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Retro Review: पाकीजा: मीना कुमारी और भारत के पुराने काव्य की एक भावुक याद

हमारी रेट्रो रिव्यू सीरीज के तहत आज हम फिल्म 'पाकीजा' को फिर से देख रहे हैं जिसमें दो महान कलाकार मीना कुमारी और गुलाम मोहम्मद के काम को आखिरी बार स्क्रीन पर देखा गया, जिसे एक भूले-बिसरे दौर के लिए शोकगीत की तरह रचा गया था.

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फिल्म 'पाकीजा' का रेट्रो रिव्यू
फिल्म 'पाकीजा' का रेट्रो रिव्यू

हमारी रेट्रो रिव्यू सीरीज के तहत आज हम फिल्म 'पाकीजा' को फिर से देख रहे हैं, जिसमें दो महान कलाकार मीना कुमारी और गुलाम मोहम्मद के काम को आखिरी बार स्क्रीन पर देखा गया था, जिसे एक भूले-बिसरे दौर के लिए शोकगीत की तरह रचा गया था.

रेट्रो रिव्यू: पाकीजा (1972) 

कलाकार: मीना कुमारी, राज कुमार, अशोक कुमार, मुराद

डायरेक्टर: कमल अमरोही
संगीत: गुलाम मोहम्मद, नौशाद
बॉक्स ऑफिस रिपोर्ट: सुपरहिट
कहां देखें: यूट्यूब

फिल्म देखने का कारण: इसकी खूबसूरत सिनेमाटोग्राफी, शानदार सेट, काव्यात्मक डायलॉग्स और मनमोहक धुनें, जो दिल में एक यादगार सपने की तरह बस जाते हैं.

कहानी की सीख: एक पति और पत्नी पर्दे पर जादुई रोमांस रच सकते हैं, चाहे उनका वैवाहिक जीवन दुखों की दास्तान ही क्यों ना हो.

रिव्यू

'पाकीजा' एक तरह की भारत यात्रा की तरह है और उस भारत के लिए एक शोकगीत है जो अब कभी लौट नहीं सकता. ये ठुमरी, शायरी, काव्यात्मक हाजिरजवाबी और नवाबों की भाषा की नजाकत और ऐशों-आराम से परिभाषित एक धीमे दौर का पिक्चर पोस्टकार्ड है. ये आपको टांगे की टिक-टिक, रेल के इंजनों की सीटी और शूं-शूं की आवाजों के लिए नॉस्टैल्जिक बना देता है. ये आपके दिल की धड़कन को घुंघरुओं की खनक और तबले की ताल पर थिरका देता है. 'पाकीजा' सिर्फ एक फिल्म नहीं, ये भूले-बिसरे इतिहास का एक अध्याय है, एक रूमानी संगीत है जो एक गीतमय अतीत को गाता है.

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'पाकीजा' एक एहसास है, जैसे सुबह की ओस में भीगे गुलाब की पंखुड़ी को होंठों से लगाना, दशकों से पुरानी शराब का स्वाद चखना या रेशमी बदन पर महीन मलमल की सरसराहट सुनना. सिर्फ उसकी यादें रह जाती हैं जैसे बीते अनुभव की मीठी-सी कसक. इसे परिभाषित करने के लिए डायरेक्टर कमाल अमरोही का जादू चाहिए, जिन्होंने इस दिल को छू लेने वाली कृति की शुरुआत अपनी पत्नी मीना कुमारी को श्रद्धांजलि देने के लिए की थी. लेकिन अंत में इसे महान ट्रैजेडी क्वीन के लिए एक भावुक संरचना में बदल दिया गया जो उनकी शाश्वत प्रतिभा का एक सैल्यूलाइड मंदिर है.

एक काव्यात्मक विरासत

कमल अमरोही जो इस फिल्म के डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और राइटर हैं, वो उत्तर प्रदेश के अमरोहा में जन्मे थे. एक ऐसा शहर जो अपनी रसीली आम के बगीचों के लिए फेमस है. उनके चचेरे भाई जौन एलिया, उर्दू के प्रमुख शायरों में से एक हैं जिनकी एक कल्ट फैन फॉलोइंग रही है. ऐसा लगता है कि काव्य इस परिवार की रगों में बहती थी. हालांकि कमाल एक फिल्ममेकर थे, फिर भी उन्होंने 'पाकीजा' के हर फ्रेम को एक पेंटिंग की तरह गढ़ा, जिसे एक नज्म की नजाकत (कोमलता) से सींचा गया.

फिल्म अपने शुरुआती पलों से ही अपने काव्य स्वभाव को स्थापित कर देती है जिसमें सुंदर संस्कृति और लयबद्ध पटकथा तथा भावनात्मक सीन्स नजर आते हैं. इसकी शुरुआत कमाल अमरोही की दमदार आवाज में एक धीमे से वॉइसओवर से होती है, जो बाद में एक मंत्रमुग्ध कर देने वाले सीन में पैदा हो जाता है. नवाबों के शहर की भीड़भाड़ वाली सड़क पर एक घोड़े से खींची जाने वाली बग्गी गुजरती है, जिसकी टापों की आवाज घुंघरुओं की छन-छन के साथ मिलकर एक मधुर जुगलबंदी रचती है.

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झरोखों से सजी हवेलियों की कतार से ठुमरी की एक स्वर-लहरियां और तबले की थाप उठती है, जो बीते युग की एक सिम्फनी को आकार देती है. हर झरोखे में, कम से कम दर्जनभर, अनारकली घाघरे पहने कथक करती हैं. कुछ ही पलों बाद, लता मंगेशकर की आवाज इस मधुर कोलाहल को चीरती हुई उभरती है. साहिबजान (मीना कुमारी) जो सुंदरता और वेदना की एक उदास छाया है, गुलाबी और सुनहरे रंगों में सजी अपने आने की घोषणा करती है.

'पाकीजा' के जीवंत रंग और गहराई से भरे स्ट्रोक्स हर सीन को राजा रवि वर्मा की एक पेंटिंग बना देते हैं. साहिबजान, जब सलीम (राज कुमार) के लिए तड़पती हैं, तो उनके इर्द-गिर्द लाल रंग धधकते हैं और पीले-हरे रंग फिरोजी पानी पर चमकते हैं. जब वो कुछ पलों के लिए प्यार में खोते हैं, झरने पहाड़ियों से बहते हैं और एक नाव की परछाई चांदी जैसे चांद के नीचे तैरती है. मगर जब उसका दिल टूटता है, तो एक सूखी रात में एक सूने पेड़ पर एक लाल पतंग अकेली झूलती है. हर सीन एक आलाप या ठुमरी के साथ बहता है, जिससे कल्पनाओं में उतर जाने वाली छवियां रची जाती हैं.

म्यूजिक की खामोशी
फिल्म के कुछ सीन्स की खामोशी में भी म्यूजिक होता है, कविता होती है. उसके ना होने पर भी फिल्म आपको उसकी कल्पना करने पर मजबूर कर देती है. एक सीन में साहिबजान जो एक तवायफ हैं, अपनी महफिल में बैठी होती हैं. संगीतकार अपने सितार, मांडोलिन और तबले बजाना शुरू करते हैं और साहिबजान की गायकी का इंतजार करते हैं. उन्हें सुनने वाले बेचैनी से करवटें बदलते हैं, लेकिन साहिबजान, जो अपने प्रेमी की यादों में खोई हुई हैं, दर्द से भरी नजरों से शून्य को ताकती रहती हैं. वहां अचानक एक खामोशी छा जाती है, लेकिन उनकी स्थिति को देख आप बैकग्राउंड में अमीर खुसरों की पंक्तियां महसूस कर सकते हैं—'छाप तिलक सब छीन ली मोसे नैना मिलाइके'.

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संयोग से ये सीन सांस्कृतिक नजाकत को श्रद्धांजलि देने के साथ खत्म होता है. साहिबजान के कुछ नहीं गाने पर भी उन्हें सुनने वाले उनसे नाराज नहीं होते बल्कि वो महफिल छोड़ते वक्त एक काव्यात्मक शिकायत के साथ विदा लेते हैं, 'मजबूर दिल भी क्या शाह है, उसने 100 बार दिल से उठाया, मैं फिर भी 100 बार चला आया.' इस फिल्म को सबसे ज्यादा राज कुमार की मीना कुमारी के पांव को लेकर कही गई फेमस लाइन्स के लिए याद किया जाता है. लेकिन ऊपर के सीन में बोला गया हर शब्द एक अनदेखा रत्न है.

मीना कुमारी को एक श्रद्धांजलि

अपने सीन्स और संवादों के जरिए ये फिल्म कमल अमरोही की कल्पना और भव्यता की एक अद्वितीय जीत है. जब ये फिल्म रिलीज हुई थी, तब इसकी भव्य साज-सज्जा, रंगों की बहार और छोटे-छोटे बारीकियों पर ध्यान देने को लेकर अमरोही की आलोचना हुई थी. लेकिन 50 सालों बाद, ये फिल्म कॉस्ट्यूम ड्रामा और म्यूजिकल सिनेमा का आदर्श बन चुकी है जिसे संजय लीला भंसाली जैसे फिल्ममेकर कमाल अमरोही की कला को हूबहू पर्दे पर उतारकर उन्हें श्रद्धांजलि देते रहते हैं. (हीरामंडी पाकीजा का लगभग एक सीक्वल ही है.)

1950 के दशक की शुरुआत में जब अमरोही ने इस फिल्म को सोचा, तभी उन्होंने मीना कुमारी से शादी रचाई थी. वो 'पाकीजा' को अपने प्यार की एक निशानी बनाना चाहते थे. मीना कुमारी तब 20 साल की शुरुआत में थीं. वो एक बेबाक, चंचल और अद्भुत सुंदरता से परिपूर्ण एक्ट्रेस थीं, जैसी वो 'बैजू बावरा' जैसी फिल्म में नजर आती थीं. लेकिन जब 'पाकीजा' की शूटिंग 1969-70 में शुरू हुई, तब तक उनका जीवन एक त्रासदी में बदल चुका था. उनकी कमल अमरोही के साथ दर्दनाक वैवाहिक जीवन, अधूरा प्यार और शराब की लत ने उन्हें अंदर से तोड़ दिया था.

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लेकिन फिर भी 40 साल की उम्र में एक जानलेवा बीमारी 'सिरोसिस' से जूझते हुए, उन्होंने ऐसी परफॉरमेंस दी जो नाजुक नाच, दबी हुई मुस्कानों, और पिए गए आंसुओं से सजी एक प्रस्तुति है. उनकी आंखें एक अनकहे दुख से भरी हुई थीं, जो साहिबजान की आत्मा का प्रतिबिंब बन जाती हैं और उनके अधूरे सपनों का भार उठाती हैं. एक सीन में जब उनसे नाम पूछा जाता है, तब राज कुमार उन्हें 'पाकीजा' कहते हैं जो एक 'शुद्ध' और 'पावन' तवायफ की उस भूमिका के लिए सबसे सही नाम है जो अपने उद्धार का इंतजार कर रही है.

कला की पवित्रता

जैसे साहिबजान ने जीवन भर एक दर्द भरा इंतजार किया, वैसे ही 'पाकीजा' ने भी दो दशकों तक एक यातनादायक, लगभग त्रासदीपूर्ण इंतजार सहा. इसके संगीतकार, कम आंके गए गुलाम मोहम्मद, फिल्म की शूटिंग शुरू होने से लगभग एक दशक पहले ही दुनिया छोड़ चुके थे. उन्होंने जाने से पहले अमर धुनें रचीं, जिनकी सफलता का स्वाद वो चख ना सके. वहीं मीना कुमारी जो फिल्म की आत्मा हैं, वो रिलीज के एक महीने के अंदर चल बसीं.

इतिहास बदलाव का अध्ययन है. 'पाकीजा' इतिहास का एक अध्याय बन जाती है क्योंकि ये हमें कई बातें बताती है. ये सिर्फ मीना कुमारी के जीवन की दास्तान नहीं है, बल्कि ये इस बात की भी याद दिलाती है कि पिछले कुछ दशकों में हमारी सांस्कृतिक समझ और संदर्भ कितने बदल गए हैं.

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'पाकीजा' एक मुस्लिम सोशल ड्रामा है. इसकी भाषा, इसकी अभिव्यक्ति सब कुछ उर्दू से प्रेरित है. कहानी सीधी है: एक तवायफ का समाज में स्वीकार्यता पाने का संघर्ष और एक मुस्लिम कुलपति का उसे नकार देना. एक ऐसी अवधारणा जो 1970 के दशक में थोड़ी अजीब सी लग सकती थी. लेकिन ये फिल्म भारत में 50 हफ्तों तक चली, जिनमें से 33 हफ्ते थिएटर्स में ये हाउसफुल रही. जब मीना कुमारी (जिनका असली नाम मेहजबीन बानो था) का निधन हुआ, तो देशभर की ऑडियंस थिएटर्स में उमड़ पड़ी और सभी एक सामूहिक शोक की लहर में डूब गए.

वो भारत सचमुच एक शुद्ध और पावन 'पाकीजा' था. एक ऐसा देश जिसे पता था कि कला को संकीर्ण पहचान की बदसूरत दृष्टियों से नहीं देखा जा सकता. 'पाकीजा' दरअसल मीना कुमारी, कमल अमरोही, गुलाम मोहम्मद और उन भारतीयों के लिए एक शोकगीत है, जिन्होंने इस फिल्म को अमर बना दिया है. इन्हीं के कारण ये फिल्म आज भी एक शाश्वत श्रद्धांजलि है, जो हर पीढ़ी को समय की सीमाओं से परे कला की शुद्धता को फिर से खोजने का इनविटेशन देती है.

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