बंद कमरों में होने वाले फैसलों के खिलाफ हैं और उन्होंने इसके लिए युवा कांग्रेस और एनएसयूआई का उदाहरण भी दिया. लेकिन क्या वाकई पार्टी में ऐसा हो रहा है और उसके लिए क्या तंत्र विकसित किया गया है, यह उन्हें देखना पड़ेगा.

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उनकी बातें सैद्धांतिक रूप में भले ही अच्छी लग रही हों, व्यावहारिक रूप में उनका कार्यान्वयन जटिल और कठिन है. आज़ाद भारत की राजनीति कितनी सड़-गल चुकी है, यह किसी से छुपा नहीं है. ऐसे में स्वच्छता की बातें करना अच्छा लग सकता है लेकिन व्यवहार में इसे कर दिखाने में वर्षों लग जाएंगे, क्योंकि दशकों से बनी आदतें महीनों में दूर नहीं हो सकतीं.

पिछले दिनों हमने जिन राहुल गांधी को देखा वह एक छापामार की तरह पार्टी के काम काज और नीतियों को सुधारने का प्रयास करते दिखे. वह अचानक कोई जनप्रिय कदम उठाते हैं और वाह-वाही लूटने का प्रयास करते हैं. लेकिन अब तक एक मंजे राजनीतिज्ञ की तरह उन्होंने कुछ ऐसा नहीं किया जिससे माना जा सके कि वह पार्टी की नैया को पार लगा देंगे. यह इंटरव्यू भी उसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए.

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