scorecardresearch
 

घर से स्कूल, फिर ट्यूशन, फिर कोई हॉबी क्लास....कहां गुम हो रहा बचपना? सोचना तो होगा

शहरों में रह रे बच्चों का रूटीन किसी नौकरीपेशा इंसान से कम नहीं है. देखा जाए तो शायद उनसे ज्यादा ही है. बड़े शहरों के स्कूल अब ज्यादा समय तक चलते हैं ताकि पढ़ाई, एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज और कामकाजी माता-पिता की सुविधा का ध्यान रखा जा सके. लेकिन इसका असर बच्चों पर क्या पड़ रहा है?  

Advertisement
X
Generative AI Image by: Vani Gupta
Generative AI Image by: Vani Gupta

महज 11 साल की रिया हर सुबह भोर के 6 बजे उठ जाती है. ब्रश करना, नहाना और 7 बजते-बजते कांधे पर स्कूल का भारी बैग लिए वो दौड़ पड़ती है. कई बार नाश्ता भी इतनी जल्दबाजी में होता है कि कुछ खाया और कुछ प्लेट में छोड़कर चली जाती है. चेहरे पर नींद के बादल साफ नजर आते हैं. सुबह सात बजे शुरू हुआ ये दिन शाम 5 बजे के बाद खत्म होता है. घर पहुंचने के बाद ट्यूशन जाने का प्रेशर दिमाग पर हावी होता है. वापस लौटी तो होमवर्क, फिर डिनर और बस नींद के आगोश में चले जाना. 

ये वो बच्ची है जिसके पास न खेलने का वक्त है न पार्क जाने का मौका, न ही ठहरकर कुछ सोचने की फुर्सत है. ये स‍िर्फ रिया नहीं आज शहरी घरों के बच्चों का न्यू नॉर्मल-सा बन गया है. ये रूटीन किसी नौकरीपेशा इंसान से कम नहीं है. देखा जाए तो शायद उनसे ज्यादा ही है. बड़े शहरों के स्कूल अब ज्यादा समय तक चलते हैं ताकि पढ़ाई, एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज और कामकाजी माता-पिता की सुविधा का ध्यान रखा जा सके. लेकिन इसका असर बच्चों पर क्या पड़ रहा है?  

सुरक्षित हैं, लेकिन किस कीमत पर?

कामकाजी माता-पिता के लिए स्कूल के लंबे घंटे राहत की बात हैं. गुरुग्राम में मार्केटिंग प्रोफेशनल और चौथी कक्षा के बच्चे की मां रितु शर्मा कहती हैं कि मुझे सुकून मिलता है कि मेरी बेटी स्कूल में सुरक्षित है. आज स्कूल में खेल, एक्टिविटीज और खाना सब कुछ मिलता है. ये उनका दूसरा घर जैसा है. लेकिन घर पर रहने वाले माता-पिता इससे खुश नहीं. 

Advertisement

बेंगलुरु की गृहिणी मीना नायर कहती हैं कि हमारे बच्चे मशीन नहीं हैं. मेरा बेटा सुबह 7 बजे घर से निकलता है और शाम 5:30 बजे लौटता है फिर ट्यूशन और होमवर्क. न खेलने का समय, न सपने देखने की फुर्सत. ये सब बच्चों की कल्पनाशक्ति को कमजोर कर रहा है. मेरा दिल टूटता है. 

90 का दशक vs आज: जमीन-आसमान का फर्क

90 के दशक में स्कूल सुबह 8 बजे शुरू होकर दोपहर 1:30 या 2 बजे तक खत्म हो जाते थे. बच्चे घर लौटकर खाना खाते, दोपहर की नींद लेते और फिर खेलते या दादा-दादी के साथ समय बिताते. बाल मनोवैज्ञानिक डॉ. वंदना सूद बताती हैं कि वो दोपहर की नींद सिर्फ आराम नहीं थी बल्कि बच्चों के दिमाग और भावनाओं के लिए जरूरी थी. ये उनकी पढ़ाई को बेहतर करने और तनाव कम करने में मदद करती थी. आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में बच्चों को ये मौका नहीं मिलता.

बच्चों का व्यवहार बयां कर रहा सच

शिक्षक और काउंसलर अब दावा करते हैं कि प्राइमरी क्लास के बच्चों में भी सामाजिक चिंता, चिड़चिड़ापन और मानसिक थकान बढ़ रही है. दिल्ली की एक स्कूल काउंसलर कहती हैं कि कई बच्चे ब्रेक में बस सोना चाहते हैं या अकेले रहना चाहते हैं.

Advertisement

स्कूलों का तर्क

स्कूल लंबे घंटों को 'होलिस्टिक लर्निंग' का हिस्सा बताते हैं. उनके मुताबिक, रोबोटिक्स, योग, कोडिंग, और परफॉर्मिंग आर्ट्स जैसे प्रोग्राम्स के लिए ज्यादा समय चाहिए जो पहले के छोटे शेड्यूल में संभव नहीं था. 

बच्चों की आवाज कहां?

इस बहस में बच्चों की आवाज अक्सर दब जाती है. कुछ बच्चे दोस्तों के साथ समय और एक्टिविटीज को पसंद करते हैं लेकिन ज्यादातर बस थक जाते हैं. उनकी दिनचर्या में सहजता और मौज-मस्ती के लिए जगह ही नहीं बचती.   

संतुलन की जरूरत

माता-पिता, शिक्षकों और नीति निर्माताओं को रुककर सोचना होगा. क्या हम बच्चों को भावनात्मक रूप से मजबूत और संतुलित बना रहे हैं या उन्हें बचपन से ही बड़ों की भागदौड़ में ढाल रहे हैं? शायद अब वक्त है कि हम बच्चों के बचपन को वापस लौटाएं जहां स्कूल दिन में जल्दी खत्म हो और बच्चे धूप में खेलें, किताबें पढ़ें और दोपहर की नींद का आनंद लें. 

---- समाप्त ----
रिपोर्ट- मेघा चतुर्वेदी
Live TV

Advertisement
Advertisement