भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने स्पष्ट संकेत दिया कि उनका दल प्रधानमंत्री को लोकपाल विधेयक के दायरे में लाने का पक्षधर है. उन्होंने कहा कि राजग सरकार द्वारा 1998 और 2001 में तैयार विधेयक में इसका साफ उल्लेख किया गया था.
अपने ताज़ा ब्लॉग में उन्होंने कहा कि वे शुरू से ही प्रधानमंत्री को लोकपाल विधेयक के दायरे में लाने के पक्ष में रहे हैं. इस संबंध में उन्होंने 1988 में राज्यसभा में विपक्ष के नेता के तौर पर उस असहमति नोट पर किये अपने हस्ताक्षर का जिक्र किया, जिसमें अन्य कई प्रमुख सांसदों ने राजीव गांधी सरकार की ओर से तैयार लोकपाल विधेयक के मसौदे पर असंतोष जताया था.
उस असहमति नोट में कहा गया था, ‘‘राज्यों के लोकायुक्तों की कार्यप्रणाली का अध्ययन करते हुए हमने पाया कि कई राज्यों में मुख्यमंत्री भी लोकायुक्त की परिधि में आते हैं. हमारा पुरजोर मानना है कि इसी तरह प्रधानमंत्री पद को भी लोकपाल के दायरे में आना चाहिए.’’
उल्लेखनीय है कि लोकपाल विधेयक पर रविवार को हुई सर्वदलीय बैठक सहित भाजपा इस बारे में अपने पत्ते खोलने से बचती रही है. रविवार की बैठक के बाद भी प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने के बारे में पूछे जाने पर विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने कहा था कि भाजपा इस विधेयक पर संसद की स्थायी समिति में चर्चा के दौरान अपने विचार रखेगी.
आडवाणी ने अपने ब्लॉग पर लिखा कि वर्ष 1989 और 1996 के लोकपाल मसौदा विधेयकों में भी प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में रखा गया था. उन्होंने कहा, ‘‘बाद में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार के दौरान पेश किये गये लोकपाल विधेयकों में भी प्रधानमंत्री को दायरे में रखा गया था. मुझे अच्छी तरह से याद है कि बतौर प्रधानमंत्री अटलजी इस बात पर काफी दृढ़ थे कि प्रधानमंत्री पद को लोकपाल के अधिकार क्षेत्र से बाहर नहीं होना चाहिये.’’
राजग ने वर्ष 1998 और फिर 2001 में लोकपाल के विधेयक संसद में पेश किये थे. दोनों विधेयकों में प्रधानमंत्री पद को लोकपाल के दायरे में रखने के प्रावधानों का जिक्र था.
आडवाणी ने रविवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा लोकपाल के मुद्दे पर बुलायी गयी सर्वदलीय बैठक का जिक्र करते हुए कहा कि यह बैठक अनोखी थी और ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया कि राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे पर गौर करने के सरकार के तरीके की एकमत से आलोचना की.
उन्होंने कहा कि बैठक में मौजूद लगभग सभी दलों के नेताओं के साथ लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज के इन विचारों का समर्थन किया कि सरकार जिस तरह से इस मुद्दे से निपट रही है और जिस तरह संसद की उपेक्षा की गयी है, उसका कतई समर्थन नहीं किया जा सकता.
आडवाणी ने कहा, ‘‘..मैंने कई सर्वदलीय बैठकों में भाग लिया है. हालांकि, तीन जुलाई की शाम प्रधानमंत्री की बुलायी गयी बैठक अनोखी साबित हुई जिसका कोई पूर्व उदाहरण नहीं दिखता. पिछले रविवार की बैठक से पहले ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि किसी सर्वदलीय बैठक में सरकार की आलोचना को लेकर इतनी एकराय हो.’’
बैठक में सुषमा के प्रकट किये गये विचारों का हवाला देते हुए आडवाणी ने कहा कि स्थापित संसदीय प्रक्रियाओं को एकतरफ रखकर सरकार ने इस मुद्दे को और उलझा दिया और खुद की हंसी उड़ाने वाला काम किया. यह सर्वदलीय बैठक इस गड़बड़ी से खुद को बाहर निकालने की सरकार की एक कोशिश प्रतीत होती है.
आडवाणी ने अपने ब्लॉग में राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली के सर्वदलीय बैठक में व्यक्त किये गये विचारों का भी जिक्र किया. जेटली ने कहा था कि संयुक्त समिति में शामिल केंद्र के मंत्रियों द्वारा तैयार मसौदे पर विस्तृत तरीके से गौर करने की जरूरत है क्योंकि इस मसौदे में लोकपाल को आसानी से सरकार के प्रभाव में आ जाने लायक बनाने की कोशिश की गयी है.