जमीन का महत्व हमेशा से जिंदगी से ज्यादा रहा है. इसे लेकर कोई दोराय नहीं है और पुराने समय से चला आ रहा यह ऐसा सच है जिस पर सभी एक साथ सहमत होते हैं. जमीन ही वह ठोस आधार है, जिस पर मानव सभ्यता का पूरा ढांचा खड़ा है. चाहे जीवन को ईश्वर की रचना मानें, विकास की प्रक्रिया का नतीजा समझें या किसी बुद्धिमान योजना का परिणाम... हर स्थिति में शुरुआत भूमि या जमीन से ही होती है.
अगर हम आस्था से परे जाकर इस तथ्य को देखें तो पाएंगे कि आदिम आदेश भी हमेशा से 'भूमि को बचाए रखने' को लेकर था. 'भूमि हो या भूमि बनी रहे'. यही आदेश मानव की हर गति, हर यात्रा या पलायन की भी वजह बना. इसने ही मनुष्य को मनुष्य होने का अर्थ दिया क्योंकि जमीन का मोह और जमीन से जुड़ाव ही इस आदम जाति की बड़ी पहचान है.
अब इसकी तुलना समय से कीजिए. समय मानव मस्तिष्क की एक अमूर्त कल्पना है. कोई दो घड़ियां एक जैसा समय नहीं बतातीं, न ही कोई दो कैलेंडर पूरी तरह मेल खाते हैं. यही वजह है कि भारत में साल के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग ‘नया साल’ मनाया जाता है. लेकिन भूमि ऐसी नहीं है. वह स्थिर है, ठोस है, निर्विवाद है.
देशांतर और अक्षांश भले ही मानव की बनाई हुई रेखाएं हों, लेकिन स्थान, दिशा और दूरी की एक गहरी समझ हर इंसान के भीतर जन्म से मौजूद होती है. यहां तक कि स्वर्ग और नरक जैसी कल्पनाएं भी किसी न किसी निश्चित जगह के रूप में ही देखी जाती हैं. रोजमर्रा की बातचीत में भी ‘आप कैसे हैं?’ के बाद अगला सवाल अक्सर यही होता है ‘आप कहां हैं?’
भूमि ही इस नश्वर मानव जीवन को सबसे मजबूत सहारा देती है. आदिम शिकारी समाजों से लेकर बड़े-बड़े साम्राज्यों और आधुनिक दौर के शोषकों तक, मनुष्य की नजर हमेशा नई जमीन पर टिकी रही है. हिटलर का 'लेबेन्सराउम' यानी 'जीने की जगह' का सिद्धांत इसी लालसा की बीसवीं सदी की सबसे क्रूर अभिव्यक्ति था. आज एलन मस्क जैसे आधुनिक उद्योगपति धरती से आगे बढ़कर चांद और मंगल को भविष्य की संपत्ति के रूप में देख रहे हैं. असल बात यह है कि हर मानव प्रयास, हर विचारधारा और हर बड़ा सपना किसी न किसी जमीन से जुड़ा होता है.
इसी वजह से भूमि ही संघर्ष की सबसे बड़ी वजह भी बनती है. वह देशों को बांटती है, पड़ोसियों को दुश्मन बनाती है, और कई बार परिवारों के बीच भी दीवार खड़ी कर देती है. इतिहास के ज्यादातर झगड़े जमीन को लेकर ही हुए हैं. धन भी आखिरकार जमीन, उसके संसाधनों और उस पर अधिकार का ही दूसरा नाम है. जियोपॉलिटिक्स मानव इतिहास का मूल स्वर रही है. समय के पन्ने छोटे-बड़े सीमा विवादों, बाड़ों और खून से सने मोर्चों से भरे पड़े हैं.
अब इस दार्शनिक पृष्ठभूमि के साथ भारत की ओर चलते हैं. आज की राजनीति में जो अंतहीन टकराव दिखाई देते हैं, उन्हें समझने के लिए हमें भारत को उसकी प्राचीन परिभाषाओं से देखना होगा. आधुनिक इतिहास और विज्ञान को थोड़ी देर के लिए अलग रखकर, हम सनातन संस्कृत ग्रंथों की ओर देखते हैं, जो इस भूमि के सबसे पुराने वैचारिक संविधान माने जा सकते हैं. आगे चलकर बौद्ध और जैन स्रोत भी इसमें जुड़ते हैं.
सात नदियों की भूमि है भारत
वेदों में भारत को 'सप्त सैंधव' यानी सात नदियों की भूमि कहा गया है, लेकिन भारत की सबसे व्यापक कल्पना हमें ‘संकल्प’ में मिलती है. संकल्प किसी भी धार्मिक कर्मकांड से पहले बोला जाने वाला प्रस्तावना-वाक्य यानी श्लोक है. इसमें भूगोल, ब्रह्मांड और मिथक एक साथ जुड़े होते हैं.
संकल्प की पहली कड़ी है 'जम्बूद्वीप'. यह पृथ्वी के एक विशाल भूभाग का नाम है, जिसे कई लोग पूरे उत्तरी गोलार्ध के रूप में देखते हैं. लेकिन स्थानीय अर्थ में जम्बूद्वीप भारत ही माना गया- यानी जामुन फल की भूमि. सदियों तक यही इस उपमहाद्वीप का नाम रहा, खासकर दक्षिण-पूर्व एशिया में. बाद में यूरोप ने इस पर जबरन ‘इंडिया’ नाम चिपका दिया. चाहे इसे ब्रह्मांड का हिस्सा मानें या देश, हम सब जम्बूद्वीप के निवासी हैं.
संकल्प मंत्र और अखंड भारत की अवधारणा
इसके बाद आता है 'भारतवर्ष'. यह जम्बूद्वीप की विशाल कल्पना को ठोस जमीन पर उतारता है. यह नाम महान राजा भरत से जुड़ा है, जिन्होंने पूरे क्षेत्र को एक किया. हालांकि दक्षिण को लेकर मतभेद रहे हैं. भारतवर्ष की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे 'कर्मभूमि' कहा गया. यानी मोक्ष पाने के लिए कर्म करने की एकमात्र वैध भूमि. यह देवताओं द्वारा चुनी गई भूमि मानी गई.
आगे चलकर 'भरत खंड' जैसे शब्द मिलते हैं, जो एक बड़े, शक्तिशाली भूभाग की याद दिलाते हैं, कुछ हद तक आज की ‘अखंड भारत’ की अवधारणा की तरह...
संकल्प में और भी बारीकी है, जैसे 'मेरोर् दक्षिणे पार्श्वे', यानी पौराणिक मेरु पर्वत के दक्षिण का क्षेत्र. इसमें गोदावरी नदी और दंडकारण्य के जंगलों का का जिक्र आता है. इस तरह संकल्प एक तरह का प्राचीन जीपीएस बन जाता है, जो हिमालय से लेकर दक्षिणी समुद्र तक पूरे भूभाग को एक इकाई में जोड़ देता है. तो सवाल उठता है, इतनी गहरी और आदर्श कल्पना आज इतनी बुरी तरह कैसे टूट गई?
विभाजन का निर्णायक क्षण एक शब्द से आता है, 'आर्यावर्त'. यह शब्द संकल्प में नहीं है. मनुस्मृति के अनुसार आर्यावर्त वह भूमि है, जो उत्तर में हिमालय और दक्षिण में विंध्य पर्वत तक फैली है. यानी दक्षिण भारत इससे बाहर हो जाता है. यहीं से शामिल और बाहर किए जाने की राजनीति शुरू होती है. उत्तर भारत के कई विद्वानों, नेताओं और विचारकों ने पूरे भारत को ही आर्यावर्त मान लिया, जबकि स्वयं मनु ने उसकी सीमा तय कर दी थी. इस सोच में पूरा भारत ‘आर्य’ पहचान का जन्मस्थान बना दिया गया. इससे सांस्कृतिक श्रेष्ठता का भाव पैदा हुआ और विंध्य के दक्षिण में रहने वाले लोगों को धीरे-धीरे हाशिए पर धकेल दिया गया.
यह समस्या सामाजिक और धार्मिक नियमों से और गंभीर हो गई. आर्यावर्त के बाहर रहने वालों को अपवित्र माना गया. उनके साथ मेल-जोल वर्जित कर दिया गया. विंध्य पर्वत को पार करना तक धार्मिक अपराध समझा जाता था और उसके लिए शुद्धिकरण की जरूरत पड़ती थी. आज भले ही ये नियम खुले तौर पर न दिखें, लेकिन उनकी छाया अब भी हमारे समाज और सोच में मौजूद है. यही उत्तर–दक्षिण टकराव की सबसे बड़ी जड़ है.
आर्य-द्रविड़ विभाजन की नींव कैसे पड़ी?
आर्यावर्त कोई पुरानी ऐतिहासिक जिज्ञासा नहीं है. यह वही बिंदु है, जहां से उत्तर और दक्षिण के बीच शारीरिक और मानसिक दूरी पक्की हो गई. यहीं भूगोल एक खतरनाक विचारधारा में बदल गया. इसी क्षण आर्य–द्रविड़ विभाजन की नींव पड़ी. और यहीं से हम पहुंचते हैं अपने अंतिम पड़ाव पर, द्रविड़ भूमि, जो आज भी अपनी पहचान को मजबूती से थामे हुए है, और जिसे समझे बिना भारत को समझना अधूरा है.