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तस्वीरों में देखें सूर्योपासना का महापर्व छठ | फोटो

तस्वीरों में देखें सूर्योपासना का महापर्व छठ | फोटो
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छठ सूर्योपासना का वह अनुपम लोकपर्व है जो मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है. बिहार में तो इस पर्व को राजकीय पर्व जैसा दर्जा मिला हुआ है.
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अब कोलकाता, दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों और इनके उपनगरों में भी प्रवासी बिहारी और उत्तर प्रदेश के लोग यह पर्व बड़े पैमाने पर मनाने लगे हैं.
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छठ पर्व साल में दो बार मनाया जाता है. पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में. चैत्र शुक्लपक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ और कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले पर्व को कार्तिक छठ कहा जाता है.
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पारिवारिक सुख-स्मृद्धि तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है. इस पर्व को स्त्री और पुरुष समान रूप से मनाते हैं.
तस्वीरः छठ मनाते कांग्रेसी नेता सुबोध कांत सहाय.
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दीपावली के छठे दिन से शुरू होने वाला छठ का पर्व चार दिनों तक चलता है. इन चारों दिन श्रद्धालु भगवान सूर्य की आराधना करके सालभर सुखी, स्वस्थ और निरोगी होने की कामना करते हैं.
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अब यह पर्व पूर्वांचल से निकल कर पूरे भारत वर्ष में होने लगा है. यहां तक कि कई विदेशी भी इस पर्व को करने लगे हैं. हरिद्वार में रूस की महिलाओं ने मनाया छठ पर्व.
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चार दिवसीय छठ पूजा की शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है. इस दौरान व्रतधारी लगातार छत्तीस घंटे का व्रत रखते हैं. इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते.
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बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव के परिवार द्वारा छठ मनाया जाना हमेशा चर्चा में रहता है.

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लालू यादव की पत्नी और बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी यह व्रत रखती हैं.
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छठ का पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है. सबसे पहले घर की सफाई कर उसे स्वच्छ बना लिया जाता है. छठ व्रती नदियों के घाटों और तालाबों के किनारे परिवार समेत पहुंच जाते हैं तथा स्नान एवं पूजा अर्चना के साथ नहाय-खाय की रस्म को पूरा किया जाता है.
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नदियों के घाटों और तालाबों के किनारे परिवार स्नान एवं पूजा अर्चना करता है और नहाय-खाय की रस्म को पूरा किया जाता है. इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर सात्विक भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं. घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं. भोजन के रूप में कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है.
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दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने आरजेडी प्रमुख लालू यादव के घर पहुंच उन्हें छठ पर्व की शुभकामना दी.
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छठ के दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिनभर उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं. इसे ‘खरना’ कहा जाता है. खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है. प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है. इसमें नमक और चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है.
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दिल्ली में भी बड़े पैमाने पर पूर्वांचलियों ने छठ मनाया. देखिए दिल्ली स्थित इंडिया गेट के समीप लोगों ने कैसे मनाया छठ.
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दिल्ली के इंडिया गेट के पास छठ मनाते श्रद्धालु.
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आगरा में ताजमहल के समीप छठ मनाते श्रद्धालु.
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छठ के तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है. प्रसाद के रूप में ठेकुआ बनाते हैं. इसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं. इसके अलावा कुछ लोग चावल के लड्डू भी बनाते हैं. इसके अलावा पांच तरह के फल भी प्रसाद के रूप में चढ़ाये जाते हैं.
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संध्या अर्घ्य के दौरान शाम को बांस की टोकरी और अर्घ्य का सूप सजाया जाता है. इसके बाद जिस व्यक्ति ने व्रत ले रखा हो उसके साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग सूर्यास्त के सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं. सभी छठव्रती नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं. सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है.
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छठ के दौरान नदी, पोखर व तालाब के किनारे घाट सजाया जाता है. यहां इक्टठा होकर लोग समूह में यह पर्व मनाते हैं.

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छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता और लोकपक्ष है. भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व के लिए न विशाल पंडालों और भव्य मंदिरों की जरूरत होती है, न ऐश्वर्य युक्त मूर्तियों की. यह पर्व बांस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बर्तनों, गन्ने के रस, गुड़, चावल और गेहूं से निर्मित प्रसाद, और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है.
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छठ व्रत के लिए न विशेष धन की आवश्यकता है, न पुरोहित की और ना ही गुरु की. जरूरत पड़ती है तो पास-पड़ोस के साथ की, जो सेवा के लिए आसानी से उपलब्ध रहता है. इस उत्सव में खरना के उत्सव से लेकर अर्ध्यदान तक समाज की भूमिका निरंतर बनी रहती है. यह सामान्य और गरीब जनता के अपने दैनिक जीवन की मुश्किलों को भुलाकर सेवा भाव और भक्ति भाव से किए गए सामूहिक कर्म का विराट और भव्य प्रदर्शन है.
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पारिवारिक सुख-स्मृद्धि तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए छठ पर्व मनाया जाता है. इस पर्व को स्त्री और पुरुष समान रूप से मनाते हैं.
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छठ पर्व की परंपरा के पीछे वैज्ञानिक रहस्य भी छिपा हुआ है. षष्ठी तिथि एक विशेष खगौलीय अवसर है. उस समय सूर्य की पराबैगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं. उसके संभावित कुप्रभावों से मानव की रक्षा करने का सामर्थ्य इस परंपरा में है.
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छठ पर्व को मनाने से सूर्य के पराबैगनी किरणों के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा संभव है. छठ जैसी खगौलीय स्थिति सूर्य की पराबैगनी किरणें पृथ्वी पर अन्य दिनों के मुकाबले सामान्य से अधिक मात्रा में पहुंच जाती हैं.
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ऐसा समझा जाता है कि इस पूजा के दौरान साधक सूर्य की और मुख करके अर्घ्य देता है तो जल भूमि पर गिराता है, तब सूर्य की किरणें उस जल धारा को पार करते समय प्रिज्म प्रभाव से अनेक प्रकार की किरणों में विखंडित हो जाती हैं. ऐसा माना जाता है कि साधक के शरीर पर ये किरणें परा बैंगनी किरणों जैसा प्रभाव डालती हैं, जिसका उपचारी प्रभाव होता है.
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चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है. भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है. पर्व के लिए बनाए गए कमरे में व्रती द्वारा फर्श पर एक कंबल या फिर चादर के सहारे ही रात बिताई जाती है.
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इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नए कपड़े पहनते हैं. पर व्रती ऐसे कपड़े पहनते हैं, जिनमें किसी प्रकार की सिलाई नहीं की होती है.
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महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं.
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छठ शुरू करने के बाद छठ पर्व को सालोंसाल तब तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला को इसके लिए तैयार न कर लिया जाए. घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है. ऐसी मान्यता है कि छठ पर्व पर व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है. पुत्र की चाहत रखने वाली और पुत्र की कुशलता के लिए सामान्य तौर पर महिलाएं यह व्रत रखती हैं. किंतु पुरुष भी यह व्रत पूरी निष्ठा से रखते हैं.
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बिहार में डूबते और उगते सूर्य की पूजा करने की सदियों पुरानी परंपरा आज भी कायम है. दीपावली के ठीक अगले दिन से ही पूरे बिहार में इस महापर्व की आहट सुनाई देने लगती है. अब देश की राजधानी दिल्ली में भी जोरशोर से मनाया जाने लगा है छठ.
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इस महापर्व के दौरान लगभग हर घर भक्ति के माहौल में डूबा रहता है. परंपरागत ढंग से यह पर्व मनाने की बानगी यह है कि मुहल्ले के तमाम लोग जिनमें युवा, बुजुर्ग और महिलाएं भी शामिल होती है. लोग सड़कों की धुलाई और सफाई अपने हाथों से करते है.
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परना के दिन जब छठ व्रती सूप, दौरा, नारियल, मिट्टी के चूल्हे और आम की लकड़ियों तथा अन्य पूजा सामग्री की गठरी बांधकर नंगे पांव छठ के गीत गाते हुए अपने इलाके की नदी की तरफ बढ़ते हैं तो रास्ते में तमाम लोग पूरे उल्लास से उनकी सेवा के लिए तत्पर रहते हैं.
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छठ व्रतियों की सेवा और उनके लिए साफ सफाई में चाहे अमीर हो या गरीब, बड़ा हो या छोटा पूरी श्रद्धा से लगे रहते हैं.
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अब कुछ लोग अपने रिहायशी इलाकों के पास ही अस्थायी तालाब बना लेते हैं और उनमें कमर तक पानी भरकर भगवान सूर्य को अ‌र्घ्य देते हैं.
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विभिन्न मोहल्लों में बाकायदा छठ सेवा समिति, छठ पूजा समिति और अन्य संगठन अपने क्षेत्रों में तालाब निर्माण का काम करते हैं.
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छठ का चौथा दिनः चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है.
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चौथे दिन व्रती वहीं फिर से एकत्रित होते हैं जहां उन्होंने पिछली शाम को अर्घ्य दिया था.
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घाट पर इक्टठा होकर लोग पिछले शाम की गई पूरी प्रक्रिया को फिर दोहराते हैं.
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छठव्रती सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं. सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है. अंत में जिस व्यक्ति ने व्रत ले रखा हो वह कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं.
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व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं. इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते. कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदीयमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. अंत में व्रती कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं.
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इस पर्व में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है. इस दौरान लहसुन, प्याज खाना वर्जित है. जिन घरों में यह पूजा होती है, वहां भक्तिगीत गाए जाते हैं. आजकल कुछ नई रीतियां भी आरंभ हो गई है, जैसे पंडाल और सूर्यदेवता की मूर्ति की स्थापना करना. इसके अलावा रोशनी की व्यवस्था पर काफी खर्च किया जाता है.
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छठ पूजा से संबंधित कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं.
रामायणः लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की. सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था.

महाभारतः छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी. सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की. कर्ण भगवान सूर्य का परम भक्त था. वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता. सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बना था. आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है.

छठ पर्व के संदर्भ में एक कथा और भी है. कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा. तब उसकी मनोकामनाएं पूरी हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिल गया. लोक परंपरा के अनुसार सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है. लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी.

पुराण के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियवद की पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी. इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ परंतु वह मृत पैदा हुआ. प्रियवद पुत्र को लेकर शमशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे. उसी वक्त भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि ‘सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं. राजन तुम मेरा पूजन करो तथा और लोगों को भी प्रेरित करो’. राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी.

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