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हर जिले में कैंसर डे-केयर सेंटर का वादा, फिर क्यों लाखों मरीज आज भी बड़े शहरों की राह देख रहे हैं?

2025 के यूनियन बजट में सरकार ने एक बड़ा ऐलान किया था कि हर जिले के अस्पताल में कैंसर डे-केयर सेंटर बनाए जाएंगे. इनमें 10 बेड वाले छोटे-छोटे यूनिट होंगे, जहां मरीजों को कंसल्टेशन, काउंसलिंग, सपोर्टिव केयर और कीमोथेरेपी जैसी बेसिक सेवाएं मिल सकेंगी. मकसद ये था कि मरीजों को बार-बार दूर के बड़े अस्पताल जाने की जरूरत न पड़े, ट्रैवल का खर्चा और समय बचे, और इलाज बीच में छूट न जाए.

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कैंसर मरीजों के लिए खुशखबरी या सिर्फ कागजी ऐलान? (Representational Photo: National Cancer Institute)
कैंसर मरीजों के लिए खुशखबरी या सिर्फ कागजी ऐलान? (Representational Photo: National Cancer Institute)

भारत में कैंसर के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है. इसके साथ ही इलाज को बड़े शहरों से बाहर, गांव-कस्बों तक पहुंचाने की जरूरत भी बहुत तेज हो गई है. साल 2025 के यूनियन बजट में सरकार ने एक बड़ा ऐलान किया था कि हर जिले के अस्पताल में कैंसर डे-केयर सेंटर बनाए जाएंगे. इनमें 10 बेड वाले छोटे-छोटे यूनिट होंगे, जहां मरीजों को कंसल्टेशन, काउंसलिंग, सपोर्टिव केयर और कीमोथेरेपी जैसी बेसिक सेवाएं मिल सकेंगी. मकसद ये था कि मरीजों को बार-बार दूर के बड़े अस्पताल जाने की जरूरत न पड़े, ट्रैवल का खर्चा और समय बचे, और इलाज बीच में छूट न जाए.

बजट में कहा गया था कि 2025-26 में 200 ऐसे सेंटर शुरू होंगे. लेकिन साल खत्म होने तक स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया है कि देशभर में अब 439 कैंसर डे-केयर सेंटर काम कर रहे हैं. बजट के ऐलान के बाद 297 नए सेंटर को मंजूरी मिली, और इनमें से 75 पहले ही शुरू हो चुके हैं.

ये सेंटर अब एक दिन में कीमोथेरेपी देते हैं, इलाज से पहले की जांच, साइड इफेक्ट्स की निगरानी, दर्द का मैनेजमेंट और फॉलो-अप केयर करते हैं. सरकार का कहना है कि इससे मरीजों का ट्रैवल टाइम कम होता है, काम से छुट्टी नहीं लेनी पड़ती, और जेब से खर्चा भी बहुत कम हो जाता है.

मंत्रालय ने बताया कि नए सेंटर के लिए 2.41 करोड़ रुपये और पुराने सेंटर के लिए 1.49 करोड़ रुपये का फंड दिया जा रहा है. ये सेंटर हब-एंड-स्पोक मॉडल पर चलते हैं - यानी बड़े राज्य कैंसर इंस्टीट्यूट या मेडिकल कॉलेज इनके मेंटर होते हैं. वहां से प्रोटोकॉल फॉलो करने, दवाइयां उपलब्ध रखने, टेली-मेंटरिंग और जरूरत पड़ने पर रेफर करने का काम होता है. सभी सेवाएं - जांच, कीमो दवाइयां, फॉलो-अप - सरकारी स्कीम्स के तहत फ्री या बहुत कम खर्च में मिलती हैं, ताकि मरीज पर कोई एक्स्ट्रा बोझ न पड़े.

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क्यों जरूरी है ये लोकल इलाज?

एक्सपर्ट्स कहते हैं कि भारत में कैंसर का इलाज अभी भी बहुत महंगा और पहुंच से दूर है. बड़े शहरों में अच्छे सेंटर हैं, लेकिन गांव-जिले में बहुत कम. 2023 की एक बड़ी स्टडी (टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल वगैरह की) में पता चला कि एक आउटपेशेंट विजिट पर औसतन 8,053 रुपये और हॉस्पिटलाइजेशन पर 39,085 रुपये का खर्च मरीज की जेब से जाता है. पूरे साल का औसत खर्च एक मरीज पर 3.31 लाख रुपये तक हो जाता है.

टाटा मेमोरियल के डायरेक्टर डॉ. सी.एस. प्रमेश कहते हैं कि जिले स्तर के ये डे-केयर सेंटर इलाज पूरा होने की दर को बहुत बढ़ा सकते हैं. बहुत से मरीज बार-बार बड़े शहर जाने में थक जाते हैं या इलाज बीच में छोड़ देते हैं.

राज्य क्या कर रहे हैं?

कुछ राज्य अच्छा काम कर रहे हैं - मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, ओडिशा, केरल और तेलंगाना में सेंटर अच्छे चल रहे हैं. तेलंगाना ने अपने 27 नए अप्रूव्ड सेंटर पहले ही शुरू कर दिए हैं. बाकी राज्य अलग-अलग स्टेज में हैं, क्योंकि ये पूरे देश में धीरे-धीरे शुरू होने वाला प्रोग्राम है.
डॉ. प्रमेश कहते हैं कि अच्छी निगरानी और बड़े कैंसर हॉस्पिटल से सही लिंकेज बहुत जरूरी है, ताकि इलाज सही तरीके से हो. नेशनल कैंसर ग्रिड के प्रोटोकॉल इन सेंटर्स के लिए बेस बन सकते हैं.

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लेकिन डॉक्टरों की चेतावनी भी है - सिर्फ इमारत और बेड बनाने से काम नहीं चलेगा. कोलकाता के अपोलो कैंसर सेंटर के डॉ. संदीप गांगुली कहते हैं कि कीमोथेरेपी देने के लिए ट्रेंड मेडिकल ऑन्कोलॉजिस्ट और नर्सेज बहुत जरूरी हैं. एलर्जी या साइड इफेक्ट्स आ जाएं तो जान भी जा सकती है. नर्सेज को कीमो दवाइयां तैयार करने, IV लगाने और मरीज की देखभाल का अच्छा ट्रेनिंग होना चाहिए.

ICMR के मुताबिक, भारत में हर 9 में से 1 व्यक्ति को अपनी जिंदगी में कभी न कभी कैंसर हो सकता है. सरकार कहती है कि ये फंडिंग मौजूदा हेल्थ प्रोग्राम्स से आ रही है और कुछ एक्स्ट्रा बजट भी मिल रहा है. अब सवाल ये है कि क्या ये सेंटर पूरे देश में अच्छी क्वालिटी से चल पाएंगे? अगर हां, तो भारत के बढ़ते कैंसर के बोझ को काफी हद तक कम किया जा सकता है. वरना, सिर्फ कागजों पर अच्छे प्लान रह जाएंगे.

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