राष्ट्रपति की ओर से सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए 14 सूत्री संदर्भ पर सुनवाई से पहले केंद्र सरकार ने इन संवैधानिक सवालों पर अपनी दलीलें हलफनामे के साथ सुप्रीम कोर्ट को दी हैं. सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की विशेष पीठ इस पर मंगलवार को सुनवाई करेगी. सरकार ने मोटे तौर पर अपने हलफनामे में कहा है कि भारतीय संविधान शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) और चेक्स एंड बैलेंस की व्यवस्था को मान्यता देता है. इससे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सह-समकक्ष रहते हैं. राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसी संवैधानिक संस्थाओं के पास विशिष्ट क्षेत्र (exclusive domains) हैं. लिहाजा सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को निर्देश नहीं दे सकता या समय सीमा तय नहीं कर सकता कि उन्हें कितने समय में निर्णय लेना है. ये संविधान प्रदत्त राष्ट्रपति के अधिकारों में दखल होगा. यानी शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के मुताबिक राष्ट्रपति के अधिकार में अन्य अंग हस्तक्षेप नहीं कर सकते.
संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की अनुमोदन (assent) की शक्ति पूर्ण (plenary) और न्यायिक समीक्षा से परे है. संविधान ने जानबूझकर इन शक्तियों के प्रयोग के लिए कोई समय-सीमा तय नहीं की है. न्यायालय इस व्यवस्था को बदलकर संविधान निर्माताओं की मंशा को विफल नहीं कर सकता. अनुच्छेद 142 भी संविधान को अधिलेखित नहीं कर सकता. केंद्र सरकार (UOI) ने अपने पक्ष में दलील दी है कि न्यायपालिका को अन्य अंगों की मूल शक्तियों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. समाधान राजनीतिक-संवैधानिक तंत्र से होना चाहिए न कि न्यायिक नवाचार से.
मंगलवार को सुनवाई करेगा सुप्रीम कोर्ट
राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए विधायिका से पारित विधेयकों पर स्वीकृति का फैसला लेने के लिए समय सीमा तय करने के मामले पर सुप्रीम कोर्ट मंगलवार को सुनवाई करेगा. सुप्रीम कोर्ट के तीन महीने की समय सीमा तय करने पर राष्ट्रपति ने चीफ जस्टिस को 14 सवालों वाला संदर्भ भेजा है. केंद्र ने राष्ट्रपति संदर्भ मामले की सुनवाई से पहले सुप्रीम कोर्ट में लिखित दलीलें पेश करते हुए कहा है कि राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए राज्य विधेयकों पर निर्णय लेने की समय-सीमा, शक्तियों के नाजुक पृथक्करण को बिगाड़ देगी. इससे संवैधानिक अव्यवस्था भी जन्म लेगी.
सरकार ने क्या कहा?
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के माध्यम से दायर लिखित दलीलों में सुप्रीम कोर्ट को आगाह किया गया है कि राज्यपालों और राष्ट्रपति पर राज्य विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए निश्चित समय-सीमा लागू करना, जैसा कि अदालत ने अप्रैल के एक फैसले में कहा था, सरकार के एक अंग द्वारा उन शक्तियों को अपने हाथ में लेने के समान होगा जो उसके पास निहित नहीं हैं, जिससे शक्तियों का नाजुक पृथक्करण बिगड़ जाएगा और 'संवैधानिक अव्यवस्था' पैदा होगी.
क्या कोर्ट तय कर सकता है राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा?
पांच जजों की विशिष्ट पीठ में CJI बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदूरकर होंगे. विधायिका से पारित विधेयकों को मंजूरी के लिए जब राज्यपाल या राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है तब वो उस पर विचार करने के लिए अपने पास रख लेते हैं. तो क्या अदालत राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा और प्रक्रियाएं निर्धारित कर सकती है? राष्ट्रपति के द्वारा इस मसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट से मांगे गए रेफरेंस पर CJI जस्टिस बी आर गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की विशेष पीठ 19 अगस्त को सुनवाई करेगी.
दरअसल राष्ट्रपति के द्वारा तमिलनाडु के राज्यपाल मामले में सुनवाई करते हुए अप्रैल में दिए गए उस फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पर रेफरेंस मांगा है. इसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चितकाल तक के लिए नहीं रोक सकता. राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 200, 201,361, 143, 142, 145(3) और 131 से जुड़े सवालों पर सुप्रीम कोर्ट से पूछा है कि जब राज्यपाल के पास कोई बिल आता है तो उनके पास क्या विकल्प होता है? और क्या राज्यपाल मंत्री परिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य है. कुल मिलाकर विवाद यह है कि अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल की शक्तियां कितनी व्यापक हैं और क्या वे न्यायिक समीक्षा से परे हैं? क्या राष्ट्रपति का अनुच्छेद 143 का संदर्भ पहले से तय मुद्दों को दोबारा खोल सकता है?