बिहार चुनाव में प्रचार अब आखिरी दौर में है. वोटिंग होने ही वाली है और इससे ठीक पहले इस चुनावी रण में एक शब्द 'नचनिया' पर संग्राम मचा हुआ है. इस पर नहीं जाते हैं कि किसने कहा, किसको कहा और क्या कहा, ये समझिए कि चुनावी समर में एक बयान बाण चलाया गया है, जिसकी नोक पर 'नचनिया' शब्द लिखा है और सवाल उठते हैं कि क्या 'नचनिया' अपमानजनक है? इसका इतिहास क्या है? इन सवालों के बीच एक बात तो समझ आ रही है कि बिहार में कला के इस प्रारूप के प्रति सम्मानजनक नजरिया तो आज भी विकसित नहीं हुआ है.
नचनिया शब्द को समझने के लिए आज के बिहार को समय से पीछे जाकर झांकते हैं. लगभग 500 ईसा पूर्व इसी धरती पर वैशाली गणराज्य की स्थापना हुई थी और इस बात पर बिहार समेत सारा देश गर्व करता है कि दुनिया को गणतंत्र और लोकतंत्र का सबसे पहला पाठ इसी धरती ने पढ़ाया था.
वैशाली की नगरवधू
ध्यान से देखने पर इस उपलब्धि की दमक के नीचे एक कालिख भी दबी हुई है. ये कालिख उस सुंदरी की आंखों के काजल से बह आई हुई है, जिसके पैरों की थिरकन से वैशाली के गणतंत्र की डोर बंधी हुई है. उसका नाम था वैशाली, जिसे सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में इसलिए नगरवधू बनना पड़ा क्योंकि वह बहुत सुंदर थी, उससे भी सुंदर गाती थी और नृत्य तो बेहद सुंदर करती थी. सुंदरता की ऐसी प्रतिमान कन्या प्रणय में कितनी सुंदर होगी?? इसी कल्पना ने उससे यह अधिकार छीन लिया कि वह अपनी पसंद से किसी एक से विवाह करके रहे.
उसे महल मिला, राज्य नर्तकी का गौरव मिला, उसके सौंदर्य को सम्मान मिला... बस नहीं मिला तो केवल उसे अपनी पसंद से विवाह का अधिकार. क्योंकि अगर वह किसी एक से विवाह करती तो लिच्छवी वंश के बनाए वैशाली गणराज्य की चूलें हिल जातीं और गणतंत्र के सभी राजा एक-दूसरे से मर-खप जाते. राज्य में शांति बनी रहे, इसलिए आम्रपाली खुद शांत हो गई. वह राजनर्तकी और नगरवधू बनकर राजाओं की मनोरंजन सभा में नाचती रही.
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बिहार की राजनीति में नाच और नचनिया
बिहार की राजनीति में नाच और नचनिया का इतिहास यहीं से प्रवेश कर गया. इस शब्द के साथ और कला की भावना के साथ अपमान की जो भावना जुड़ी है, उसकी शुरुआत भी संभव हो कि यहीं से हुई है. वरना क्या कारण है कि भरत मुनि के नाट्य शास्त्र का अभिन्न अंग रहने वाला नृत्य जब देवताओं की वैदिक आरती और पूजा का साधन के बनने के बाद प्रसाद के रूप में लोक तक पहुंचा तो उसमें अपमानजनक भावना भी आ गई. उसे देखकर आनंद तो सबने महसूस किया लेकिन अपनाने को कोई तैयार न हुआ. हेय दृष्टि, हिकारत भरी नजर और अपमान का घूंट... नर्तकियों की पहचान रही.
खुद महादेव भी हैं नटराज
जब इस नर्तन कला के लोक रूप को पुरुषों ने अपनाया तब तो अपमान का स्तर और नीचे गिर गया. इतना कि उन्हें जेंडर आइडेंटिटी तक से जूझना पड़ा. उन्हें शक की निगाह से देखा गया. जबकि पौराणिक कथाओं में वर्णन है कि नृत्य करने वाला पहले पुरुष शिव हैं.
महान व्याकरण शास्त्री पाणिनी ने संस्कृत भाषा के आधार माहेश्वर सूत्र की रचना कि, जिसकी प्रेरणा महादेव शिव का आनंद तांडव है.
नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।
उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥
'नृत्य यानी ताण्डव की समाप्ति पर नटराज शिव ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना की पूर्ति के लिये नौ और पांच अर्थात कुल चौदह बार डमरू बजाया. डमरू की इसी आवाज से माहेश्वरशिव सूत्र जाल की उत्पत्ति हुई.'
आज भी नट नामकी एक जनजाति है जो कलाबाजी, करतब आदि दिखाकर जीवन यापन करती है, हालांकि नटों का भी समाज में कोई बहुत सम्मान नहीं रहा. वह खानाबदोश रहे और घुमक्कड़ी ही उनका जीवन रहा. जबकि शिव खुद नटराज कहलाते हैं, इसके बावजूद. कायदे से नाच और नाचने वाले को शिवजी से जुड़कर सम्मान से देखा जाना था, लेकिन ऐसा हो नहीं सका और इसमें इतिहास की तमाम घटनाओं का भी हाथ रहा.
नंदवंश का आखिरी शासक और नाच
नंदवंश के आखिरी क्रूर शासक घनानंद का ही एक किस्सा मशहूर है कि वह बहुत विलासी और ऐश्वर्य प्रेमी थी. नृत्य और संगीत से भी उसका लगाव था, लेकिन उसमें चिढ़ बहुत थी और वह सनकी भी था. वह नर्तकियों से खुद प्रतिस्पर्धा करता था और उनसे हार जाने पर उनकी एक टांग कटवा देता था. ऐसा उसने की नर्तकियों के साथ किया था. हालांकि इसके प्रामाणिक ऐतिहासिक तथ्य नहीं हैं.
ऐसे ही किसी नर्तकी के प्रेमी या भाई ने एक दिन घनानंद को सबक सिखाने की ठानी. वह स्त्री वेश में नर्तकी बनकर पहुंचा और नंद से प्रतिस्पर्धा की मांग. उसका इरादा था कि वह इस तरह घनानंद के करीब होगा और उसकी हत्या कर देगा, लेकिन घनानंद जो पहले से ही सतर्क था. वह बच गया और इस नर्तक को नपुंसक बनाकर छोड़ा. सनक में आकर नंद ने राज्य के कई पुरुष नर्तकों को नपुंसक बना दिया, और उन्हें लोगों के बीच नाच-नाच कर ही जीवन यापन के लिए मजबूर किया गया.
अपमान का घूंट पीते नर्तकों की कई पीढ़ियां इसी तरह का जीवन जीने को मजबूर रहीं और यही उनकी नियति बन गया. संभवतः तब से नृत्य, नाच बना और 'नचनिया' शब्द अपमानजनक भी.
बिहार की लोकप्रिय कला लौंडा नाच
नाच, जिसे लोकप्रिय रूप से लौंडा नाच के नाम से जाना जाता है, वह बिहार के भोजपुर क्षेत्र और पूर्वांचल (उत्तर प्रदेश के पूर्वी छोर और पश्चिमी बिहार के कुछ हिस्सों) में प्रचलित एक लोक नाट्य परंपरा है. लौंडा नाच केवल एक नृत्य रूप नहीं है, बल्कि संगीत, नृत्य, हास्य, संवादों और मेलोड्रामा का मिला-जुला रूप है. इसमें पुरुष ही स्त्री किरदार भी निभाते हैं और मंच पर वह उस हर तरह की भाव-भंगिमा बनाते हैं, जैसा कि एक स्त्री करती है.
लौंडा नाच शुभ अवसरों जैसे विवाह और जन्म पर प्रदर्शित किया जाता है, इसे शुभ माना जाता है, लेकिन नाचने वाले का सम्मान नाचने तक ही रहता है, कई बार नाच तक भी नहीं. आखिर में वह अश्लीलता के पर्याय बन जाते हैं, उन्हें अश्लील नजरिये से देखा जाता है और छेड़छाड़ के सबसे आसान शिकार के तौर पर भी. जब वह नहीं नाच रहे होते हैं तब उन्हें सुनने के लिए ताने और फब्तियां तो हैं हीं.
भिखारी ठाकुर... जिनके कारण सम्मान पाती है नाच की कला और परंपरा
फिर भी इस निगेटिव माहौल में पल-बढ़कर भी नाच परंपरा और कला का ये हिस्सा बिहार में खूब फला-फूला और इसने देश-दुनिया के पटल पर सम्मानजनक स्थान भी हासिल किया. लौंडा नाच की बात होती है तो बिहार के गौरव भिखारी ठाकुर का नाम बहुत आदर से लिया जाता है. उन्हीं की मंडली के पद्मश्री रामचंद्र मांझी भी बहुत सम्मानित नाम रहे हैं. आज के दौर में कुमार उदय सिंह और मनोज पटेल भी कला जगत में ससम्मान जाने जाते हैं. एनएसडी से अभिनय का गुर सीखकर निकले युवा कलाकार राकेश कुमार तो कई फिल्मों में लौंडा नाच का किरदार निभा चुका हैं.
लेकिन इतना सब होने के बावजूद बिहार में नाच और नचनिया दोयम दर्जे का ही है. 21वीं सदी का पचीसवां साल है, विज्ञान को सलाम और कला को सम्मान का दौर है, लेकिन बिहार में चुनावी मंच से किसी को कमतर साबित करने के लिए 'ऊ तो नचनिया है'कहना आज भी काफी है.