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बिहार में 'फुटानीबाज़ों' का राज: पहली बूथ कैप्चरिंग से लेकर कोयला खदानों तक... हैरान कर देगी ये खौफनाक कहानी

1957 में बेगूसराय के रचियाही गांव में हुई देश की पहली बूथ कैप्चरिंग ने बिहार की राजनीति की दिशा बदल दी थी. इसी के बाद बरौनी रिफाइनरी और धनबाद की कोयला खदानों ने माफियाओं को जन्म दिया. जानिए कैसे अपराध, सत्ता और चुनावी हिंसा ने मिलकर बनाया ‘बिहार का माफिया राज.’

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बिहार में फुटानीबाज़ों का इतिहास भी पुराना है (फोटो-ITG)
बिहार में फुटानीबाज़ों का इतिहास भी पुराना है (फोटो-ITG)

Bihar ke Futanibaaz: धनबाद की कोयला खदानें और बरौनी रिफाइनरी... यही वो दो जगह हैं जिनके बारे में बेहिचक कहा जा सकता है कि यहीं से बिहार में माफिया राज की शुरूआत हुई थी. सिर्फ छह साल के भीतर पहले बरौनी में देश की दूसरी बड़ी रिफाइनरी खुली और फिर देश में सबसे ज़्यादा कोयला पैदा करने वाली धनबाद की कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण हुआ. तब धनबाद बिहार का ही हिस्सा हुआ करता था. इन दो जगहों ने ताक़तवर लोगों को यूनियन बनाने, ठेकों के लिए अफसरों पर दबाव डालने और मज़दूरों को कंट्रोल करने का ऐसा भरपूर मौका दिया कि कब वे लोग ताकतवर माफिया बन बैठे पता ही नहीं चला.

बरौनी बेगूसराय जिले का हिस्सा था, उसी बेगूसराय से करीब 7 किलोमीटर दूर मौजूद एक खंडहर ऐसी ऐतिहासिक और शर्मनाक घटना का गवाह है, जिसने देश में पहली बार चुनावी सिस्टम पर उंगली उठाने का मौका दिया था. वो दौर था 1957 का. आज़ाद भारत अपने दूसरे चुनाव की तरफ बढ़ रहा था. बरौनी रिफाइनरी बनने का काम शुरू हो चुका था. आसपास के हजारों लोगों को रोज़गार मिलने वाला था. जब कहीं इंडस्ट्री आती है, तब अपने साथ हमेशा आर्थिक और राजनीतिक ताकत के अलावा भ्रष्टाचार और अपराधी तत्वों के पनपने की वजह बन जाती है. बिहार भी इसका अपवाद नहीं रहा. 

फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर एकता के नारे बुलंद करने लगे. बिहार की राजनीति में कांग्रेस और समाजवादी विचारधारा वाले दलों के समानांतर कम्यूनिस्ट पार्टियां मजदूरों और फैकट्री के छोटे कर्मचारियों के दम पर अपने विस्तार में जुट गईं. यही वो वक्त था जब बिहार में जाति समाज की हकीकत थी पर राजनीति की सच्चाई नहीं. उम्मीदवार तय करने में पार्टियां भले ही जातीय समीकरण का ध्यान रखती हों लेकिन वोटरों के बीच विचारधारा का राजनीतिवाद जातिवाद पर हावी था.

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रिफ़ाइनरी शुरू होने की सुगबुगाहट के बीच 1957 में बिहार में विधानसभा का दूसरा चुनाव शुरू हो चुका था. बेगूसराय की मटिहानी विधानसभा सीट पर तब सीधा मुकाबला कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच था. 1952 में पहला चुनाव कांग्रेस के टिकट पर जीत चुके सरयुग प्रसाद सिंह दोबारा इस सीट से लड़ रहे थे और उनके सामने थे कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार चंद्रशेखर प्रसाद.

उस चुनाव के लिए रचियाही गांव की उस खंडहरनुमा इमारत में पोलिंग बूथ बनाया गया था. उस बूथ पर रचियाही और आसपास के तीन बड़े गांवों के लोगों को वोट डालना था. कांग्रेस उम्मीदवार सरयुग सिंह का डर था कि कम्युनिस्टों का गढ़ होने की वजह से इस पोलिंग बूथ पर ज्यादातर वोट उनके खिलाफ जाएगा. तीन गांवों के लोग उन्हें वोट नहीं देंगे. इसी के बाद सरयुग सिंह ने वो किया जिसने देश में पहली बार किसी चुनाव को कलंकित किया और पहली बार देश ने बूथ कैप्चरिंग के बारे में सुना.

सरयुग सिंह ने अपने दबंग समर्थकों को चुनाव वाले दिन उन रास्तों पर खड़ा कर दिया, जहां से लोग वोट देने के लिए आने वाले थे. तब वोटर इकट्ठा होकर बैलगाड़ी पर बूथ तक आते थे. रचियाही पोलिंग बूथ से ठीक पहले वोटरों की बैलगाड़ी को जबरन रोक लिया गया. वोटरों को वोट डालने से रोकने के लिए उन्हें डराया-धमकाया गय़ा और जो नहीं माने उन्हें पीटा गया. सरयुग सिंह के कुछ समर्थक बूथ में घुस गए और बूथ कैप्चर कर लिया.

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68 साल पहले देश में ये पहली बूथ कैप्चरिंग थी, जिसके दो गवाह आज भी ज़िंदा हैं. इन्होंने उस दिन जो कुछ हुआ अपनी आंखों से देखा था. तब इन दोनों की उम्र 16-17 साल रही होगी. इत्तेफाक से वे दोनों 'आज तक' की टीम को उसी जगह मिल गए, जहां देश की पहली बूथ कैप्चरिंग की घटना हुई थी. रचियाही गांव में हुई देश की पहली बूथ कैप्चरिंग की घटना ने नेताओं को एक ऐसा रास्ता दिखा दिया था, जिसमें राजनीतिक कार्यकर्ता बेमानी होने लगे और अपराधी नेताओं की शह पर बाहुबल के सहारे जनमत से खेलने लगे. 

बूथ लूटना चुनाव लड़ने वाले नेताओं को काम के आधार पर वोट मांगने से ज्यादा मुफीद लगने लगा और आपराधिक तत्व राजनीतिक संरक्षण पाकर पब्लिक के बीच डर का साम्राज्य खड़ा करने लगे. इसने बिहार की राजनीति में धन-बल और माफिया की एंट्री करा दी. जो आज बरसों बाद भी कायम है. हालांकि जिस रचियाही में ये सब कुछ हुआ वहां के लोग आज भी इसे अपने गांव पर एक कलंक मानते हैं. उन्हें अफसोस इस बात का है कि वो बार-बार इस कलंक को धोने की कशिश करते हैं लेकिन हर बार जब भी चुनाव आता है या जब भी देश भर में कहीं बूथ कैप्चरिंग होती है, तो बेगूसराय के रचियाही की चर्चा हो ही जाती है.

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हालांकि अब दौर बदल चुका है. चुनावी तरीका भी बदल गया है और इसके साथ ही बदल गया है रचियाही गांव. बीते बरसों में वहां कई चुनाव हुए. लेकिन देश को पहली बूथ कैप्चरिंग की जमीन बन जाने वाले रचयााही में अब कोई बूथ कैप्चरिंग नहीं होती. और ये संभव हुआ यहां के लोगों की उस कसम की वजह से कि 1957 के कलंक को फिर दोहराने नहीं देंगे.

रचियाही का वही चुनाव था, जिसने पहली बार खुद चुनाव आयोग को चुनावी बूथ की सुरक्षा के लिए सुरक्षाबलों की तैनाती पर सोचने के लिए मजबूर किया. दरअसल, तब ना बूथों पर सुरक्षा के इंतज़ाम होते थे, ना उस वक्त सीसीटीवी कैमरे थे ना पुलिस ना पैरामिलिट्री फोर्सेज. यहां तक कि बूथ पर गड़बड़ी होने की सूरत में शिकायत दर्ज कराने का भी कोई इंतज़ाम नहीं हुआ करता था. अमूमन बूथ पर गड़बड़़ी की खबर तक लोगों को अगले दिन अखबारों से मिला करती थी. चुनाव आयोग तक ऐसी शिकायतों पर तब कुछ कर पाने में बेबस था. लिहाज़ा, चुनावी नतीजे यूं ही घोषित कर दिए जाते थे. लेकिन रचिय़ाही की इस एक घटना ने सब कुछ बदल दिया. चुनाव आयोग ने तब पहली बार बूथों पर सुरक्षा बलों की तैनाती करने का फैसला किया था.

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1957 की इस घटना ने बिहार में राजनीति की दिशा ही बदल दी. माफिया बने अपराधी तत्व और नेताओं के गठजोड़ कुछ अलग ही कहानी लिखने लगे. जाहिर है चुनावों में फुटानीबाज़ों की भूमिका बढ़ने लगी. 70 का दशक आते-आते ये सिलसिला और भी खतरनाक हो चला. 1964 में बरौनी रिफाइनरी शुरू हो गई थी और इसके साथ ही इलाकाई गुंडों की गिनती बढ़ने लगी. जो ज्यादा ताकतवर थे वो दखते ही देखते गुंडे से माफिया बन गए. जो जितना बड़ा माफिया वो चुनाव में नेताओं के काम का उतना ही बड़ा हथियार. लेकिन उस वक्त तक नेताओं का पलड़ा भारी था. गुंडे माफिया उनके इशारे पर काम करते थे. 

लेकिन अभी इससे भी खतरनाक तस्वीर बिहार को देखना बाकी था. और ये तस्वीर दिखाई बेगूसराय से करीब सवा तीन सौ किलोमीटर दूर कोयलांचल ने. कोयलांचल बोले तो धनबाद. धनबाद यानी भारत के कोयले की राजधानी. कोल माइंस ऑफ इंडिया, ब्लैक सिटी, ब्लैक डायमंड सिटी, काले हीरे की खान ना जाने कितने ही नाम हैं इस शहर के. आज ये शहर झारखंड के पास है. पर यही वो धनबाद है, जिसने बिहार में पहली बार माफिया को आबाद किया.

दरअसल, बिहार में माफिया शब्द का पहली बार सरकारी भाषा में इस्तेमाल 1988 में हुआ था. बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद ने पहली बार इस शब्द का इस्तेमाल तब किया था जब कोयले की काली धरती खून से लाल होने लगी थी. 70 के दशक में जैसे ही धनबाद के कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण हुआ. यूनियन की आड़ लेकर माफियाओं ने अपना वर्चस्व कायम कर लिया. जिन्होंने माफियाओ के हुक्म की अनदेखी की वो मार दिए गए. ना जाने कितने ही मजदूरों और विरोधियों को धधकते कोयले की आग में फेंक दिया गया. खुद माफियाओं की आपसी लड़ाई में सैकड़ों जानें गईं.

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कोयला खदानों के राष्ट्रयीकरण से पहले एक दौर वो भी था जब कोयला मजदूरों से गुलाम की तरह खदानों में काम कराया जाता था. उन्हें जंजीरों से बांध कर रखा जाता था. डर और दहशत कायम करने के लिए पहलवान पाले जाते थे. बाद में यही पहलवान माफिया बन गए. फिर 1971 से 1973 के बीच खदान और उसके मजदूर मालिकों के चंगुल से आजाद हो चुके थे. माफिया ने हर खदान में अपने मजदूरों को भरना शुरू कर दिया. ताकि उन्हें सरकारी नौकरी मिल जाए.

कोयलांचल में होनेवाली खूनी लड़ाई और माफियागीरी की जब भी चर्चा होती है तो सूरजदेव सिंह, नौरंगदेव सिंह, एके राय, योगेश प्रसाद योगेश, कृपाशंकर चटर्जी, सत्यदेव सिंह, तपेश्वर सिंह जैसे कई नाम उभर कर सामने आते हैं. ये वो थे जिनके साथ के बिना धनबाद से किसी का भी चुनाव जीतना आसान नहीं रहा. पहले ये नेताओं को चुनाव जितवाते थे फिर राजनीति की ऐसा हवा लगी कि खुद ही चुनावी मैदान में कूद कर विधानसभा और लोकसभा का रास्ता तय करने लगे.

बेगूसराय, धनबाद और पश्चिमी चंपारण ने जिस तेज़ी से माफिया, अपराधियों और डकैतों को आगे करना शुरू कर दिया था. उसकी देखा-देखी अब बिहार के दूसरे हिस्सों में भी फुटानीबाज़ पैदा होने लगे. 80 के दशक में ऐसे कई दबंग फुटानीबाज़ उभरे जिन्हें अलग-अलग राजनीतिक दलों ने हाथों हाथ लिया. पहले नेता अपनी जीत पक्की कराने के लिए फुटानीबाज़ों से बूथ लुटवाते थे. बदले में उन्हें सरकारी ठेके दिलाते रहे. सरकारी परियोजनाओं में हिस्सा पा कर जब ऐसे दबंग फुटानीबाजों की आर्थिक हैसियत बढ़ी तो उनकी सामाजिक स्थिति भी सुधरने लगी. 

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अस्सी के दशक में बिहार बदलाव के दौर से गुजर रहा था. आंदोलनों की धरती कही जाने वाले बिहार में भूमि सुधार से लेकर अलग अलग इलाकों में तमाम तरह के छोटे-बड़े आंदोलन चल रहे थे. गुंडे, अपराधी और माफियाओं ने इस मौके का फायदा उठाया और आंदोलनों का हिस्सा बनने लगे, जिससे उन्हें सामाजिक मान्यता मिलने लगी. एक गरीब राज्य की जनता के बीच एक ऐसा तबका पनप रहा था, जो वक्त पड़ने पर उनकी जरुरतों को स्थानीय स्तर पर पूरा कर रहा था. लिहाजा, उन्हें लगने लगा कि बूथ कब्जाने और बैलेट बॉक्स लूट कर दूसरों को चुनाव जिताने की वो खुद क्यों ना चुनाव लड़ें. इसी सोच पर दबंगों ने चुनाव में खुद ही किस्मत आज़माना शुरू कर दिया. जीत मिली तो बाकियों का भी हौसला बढ़ गया. अब अपराधी और नेता सड़क से लेकर विधानसभा के अंदर तक राजनीति-राजनीति खेलने लगे.

1980 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में एक साथ कई दबंग चुनाव जीतने में कामयाब हो गए. उनकी जीत को देखते हुए राजनीतिक दलों ने भी दबंगों की जीत तय मान उन्हें टिकट देना शुरू कर दिया. गोपालगंज सीट से दबंग काली प्रसाद पाण्डेय निर्दलीय जीत गए थे. तब उनकी गिनती बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े बाहुबली में होती थी. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 के लोकसभा चुनाव में जेल में रहते हुए भी काली प्रसाद पाण्डेय गोपालगंज लोकसभा सीट से निर्दलीय जीत कर संसद पहुंच गए. तब काली प्रसाद की जीत ने खूब सुर्खिया बटोरी थीं. कहा जाता है कि 1987 में आई फिल्म-प्रतिघात के खलनायक काली प्रसाद का कैरेकटर सांसद काली प्रसाद पाण्डेय से ही प्रेरित था.

1980 के चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर उमाशंकर सिंह महाराजगंज से, प्रभुनाथ सिंह तरैया से, रघुनाथ झा शिवहर से, मोहम्मद तसलीमुद्दीन जनता पार्टी के टिकट पर अररिया से, विनोद सिंह भवनाथपुर से, सूर्यदेव सिंह झरिया से जबकि निर्दलीय, बीरेंद्र सिंह मोहबिया जनदाहा और राम नरेश सिंह नालंदा से चुनाव जीत गए थे. किसी से छुपा नहीं था कि इन सभी की पहचान दबंग की रही थी. इनमें वैशाली जिले की समाजवादियों का गढ़ कहे जाने वाले जनदाहा विधानसभा सीट से जीते निर्दलीय बीरेंद्र सिंह मोहबिया का नाम बिहार में राजनीति के अपराधीकरण की प्रक्रिया में खास तौर पर लिया जाता है. 

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के करीबी माने जाने वाले बीरेनद्र सिंह मोहबिया बीर मोहबिया के नाम से कुख्यात थे. जगन्नाथ मिश्र की ही तरह दसो उंगलियों में अंगूठी पहनने के शौकीन बीर मोहबिया को हाथी पालने का भी शगल था. वैशाली के जिला मुख्यालय हाजीपुर के डीएम ऑफिस में जब वो 1980 में नामांकन के लिए पहुंचे थे तो खुद भी हाथी पर सवार थे और उनके साथ हाथियों का एक झुंड था. चंबल के डाकूओं की तरह वीर मोहबिया बड़े धार्मिक थे. 

विधायक बनने के बाद जब भी वो पटना के वियायक निवास में होते थे तो रात भर कीर्तन कराते और नेता भी उनके खिलाफ शिकायत करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे. विधायक रहने के दौरान जब बेटी की शादी की तो दिल्ली से स्पेशल परमिशन लेकर अपने गांव में विवाह मंडप पर रात भर तब तक आसमान से फूल बरसाते रहे जब तक शादी खत्म नहीं हुई. हालांकि बीर मोहबिया एक ही चुनाव जीतने में कामयाब रहे थे. 

लेकिन 1985 के विधानसभा चुनाव में दबंगों की धाक और बढ़ गई. प्रभुनाथ सिंह मसरख, रघुनाथ झा, मोहम्मद तसलीमुद्दीन, सूर्यदेव सिंह और आदित्य सिंह समेत दर्जनों दबंग चुनाव जीते. यही वो दौर था जब दबंग जेल से चुनाव जीत रहे थे और कानूनी शिकंजा कसने पर अपने नाते-रिश्तेदारों को राजनीति में आगे करने में भी पीछे नहीं थे.

1990 के दशक में बिहार की राजनीति ने करवट बदली. कांग्रेस राज की विदाई हुई. पाला बदल कर जनता दल के टिकट पर जीते रघुनाथ झा की सियासी हैसियत का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि 1990 में जब बहुमत हासिल करने के बाद जनता दल के भीतर मुख्यमंत्री पद के लिए राम सुंदर दास और लालू यादव के बीच विधायक दल की बैठक में मुकाबला हुआ तो रघुनाथ झा मोहरे के तौर पर तीसरे दावेदार के तौर चुनाव में शामिल हुए. लालू यादव मुख्यमंत्री बने. 

कुछ महीने के बाद मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई और लालू की छवि सामाजिक न्याय के मसीहा के तौर पर मजबूत हुई. सामाजिक तौर पर बिहार बदल रहा था लेकिन एक चीज नहीं बदली वो थी बिहार की राजनीति में दबंगों की तूती. बस दबंगों में कुछ नई जातियां शामिल हो गईं जो मंडल की राजनीति शुरु होने से पहले समाज में हाशिए पर थे. राजनीतिक पार्टियों के बीच ऐसे दबंगों को अपने-अपने पाले में लगाने के लिए होड़ शुरू हो गई. क्योंकि ये पार्टियों के लिए चुनाव में जीत की गारंटी बनते जा रहे थे. 

1990 के विधानसभा चुनाव में मोहम्मद शहाबुद्दीन जीरादेई सीट से तो पप्पू यादव सिंहेश्वर से निर्दलीय ही चुनाव जीते. इसी तरह पप्पू यादव पूर्णिया लोकसभा सीट से कई बार निर्दलीय जीते और अब भी सांसद हैं. आनंद मोहन सिंह महिषी से विधायक का चुनाव जीते और बाद के सालों में शिवहर से सांसद भी रहे. यह सिलसिला बदस्तूर जारी था. बृज बिहारी प्रसाद, सूरजभान सिंह, दिलीप सिंह, सुरेन्द्र यादव, रामा सिंह, अनंत सिंह, सुनील पाण्डेय, राजन तिवारी, मुन्ना शुक्ला, हुलास पाण्डेय, धूमल सिंह, बोगो सिंह और रणवीर यादव जैसे फुटानीबाज़ दबंग भी आगे चल कर चुनावी मैदान में उतरे और चुनाव जीतने में कामयाब रहे.

यही वो दौर था, जब बिहार में चुनाव और बूथ कैप्चरिंग एक ही सिक्के के दो पहलू बन चुके थे. सिर्फ वहीं बूथ नहीं लूटे जाते थे, जहां दबंगों को भरोसा था कि उनकी धमकियों के बाद कोई वोट डालने नहीं आएगा और उनके वोट वो खुद आराम से बूथ में बैठ कर डाल सकेंगे. इसी दौर में एक वक्त ऐसा भी आया जब बूथ कैप्चरिंग, धमकी और खून-खराबे के चलते वोटर चुनाव को लेकर उदासीन हो चले थे. उन्हें लगता था क्यों जान खतरे में डाल कर वोट डालने जाएं. जाएं भी तो क्या पता उन्हें लाइन से बाहर कर दिया जाए. पर इसके बावजूद तब भी बिहार में थोक के भाव से वोट डाले जाते थे. बिहार में साल 2000 से पहले साठ फीसदी से कम वोटिंग तो कभी हुई ही नहीं.

फिर तभी अचानक दो चीजें हुई. पहली बार टीएन शेषन की शक्ल में एक ऐसा चुनाव आयुक्त आया, जिसने देश के साथ-साथ बिहार के चुनाव की तस्वीर ही बदल दी. और दूसरी आसानी से लूटा जाने वाला बैलेट बॉक्स अब इतिहास बनने जा रहा था और उसकी जगह आ रही थी ईवीएम. यानी इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन.

बिहार में 1995 का चुनाव टीएन शेषन की निगरानी और अगुआई में हुआ. चुनाव आयोग ने पहली बार अपनी ताकत और तेवर दिखाया था. नतीजा ये कि 57 से बूथ कैप्चरिंग के लिए बदनाम बिहार में पहली बार 95 का चुनाव बहुत हद तक शांतिपूर्ण तरीके से निपट गया. बूथ कैप्चरिंग की घटनाओं में हैरतअंगेज़ तौर पर कमी आई. पहली बार निचले तबके के लोगों ने बेखौफ वोट डाले. लालू प्रसाद यादव जो तब शेषन की सख्ती के खिलाफ लगातार बोल रहे थे, उन्हीं शेषन के चलते उनकी पार्टी भारी बहुमत से चुनाव जीत गई. क्योंकि बिहार के निचले तबके के लोगों ने एक मुश्त लालू यादव की पार्टी को ही वोट डाले थे. यही वो चुनाव था जब बिहार के सबसे पिछड़े मतदाताओं ने पहली बार अपने वोट का महत्व समझा, जो आजादी के 40-45 सालों तक वो कभी समझ नहीं पाए थे.

फिर आई 21वीं सदी. साल 2004 का वो चुनाव, जिसने देश की चुनावी तस्वीर ही पूरी तरह बदल दी. बैलेट बॉक्स अब इतिहास बन चुका था और उसकी जगह ले ली थी इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम ने. ईवीएम ने एक झटके में बुलेट और बेलैट के खूनी खेल को एक तरह से खत्म कर दिया. आने वाले सालों में बूथ कैप्चरिंग, बोगस वोटिंग धीरे-धीरे इतिहास की बातें बनती गईं.

अब बूथ कैप्चरिंग और चुनावी लूट का मौसम जा चुका था. तो क्या बिहार में फुटानीबाजों का राज खत्म हो गया? बिल्कुल नहीं. बदलते वक्त के साथ उन्होंने अपनी दबंगई का भी तौर-तरीका बदल लिया. एक ऐसे सिंडिकेट की तरह काम करना शुरू किया, जिसके कई चेहरे थे. विधानसभा में नेता जी थे, जनता के बीच रॉबिनहुड, तो अपने राजनीतिक आका के लिए बाहुबली. नए दौर में फुटानीबाज़ खत्म नहीं हुए, बस दबंगई का तरीका बदल गया.

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