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कहानी बिहार के पहले OBC मुख्यमंत्री की, सीएम की कुर्सी पर सिर्फ 5 दिन रहे, लेकिन रच दिया इतिहास

बिहार की राजनीति में पिछड़ा और दलित वर्ग की रहनुमाई के लिए यूं तो कर्पूरी ठाकुर का नाम सबसे पहले आता है, लेकिन सूबे में एक बड़े सियासी बदलाव का रास्ता तैयार करने और पहली बार पिछड़ा वर्ग (OBC) से मुख्यमंत्री बनने का श्रेय सतीश प्रसाद सिंह को जाता है. एसपी सिंह बिहार के पहले ओबीसी मुख्यमंत्री बने. इनसे पहले बिहार में मुख्यमंत्री सिर्फ अगड़ी जाति से आए थे.

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बिहार के पहले ओबीसी सीएम सतीश प्रसाद सिंह जो सिर्फ 5 दिनों के लिए कुर्सी पर रहे (File Photo -  loksabha.nic.in)
बिहार के पहले ओबीसी सीएम सतीश प्रसाद सिंह जो सिर्फ 5 दिनों के लिए कुर्सी पर रहे (File Photo - loksabha.nic.in)

28 जनवरी 1968 का दिन बिहार के इतिहास में सियासी बदलाव की इबारत लिखने का दिन माना जाता है.जब एक ओबीसी परिवार में जन्में सतीश प्रसाद सिंह के सिर सत्ता का ताज सजा. यह बिहार में पहली बार था, जब भूमिहार, राजपूत समुदाय के हाथ से सत्ता की कमान निकलकर कोइरी समाज से आने वाले एसपी सिंह के हाथ में आ गई. यहीं से बिहार की सियासत पूरी तरह बदल गई. 

एसपी सिंह सिर्फ 5 दिन के लिए ही मुख्यमंत्री बने थे. जोड़-तोड़ की राजनीति को देखते हुए, यूं तो सियासी गलियारे में यह कोई बड़ी घटना प्रतीत नहीं होती है, लेकिन बिहार के लिए यह एक बड़ा पॉलिटिकल लैंड मार्क मार्क माना जाता है. क्योंकि, इस घटना ने आने वाले समय में बिहार के एक बड़े सियासी बदलाव का रास्ता खोल दिया. 

एसपी सिंह के शुरू से रहे थे बागी तेवर 
सतीश प्रसाद सिंह का जन्म 1 जनवरी 1936 को बिहार के खगड़िया जिले के एक किसान परिवार में हुआ था. उनकी शिक्षा-दीक्षा मुंगेर जिले के डीजे कॉलेज से हुई थी. कहा जाता है कि उस जमाने में उन्होंने अपने परिवार के खिलाफ जाकर इंटरकास्ट प्रेम विवाह किया था.

शुरुआत से ही उनके तेवर बागी थे. वह समाजवादी विचारधारा में भरोसा रखने वाले एक शख्स थे. बताया जाता है सियासी जीवन से किनारा लेने के बाद उन्होंने जोगी और जवानी नाम से एक फिल्म भी बनाई और उसमें अभिनय भी किया. 

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एक्सीडेंटल सीएम नहीं थे सतीश प्रसाद सिंह
सतीश प्रसाद सिंह कोई एक्सीडेंटल सीएम नहीं थे, बल्कि बिहार की सियासत में अगड़ी जाति के प्रभुत्व को खत्म करने और पिछड़ा वर्ग की मजबूत दावेदारी पेश करने की एक सुनियोजित योजना का हिस्सा थे. सतीश प्रसाद सिंह को सिर्फ 5 दिन के लिए मुख्यमंत्री क्यों बनाया गया? इसके पीछे क्या बड़ी वजहें थीं और आगे इसके क्या दूरगामी सियासी परिणाम हुए, ये जानना अहम है. 

सतीश प्रसाद सिंह के मुख्यमंत्री बनने की घटना की पृष्ठभूमि उस वक्त तैयार होने लगी थी, जब एक साल पहले यानी मार्च 1967 में संयुक्त विधायक दल ने महामाया प्रसाद सिन्हा को मुख्यमंत्री चुना और कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री बनें. यह बिहार में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी. इस सरकार को सभी कांग्रेस विरोधी दलों का समर्थन प्राप्त था. इसमें सबसे बड़ा दल संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी थी. 

कर्पूरी ठाकुर इसी पार्टी के निर्विवाद नेता थे और सभी गैर-कांग्रेसी दलों के अंदर कुलबुलाहट थी कि कर्पूरी ठाकुर को ही मुख्यमंत्री के रूप में चुना जाए, लेकिन गठबंधन में कुछ दलों के नेताओं को यह स्वीकार नहीं था. ऐसे में स्वतंत्रता सेनानी और सबसे बुजुर्ग महामाया प्रसाद के नाम पर सहमति बनी और कर्पूरी ठाकुर और लोहिया ने भी सिर्फ गैर कांग्रेसी सरकार के गठन की खातिर इसे स्वीकार कर लिया.

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बीपी मंडल को सीएम बनाने के लिए बने मुख्यमंत्री
महामाया-कर्पूरी की संयुक्त विधायक दल की सरकार तो बन गई, लेकिन मंत्री बनाने को लेकर कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जिसने आगे चलकर इस सरकार को गिराने का काम किया. पहली घटना संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से लोकसभा सदस्य चुने गए बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल यानी बीपी मंडल का इस्तीफा देकर मंत्री बनना था. यही बीपी मंडल आगे सतीश प्रसाद सिंह के बाद मुख्यमंत्री बनें. दरअसल, बीपी मंडल को सीएम बनाने के लिए ही सतीश प्रसाद सिंह को 5 दिनों के लिए मुख्यमंत्री बनाया गया था.  

बीपी मंडल सांसदी छोड़कर संयुक्त विधायक दल की सरकार में मंत्री तो बन गए, लेकिन उनके इस कृत्य से डॉ. लोहिया काफी दुखी थे. बिहार के वरिष्ठ पत्रकार संतोष सिंह अपनी किताब 'द जननायक' में लिखते हैं कि डॉ. लोहिया ने गैर कांग्रेसी सरकार को स्थिर और मजबूत बनाने के लिए तीन सिद्धांत दिए थे. इसके तहत लोकसभा या विधानसभा चुनाव हारने वाले नेता को ऊपरी सदन नहीं भेजा जाएगा. दूसरा, कोई सांसद राज्य सरकार में मंत्री बनने के लिए अपने पद से इस्तीफा नहीं दे सकता और तीसरा, पार्टी में शामिल किसी भी नए सदस्य को कोई महत्वपूर्ण पद नहीं दिया जाए. 

बीपी मंडल और डॉ. लोहिया के विवाद से गिरी सरकार
अब जब बीपी मंडल लोकसभा सदस्य होने के बावजूद राज्य सरकार में मंत्री बन गए थे. ऐसे में डॉक्टर लोहिया ने उन्हें कड़ी फटकार लगाई. इस वजह से उन्हें राज्य सरकार में मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा और उनका डॉक्टर लोहिया से मतभेद हो गया. इसी तरह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के एक और वरिष्ठ नेता जगदेव प्रसाद का भी पार्टी की नीतियों को लेकर डॉ. लोहिया से मतभेद हो गया. 

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कहा जाता है कि जगदेव प्रसाद सरकार में मंत्री पद मिलने से उतने नाराज नहीं थे, जितने की उनके ही कुशवाहा समाज के एक जूनियर नेता उपेंद्र नाथ वर्मा को राज्य मंत्री बनाए जाने से वो नाखुश थे. इस बात को लेकर भी जगदेव प्रसाद वर्मा के मन में सरकार के प्रति असंतोष था. इन्हीं कारणों से बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल और जगदेव प्रसाद ने आगे चलकर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का साथ छोड़ दिया और शोषित दल के नाम से एक अलग पार्टी बनाई. सतीश प्रसाद सिंह इसी शोषित दल के नेता थे.

पहली बार बिहार में शुरू हुई जोड़-तोड़ की राजनीति
अब बारी आती है उस सियासी घटना की, जिसने जोड़-तोड़ की राजनीति का पहली बार बिहार में सृजन किया. संयुक्त विधायक दल (संविद) सरकार के बीपी मंडल और जगदेव प्रसाद जैसे नेता पहले ही असंतुष्ट चल रहे थे. इसी बीच प्रदेश की महामाया सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्री केबी सहाय और उनके सहयोगियों  महेश प्रसाद सिंह, सत्येन्द्र नारायण सिन्हा, राम लखन यादव, अंबिका शरण सिंह और राघवेंद्र प्रसाद सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच के लिए अय्यर कमिशन का गठन कर दिया. 

केबी सहाय और सत्येंद्र नारायण सिन्हा  महामाया-कर्पूरी सरकार को गिराने का मौका खोज रहे थे. ऐसे में सरकार से नाराज बीपी मंडल और जगदेव प्रसाद का उन्हें साथ मिल गया.  संतोष सिंह अपनी पुस्तक 'द जननायक' में लिखते हैं कि बीपी मंडल और जगदेव प्रसाद को केबी सहाय और सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने मिलकर यह विश्वास दिलाया कि अगर वो संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी)से अलग हो जाते हैं तो उन्हें कांग्रेस का पूरा समर्थन मिलेगा. 

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बिहार में जब गिर गई पहली गैर-कांग्रेसी सरकार 
इस तरह बीपी मंडल और जगदेव प्रसाद एसएसपी से अलग होकर पार्टी से अलग हुए कुछ अन्य नेताओं के साथ मिलकर शोषित दल के नाम से एक अलग पार्टी बना ली. फिर, केबी सहाय, महेश प्रसाद सिंह, सत्येन्द्र नारायण सिन्हा, राम लखन यादव और अंबिका शरण सिंह संविद सरकार को गिरा दिया.

इस काम में त्यागमूर्ति  आरएल चंदापुरी ने भी बीपी मंडल का साथ दिया था. क्योंकि वो चाहते थे कि बिहार में अगड़ी जाति के हाथ में सत्ता की परंपरा को तोड़ा जाए. 

यह भी पढ़ें: जब कर्पूरी ठाकुर को मिली गंगा में फेंक देने की धमकी... पहले ही चुनाव में रानी को मात देकर बने MLA

संतोष सिंह लिखते हैं कि आर एल चंदापुरी ने 8 मार्च 1980 को एक साक्षात्कार में ये खुलासा किया था कि आखिर क्यों उन्होंने बीपी मंडल का समर्थन किया. उन्होंने बताया कि 1968 में बिहार के शीर्ष कांग्रेस नेता भ्रष्टाचार में शामिल थे और उनके खिलाफ अय्यर कमिशन ने आरोप पत्र दाखिल कर दिया था.

कांग्रेस नेता चाहते थे कि किसी तरह संविद सरकार गिर जाए, ताकि वो सजा से बच सकें. इसलिए मैंने कांग्रेस नेताओं से हाथ मिलाया और उनसे कहा कि अगर बीपी मंडल को सीएम बनाते हैं तो वो संविद सरकार को गिराने के लिए तैयार हो जाएंगे.

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चंदापुरी ने आगे अपनी सफाई में कहा कि ऐसा करने के पीछे वजह ये थी कि मैं खुद चाहता था कि राज्य में कोई पिछड़े वर्ग का मुख्यमंत्री बने और अगड़ी जाति के मुख्यमंत्री बनने की चली आ रही परंपरा टूटे. आखिरकार, 28 जनवरी 1968 से 1 फरवरी 1968 तक केवल 5 दिनों के लिए सतीश प्रसाद सिंह बिहार के मुख्यमंत्री रहे. वो भी पिछड़ा वर्ग से आते थे.

एसपी सिंह सिर्फ पांच दिन ही रहे सके सीएम
बीपी मंडल ने 1 फरवरी 1968 को सीएम पद की शपथ ली. क्योंकि बीपी मंडल किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे. इसलिए उन्हें इन पांच दिनों में बिहार के ऊपरी सदन यानी विधान परिषद का सदस्य मनोनीत होना पड़ा. आपसी सहमति के अनुसार सतीश प्रसाद सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और तब जाकर बीपी मंडल सीएम बन पाए. बीपी मंडल भी सिर्फ कुछ दिनों के लिए सीएम बन पाए.

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