कभी सोचा है कि हमारी आंखें वो सब कुछ नहीं देख पातीं जो इस ब्रह्मांड में मौजूद है? हम जिस दुनिया को रंगों से भरपूर मानते हैं शायद उसके कई रंग हमारी आंखें भी नहीं देख पातीं. अब जरा सोचिए, अगर कोई एक नया रंग हमारी आंखों के सामने प्रकट हो जाए जो ना कभी हमने देखा हो, ना ही कल्पना की हो? यह सुनने में फिक्शन जैसा लगता है लेकिन ऐसा हकीकत में हुआ है.
वैज्ञानिकों ने दिखाया नया, नाम रखा OLO
ये कहानी है उन वैज्ञानिकों की जिन्होंने इंसानी आंखों को 'हैक' करके उसे एक ऐसा रंग दिखाया जो प्राकृतिक तौर पर देख पाना संभव नहीं था. यह कमाल यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले के रिसर्चर्स ने किया है. उन्होंने एक ऐसी टेक्नीक विकसित की है जिससे इंसानी रेटिना के हर एक फोटोरिसेप्टर (यानि लाइट सेंसिंग सेल) पर कंट्रोल किया जा सका.
Olo है क्या?
Olo एक 'नया' रंग है, जिसे पांच लोगों ने एक वैज्ञानिक प्रयोग में देखा. उन्होंने इसे ब्लू-ग्रीन का ऐसा शेड बताया जो असाधारण रूप से सैचुरेटेड है. मतलब जितना गाढ़ा रंग आंखें बर्दाश्त कर सकें, उससे भी ज़्यादा. इस रंग का नामकरण भी साइंटिफिक कोडिंग 0,1,0 से हुआ. इसका मतलब: L और S कोन्स (जो रेड और ब्लू लाइट को प्रोसेस करते हैं) को जीरो स्टिमुलेशन और M कोन (ग्रीन रिसेप्टर) को फुल पावर दी गई. इसलिए नाम पड़ा – Olo (जहां o = 0, l = 1, o = 0).
कैसे हुआ ये जादू?
इसे जादू कहो या टेक्नोलॉजी की हदें पार करने की कोशिश, वैज्ञानिकों ने जिस टेक्नीक का इस्तेमाल किया, उसे नाम दिया गया – Oz (Wizard of Oz से इंस्पायर्ड). इसमें सबसे पहले प्रतिभागियों की आंखों की हाई-रेज़ोल्यूशन वीडियो ली गईं और रेटिना की मैपिंग की गई. फिर AO-OCT नाम की एक एडवांस्ड तकनीक से ये पहचाना गया कि कौन सी कोन सेल किस रंग की लाइट रिसीव करती है. इसके बाद, लेज़र माइक्रोडोज के जरिए रेटिना की सिर्फ M कोन को एक्टिवेट किया गया, वो भी पूरी परफेक्शन के साथ. इस दौरान रीयल टाइम में आंखों की हल्की-सी मूवमेंट पर भी नज़र रखी गई ताकि टारगेट लेजर स्पॉट चूके नहीं और जैसे ही सिर्फ M कोन को स्टिमुलेट किया गया, प्रतिभागियों की आंखों ने 'ओलो' रंग देखा.
कैसा दिखता है Olo?
इसे शब्दों में पिरोना मुश्किल है, लेकिन वैज्ञानिकों के मुताबिक Olo को देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी ग्रीन लेज़र लाइट की सैचुरेशन को हजार गुना बढ़ा दिया गया हो. जिन्होंने ये रंग देखा, उन्होंने भी कहा कि इसके आगे लेजर लाइट भी फिकी लगने लगी. किसी ने इसे एलियन कलर कहा तो किसी ने वर्चुअल इमेजिनेशन के बाहर का रंग बताया.
क्यों है ये खोज बड़ी?
ये खोज सिर्फ एक नया रंग देखने की बात नहीं है. असल में ये हमारे विजुअल सिस्टम की सीमाओं को समझने और उन्हें आगे बढ़ाने का ज़रिया बन सकती है. इससे कलर ब्लाइंडनेस में उम्मीद नजर आ रही है. इस टेक्नीक की मदद से रंगों को ना देख पाने वाले लोगों को फुल कलर विजन दिया जा सकता है.
नेत्र रोगों पर रिसर्च: कुछ आंखों की बीमारियों के प्रभाव को रिक्रिएट करके बेहतर इलाज खोजा जा सकता है.
टेट्राक्रोमैसी (4 कोन सेल्स): कुछ बेहद दुर्लभ लोग ऐसे भी होते हैं जिनमें चौथी कोन सेल होती है, जिससे वे आम इंसानों से ज़्यादा रंग देख सकते हैं. इस टेक्नीक से ऐसे अनुभवों को समझा जा सकता है.
लिमिटेशन भी हैं
अब तक इस टेक्नीक का इस्तेमाल सिर्फ परिधीय दृष्टि (peripheral vision) में किया गया है क्योंकि आंखों के केंद्र (fovea) में कोन सेल्स बहुत छोटे होते हैं, वहां लेज़र टारगेट करना मुश्किल है. इसके अलावा, प्रयोग के दौरान प्रतिभागियों को एक ही जगह लगातार देखना पड़ता है क्योंकि रेटिना का सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा ही मैप किया गया था. पूरे रेटिना को मैप करना और लेज़र को आंखों की मूवमेंट के साथ सिंक्रनाइज़ करना फिलहाल तकनीकी तौर पर मुश्किल है.
क्या हम रोज देख पाएंगे Olo?
इसकी संभावना बहुत कम है. अभी ये तकनीक महंगे लेज़र्स और ऑप्टिक्स पर निर्भर है, जो मोबाइल या टीवी स्क्रीन पर लाना फिलहाल तो नामुमकिन है. यानी Olo फिलहाल एक एक्सक्लूसिव क्लब का हिस्सा है जिसे कुछ ही वैज्ञानिकों ने देखा है. वैज्ञानिकों का कहना है कि Olo हमें सिर्फ एक नया रंग नहीं दिखाता बल्कि ये बताता है कि हमारी सीमाएं वहीं तक हैं जहां तक हम मानते हैं. विज्ञान हर उस दरवाज़े को खोल सकता है जिसे हम बंद मानते आए हैं. आंखें हमारी दुनिया का सबसे सुंदर दरपन हैं, और Olo इस बात की गवाही है कि वो दरपन अब और गहराई में झांकना सीख रहा है.