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जिन्ना की हत्या की साजिश, गांधी का संघर्ष, नेहरू का नियति से साक्षात्कार: ब्रिटिश राज के आखिरी 24 घंटे

14 अगस्त 1947 को कराची पहुंचने से एक दिन पहले एक CID अधिकारी ने वायसराय माउंटबेटन को एक भयावह चेतावनी भेजी थी: "सर, साजिश चल रही है." खुफिया रिपोर्ट के अनुसार अगली सुबह कराची की सड़कों पर उन्हें और जिन्ना को ले जाने वाली खुली कार पर कम से कम एक और संभवतः कई बम फेंके जाएंगे. माउंटबेटन के लिए 30 मिनट का ये सफर 24 घंटे का साबित हुआ

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14 अगस्त 1947 को ही कराची में जिन्ना को मारने का प्लान बना था. (File Photo: ITG)
14 अगस्त 1947 को ही कराची में जिन्ना को मारने का प्लान बना था. (File Photo: ITG)

14 अगस्त, 1947 का दिन था. सूरज कराची में उत्सव के रौनक बिखेर रहा था. लॉर्ड लुई माउंटबेटन का विमान जैसे ही कराची पहुंचा वहां उमड़ी भीड़ पर लंबी परछाइयां छा गईं. अपने रॉयल पोशाक में पसीने से तर-बतर भारत के आखिरी वायसराय का कार्यक्रम उस रोज किसी व्यस्त फिल्मी सितारे से भी ज़्यादा व्यस्त था. उन्हें मोहम्मद अली जिन्ना को पाकिस्तान के पहले गवर्नर-जनरल के रूप में शपथ दिलाना था, बधाई भाषण देना था और इससे पहले की घड़ी की सुइयां दिन बदलने का ऐलान करतीं उन्हें वापस दिल्ली लौट जाना था. लेकिन आखिरी पल में मिली एक सूचना के कारण उनकी धड़कनें घड़ी से भी तेज चल रही थीं. ये खबर थी- जिन्ना की हत्या की साजिश.

15 अगस्त ही क्यों?

ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली 30 जून 1948 तक भारत को सत्ता हस्तांतरण करना चाहते थे. लेकिन बढ़ती अशांति और समुदायों के बीच हिंसा के वास्तविक खतरे को भांपते हुए माउंटबेटन ने फैसला किया कि सत्ता हस्तांतरण बहुत पहले ही हो जाना चाहिए. एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब उनसे तारीख पूछी गई, तो माउंटबेटन ने तुरंत फैसला ले लिया, "मैंने जो तारीख चुनी थी, वह अचानक ही मेरे मन में आई." उन्होंने बाद में अपने शब्दों में स्वीकार किया, जैसा कि "फ़्रीडम एट मिडनाइट" में लिखा गया है. वह चाहते थे कि यह कार्रवाई निर्णायक और उनके नियंत्रण में लगे जिससे यह दिखे कि वे "पूरी घटना के स्वामी" वे स्वयं हैं. कई तारीखें उनके दिमाग में घूम रही थीं, 'जैसे नंबरों से दर्ज एक चक्की घूमती है' इसके बाद उन्होंने 15 अगस्त की तारीख तय की.

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15 अगस्त का चुनाव बेहद ही निजी था. यह द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के आत्मसमर्पण की दूसरी वर्षगांठ थी और दक्षिण-पूर्व एशिया में मित्र राष्ट्रों के सर्वोच्च कमांडर के रूप में माउंटबेटन की अपनी विजय से जुड़ा एक महत्वपूर्ण क्षण था. द्वितीय विश्व युद्ध में मित्र देशों की विजय की घोषणा 15 अगस्त 1945 को की गई थी. माउंटबेटन ने इस पल "एशिया में एक नए जन्म" के प्रतीक के रूप में देखा, जो एक सैन्य विजय को राजनीतिक विजय में बदल रहा था. 

एक अशुभ दिन का अंधविश्वास!

15 अगस्त, 1947 को भारतीय ज्योतिषियों द्वारा अत्यंत अशुभ माना गया था. ऐतिहासिक विवरणों में इस चिंता को व्यापक रूप से स्वीकार किया गया था. ज्योतिषियों ने घोषणा की कि 15 अगस्त शुक्रवार को था, जो उनकी गणना के अनुसार, महत्वपूर्ण नई शुरुआत के लिए विशेष रूप से अशुभ दिन था. यह तिथि कृष्ण पक्ष चतुर्दशी के साथ मेल खाती थी और उसके तुरंत बाद अमावस्या थी, जिसे पारंपरिक रूप से राष्ट्र के जन्म जैसे शुभ कार्यों के लिए अत्यधिक अशुभ माना जाता है. 

ज्योतिषियों ने चेतावनी दी थी कि 15 अगस्त को स्वतंत्र भारत की यात्रा शुरू करना विपत्तियों को आमंत्रित कर सकता है. एक प्रमुख ज्योतिषी, जैसा कि लैपिएर और कॉलिन्स ने अपनी पुस्तक "फ्रीडम एट मिडनाइट" में लिखा है, ने माउंटबेटन को लिखा था- भगवान के लिए भारत को 15 अगस्त को स्वतंत्रता मत दीजिए. अगर बाढ़, अकाल और नरसंहार होते हैं तो इसका कारण यह होगा कि स्वतंत्र भारत का जन्म नक्षत्रों-राशियों द्वारा शापित दिन को हुआ था.

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इन तीव्र भावनाओं का निदान करने के लिए भारतीय नेताओं ने एक समझौता किया. सत्ता का आधिकारिक हस्तांतरण 14 और 15 अगस्त की मध्यरात्रि को हुआ. यह समय प्रतीकात्मक और तकनीकी रूप से महत्वपूर्ण था. जहां पश्चिमी कैलेंडर इसे 15 अगस्त की शुरुआत मानता था, वहीं हिंदू कैलेंडर में नया दिन सूर्योदय के समय ही शुरू होता था और इसकी अशुभता भी सुबह से ही शुरू होती थी. परिणामस्वरूप मध्यरात्रि में समारोह आयोजित करने को 15 अगस्त के सूर्योदय से जुड़े अशुभ ज्योतिषीय खतरों से बचने का एक तरीका माना गया. जिसमें माउंटबेटन द्वारा चुनी गई तिथि और ज्योतिषियों की चेतावनी दोनों का ध्यान रखा गया.

सुबह 9:00 बजे कराची

कराची पहुंचने से एक दिन पहले एक सीआईडी अधिकारी ने वायसराय को एक भयावह चेतावनी भेजी थी: "सर, साजिश चल रही है." खुफिया रिपोर्ट के अनुसार अगली सुबह कराची की सड़कों पर उन्हें और जिन्ना को ले जाने वाली खुली कार पर कम से कम एक और संभवतः कई बम फेंके जाएंगे. (फ़्रीडम एट मिडनाइट)

कराची के संविधान सभा भवन में हवा में उत्सुकता का इलेक्ट्रिक प्रवाह था. माउंटबेटन ने जिन्ना को शपथ दिलाई, जो दुबले-पतले, लगातार सिगरेट पीने वाले बैरिस्टर थे और जिन्होंने ब्रिटिश राज के ढहते साम्राज्य से एक मुस्लिम मातृभूमि बनाई थी. टीबी से पीड़ित लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति वाले जिन्ना ने एकता के दर्शन की चासनी में अपने भाषण को भिगोते हुए कहा, "आप स्वतंत्र हैं; आप अपने मंदिरों में जाने के लिए स्वतंत्र हैं, आप अपनी मस्जिदों में या इस पाकिस्तान राज्य में किसी भी अन्य पूजा स्थल में जाने के लिए स्वतंत्र हैं." लेकिन जब कराची का आसमान आतिशबाजी से जगमगा रहा था और 31 तोपों की सलामी गूंज रही थी तब भी खुशी का माहौल उमड़ते तूफान को छुपा रहा था.

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पंजाब के रक्तरंजित मैदानों में कहानी बर्बरतापूर्ण हो गई. जैसे-जैसे शरणार्थी विपरीत दिशाओं में भाग रहे थे—हिंदू और सिख पूर्व में भारत की ओर, मुसलमान पश्चिम में पाकिस्तान की ओर—सड़कें कत्लेआम की मैदान बन गईं. स्टेशन पहुंची ट्रेनों में बदले की आग की वीभत्स तस्वीरें दिख रही थीं- लाशों से भरी हुईं, गले रेते हुए, शरीर क्षत-विक्षत. लाहौर की नहरों में खून की धारा थी और शरीर के कटे हुए अंग बह रहे थे. कट्टरपंथी और डकैत मासूम और कमजोर लोगों को निवाला बना रहे थे. आप पूछते हैं कि विभाजन का नुकसान क्या था? लगभग बीस लाख लोग मारे गए, डेढ़ करोड़ लोग विस्थापित हुए. ये मानव इतिहास के सबसे बड़े जबरन पलायनों में से एक था. 

जिन्ना की हत्या की साजिश

कराची में भाषणों के बीच बैठे माउंटबेटन का दिल जोर-जोर से धड़क रहा था. वह जिन्ना के लिए अपनी जान जोखिम में डालने से डर रहे थे, जिन्होंने हत्या की साजिश की चेतावनियों के बावजूद "विजय परेड" रद्द करने से इनकार कर दिया था.

 "जब उनका काफिला कराची तक पहुंचा तो दिल की धड़कन को रोक सी देने वाली 31 तोपों की सलामी से फिजा गूंज उठी. वहां अनाम चेहरों का सागर था. एक भीड़, विशाल, खुशी से लबरेज और उत्साह से भरी भीड़. जिसमें कहीं, किसी सड़क के कोने पर, किसी मोड़ पर, किसी खिड़की या किसी छत पर वह शख्स छिपा था जो उन्हें मारना चाहता था. " माउंटबेटन को बाद में एहसास हुआ, वो बताते हैं वह 30 मिनट की सवारी यूं लगी जैसे 24 घंटे की थी. (फ्रीडम एट मिडनाइट)

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हत्या की साजिश का मकसद अस्पष्ट रहा. क्या ये मजहबी कट्टरपंथ था, राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी, या गुटबाजी की दुश्मनी. लेकिन इस खतरे ने पाकिस्तान के जन्म की नाजुकता को उजागर किया. जिन्ना की तबीयत जो पहले से ही टीबी से पहले से ही कमजोर थी, अब जश्न की इस भीड़ में छिपे अदृश्य दुश्मनों के बोझ से और भारी हो गई.  

कलकत्ता: महात्मा की हताश लड़ाई

शानो-शौकत से दूर, कलकत्ता की तपती बस्तियों में महात्मा गांधी अपनी हताशा से भरी लड़ाई लड़ रहे थे. उन्होंने उत्सव के निमंत्रण ठुकरा दिए थे, यह महसूस करते हुए कि उनकी जगह राजनेताओं के बीच नहीं, बल्कि उस टूटे शहर में है जहां हिंदू और मुस्लिम ने एक दूसरे को बेरहमी से कत्ल किया था.

उस उमस भरी सुबह में उनका कमजोर शरीर डगमगाया.उसके कदम प्रार्थना के इशारे पर चल रहे थे. दुख में डूबे शहर में आशा की किरणें. एक बार फिर उपवास करते हुए, उन्होंने एक मुस्लिम मित्र के साधारण घर में शरण ली, जो नफरत से जख्मी शहर में एकजुटता और विद्रोह का मूक प्रतीक था.

14 अगस्त को जब उनके घर के बाहर भीड़ चिल्ला रही थी, गांधी अपनी पोती के कंधे पर एक हाथ और बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और अपने पुराने आलोचक हुसैन शहीद सुहरावर्दी पर दूसरा हाथ रखकर खिड़की पर खड़े थे.  "हमें तब तक काम करना होगा, जब तक कलकत्ता का हर हिंदू और मुस्लिम अपने घर सुरक्षित लौट न सके," गांधी ने भीड़ से गुहार लगाई. हमारा प्रयास हमारी आखिरी सांस तक जारी रहेगा." 

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चमत्कारिक रूप से हिंसा थम गई. एक पल के लिए उनकी नैतिक शक्ति ने तूफान को शांत किया. यह साबित करते हुए कि एक व्यक्ति का भूख हड़ताल नफरत की क्षुधा को वहां भी खत्म कर सकती है जहां सेनाएं भी विफल हो गई थीं.   

कराची, दोपहर बाद 3.45 बजे

जिन्ना और माउंटबेटन को ले जा रही रॉल्स रॉयस विशाल भीड़ के बीच धीरे-धीरे सरक रही थी. एक इमारत की लटकती बालकनी पर, एक सीआईडी अधिकारी नजर रखे हुए था, उसका हाथ कोल्ट रिवॉल्वर पर कस गया. "हिंदू मोहल्ला, माउंटबेटन ने खुद से कहा- यही वो जगह है जहां कुछ होगा. पांच तनावपूर्ण मिनट तक ये काफिला कराची की मुख्य व्यावसायिक सड़क एल्फिंस्टन स्ट्रीट पर ये रेंगता रहा. लगभग सभी दुकानें और बाजार हिंदुओं के थे. अपने मुस्लिम पड़ोसियों के उत्सव से कटु और भयभीत. कुछ नहीं हुआ. माउंटबेटन की जिंदगी की सबसे भयावह सवारी खत्म हुई." 

कॉलिन्स और लैपिएर के अनुसार साजिश इसलिए विफल हुई क्योंकि ग्रेनेड फेंकने वाला व्यक्ति आखिरी क्षण में डर गया था.

नई दिल्ली: रात 9 बजे

मानसून के बादल दिल्ली के ऊपर धैर्य से लटके हुए थे, मानो किसी  तमाशे की प्रतीक्षा में हों. 17, यॉर्क रोड पर जवाहरलाल नेहरू अपने उस भाषण को अंतिम रूप दे रहे थे जो भारत की किंवदंती बनने वाला था.  दो साधुओं के नेतृत्व में एक छोटा धार्मिक जुलूस आया, मेहमान तंजौर की नदियों का पवित्र जल, मद्रास के नटराज मंदिर में चढ़ाया गया प्रसाद और पांच फुट की गदा लाए थे.  नेहरू के बंगले में प्रवेश कर उन्होंने उन पर पवित्र जल छिड़का, माथे पर पवित्र भस्म लगाई उनकी भुजाओं पर गदा रखी और उन्हें ईश्वरीय वस्त्र से सजाया.

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लेकिन नेहरू का मूड जल्दी ही निराशा में बदल गया. उन्हें अभी-अभी सूचना मिली थी कि लाहौर जल रहा है और शहर के हिंदू और सिख इलाकों में एक दर्जन जगहों पर पानी की सप्लाई काट दी गई है.  "हैरान... उनकी आवाज मुश्किल से फुसफुसाहट भरी थी, 'मैं आज रात कैसे बोलूंगा? मैं कैसे दिखाऊं कि मेरे दिल में भारत की आजादी की खुशी है, जब मुझे पता है कि लाहौर, हमारा खूबसूरत लाहौर जल रहा है?" (फ्रीडम एट  मिडनाइट)  

रात 11 बजे: नियति से साक्षात्कार

नेहरू की कार अवरुद्ध सड़कों से गुजरी, जहां रात के तनावपूर्ण माहौल में छिटपुट गनफायर की आवाजें गूंज रही थीं. उनके ब्रिटिश अंगरक्षक छायाओं तक पर नजर रखे हुए थे, और उनके भीतर भावनाओं का तूफान उमड़ रहा था. उनकी बागी जवानी, जेल की जिंदगी और ब्रिटिश राज के खिलाफ अथक संघर्ष की यादें कौंध गईं. उनका सीना गर्व से फूल गया, आंखें भावनाओं से नम हो गईं.  

जैसे ही वे संविधान सभा के हॉल में पहुंचे नेहरू ने जोश के क्षण को महसूस कर सकते थे. झंडे लहरा रहे थे, शंख प्राचीन तुरहियों की तरह बज रहे थे. कराची से लौटे माउंटबेटन ब्रिटिश राज के अंत की मुनादी की घोषणा करने वाले अंतिम समारोह की प्रतीक्षा कर रहे थे. रात 11 बजे नेहरू खड़े हुए, उनकी आवाज़ स्थिर लेकिन नियति के बोझ से भरी: "कई साल पहले हमने नियति से एक वादा किया था, और अब वह समय आ गया है जब हमें अपना वचन निभाना है, और अब समय आ गया है कि हम अपनी प्रतिज्ञा को, पूरी तरह से या पूर्ण रूप से नहीं, बल्कि बहुत हद तक पूरा करें. आधी रात के समय जब दुनिया सो रही होगी भारत जीवन और स्वतंत्रता के लिए जागेगा."

जैसे ही घड़ी ने आधी रात का समय दिखाया, हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट गूंजने लगी, यूनियन जैक नीचे उतरा और तिरंगा ध्वजस्तंभ पर चढ़ा. लाल किले पर आतिशबाजी शुरू हो गई और इंडिया गेट के पास की भीड़ में उन्मादपूर्ण जोश छा गया. पूरे भारत में, मंदिर प्रार्थनाओं और घंटियों की आवाज से जीवंत हो उठे. स्वतंत्रता आ चुकी थी. कच्ची और उमंग भरी. 

जैसा कि नेहरू ने कहा: "एक ऐसा क्षण आता है, जो इतिहास में कभी-कभार ही आता है, जब हम पुराने से नए की ओर प्रस्थान करते हैं, जब एक युग का अंत होता है, और जब लंबे समय से दबी हुई किसी राष्ट्र की आत्मा अपनी अभिव्यक्ति पाती है." 

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