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कसीदकारी, नक्काशी और कंपनी पेंटिंग... उस मुर्शिदाबाद की असली पहचान जो हिंसा की आग में झुलस गया

गंगा नदी के शांत तट पर बसा पश्चिम बंगाल का शहर मुर्शिदाबाद भारत के समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत का प्रतीक रहा है. मुगल काल के दौरान एक समृद्ध राजधानी रहा यह शहर आज भी वास्तुशिल्पीय चमत्कारों, जीवंत परंपराओं और एक अमिट अतीत का भंडार है. यह शहर बीते हुए समय की भव्यता को अपने गुलदान में समेट कर रखने वाला गुलदस्ता है. 

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20वीं शताब्दी से पहले का बंगाली ऑयल पेंटिंग, जिसमें मीरा जैसी किसी साधिका को उकेरा गया है, शिव मंदिर के सामने बैठकर बाउल भजन गाती एक साधिका
20वीं शताब्दी से पहले का बंगाली ऑयल पेंटिंग, जिसमें मीरा जैसी किसी साधिका को उकेरा गया है, शिव मंदिर के सामने बैठकर बाउल भजन गाती एक साधिका

वक्फ कानून के विरोध की चिंगारी उठी तो पश्चिम बंगाल का मुर्शिदाबाद जल उठा. खबरें आईं कि दंगाइयों ने पिता-पुत्र को घर से घसीटा और उनकी हत्या कर दी गई. हिंसा ने पश्चिम बंगाल के इस शहर को ऐसा नुकसान पहुंचाया कि इसकी भरपाई कैसे हो सकेगी यह बड़ा सवाल है.

मुर्शिदाबाद के लिए ये सवाल इसलिए भी बड़ा है क्योंकि हिंसा की ये घटनाएं उसके मिजाज से मेल नहीं खातीं. मु्र्शिदाबाद तो वो शहर था, जो कला, हुनर और फन की दुनिया का मुर्शिद रहा है. यहां से न जाने कितने कलाकार निकले हैं, कूचियों की कितनी खूबसूरत शैलियां निकली हैं, जिनके रंग से दुनिया सराबोर है तो वहीं ये शहर शिल्प, वास्तु और धातुकर्म कला को अपनी गोद में पनाह देने वाला रहा है.  

अतीत की विरासत का भंडार
उत्तर भारत में गंगा नाम से बहने वाली जलधारा पश्चिम बंगाल में गिरते-गिरते हुगली हो जाती है, लेकिन अपने गंगा होने की पहचान नहीं भूलती है. इसी नदी के शांत तट पर बसा पश्चिम बंगाल का शहर मुर्शिदाबाद भारत के समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत का प्रतीक रहा है. मुगल काल के दौरान एक समृद्ध राजधानी रहा यह शहर आज भी वास्तुशिल्पीय चमत्कारों, जीवंत परंपराओं और एक अमिट अतीत का भंडार है. यह शहर बीते हुए समय की भव्यता को अपने गुलदान में समेट कर रखने वाला गुलदस्ता है. 

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इसके इतिहास की शुरुआत कहां से करें? कहते हैं कि छठवीं शताब्दी में यहां एक राजधानी नगर था 'कर्णसुवर्ण'. इस दौर तक गुप्त साम्राज्य पतन की राह पर था और कई अन्य छोटे-छोटे साम्राज्य उभर रहे थे. गंगा के डेल्टाई क्षेत्र में भी एक नए राज्य की पताका लहराने लगी थी, जिसके ध्वज पर गौड़ साम्राज्य का राजचिह्न चमका करता था. कर्णसुवर्ण इसी गौड़ साम्राज्य की राजधानी रहा और जब यह साम्राज्य अपने चरम पर था तो कला और हुनर ने भी यहां अपनी पहचान बनाई. 

मुर्शिदाबाद के लालबाग में मौजूद चार बंगला शिव मंदिर, जो टेराकोटा आधारित शिल्प का नमूना है
मुर्शिदाबाद के लालबाग में मौजूद चार बंगला शिव मंदिर, जो टेराकोटा आधारित शिल्प का नमूना है

गौर साम्राज्य का कर्णसुवर्ण, जो संस्कृतियों का जन्मस्थान रहा
R.C. Majumdar की किताब, The History of Bengal में गौड़ साम्राज्य की संस्कृति का जिक्र बहुत विस्तार से आता है. किताब के कई पन्ने इस दौरान की स्थापत्य कला के उदाहरणों से भरे पड़े हैं. इसके मुताबिक,  गौड़ साम्राज्य की स्थापत्य कला में हिंदू और बौद्ध दोनों ही शैलियों का विकास हुआ और 13-14 वीं सदी के बाद इसी कला में इस्लामी स्थापत्य के अंश भी शामिल हुए. यानी कि यह कला लुप्त नहीं हुई, बल्कि एक नई शैली के संगम और उसके हल्के टच से और भी समृद्ध हो गई. 

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बौद्ध और हिंदू मंदिरों जो पत्थर और टेराकोटा से बने होते थे, जिनमें जटिल नक्काशी और मूर्तियां होती थीं, ये स्थापत्य और शिल्प के खास उदाहरण हैं. गौड़ के बाद पाल वंश के समय बने विहार और मठ बौद्ध कला के उत्कृष्ट नमूने थे.

इसी तरह  Richard M. की दस्तावेजी किताब, 'The Rise of Islam and the Bengal Frontier, 1204-1760' में भी दर्ज मिलता है कि, 13वीं सदी में बंगाल सल्तनत के उदय के साथ गौड़ में इस्लामी स्थापत्य का विकास हुआ. गौड़ क्षेत्र में टेराकोटा की नक्काशी का व्यापक उपयोग हुआ. बाद के समय में मंदिरों की दीवारों पर पौराणिक कथाएं भी उकेरी गईं और मस्जिदों पर नक्काशी में फूल-पत्तियां, और ज्यामितीय पैटर्न उकेरे जाने लगे. पाल और सेन वंश के समय गौड़ क्षेत्र में विष्णु, शिव, दुर्गा, और बुद्ध की पत्थर और कांस्य की मूर्तियां बनाई गईं. 

मुर्शिदाबाद की कसीदकारी
मुर्शिदाबाद की कसीदकारी

शिल्प, वास्तु से लेकर वस्त्र तक, यहां पनपा हर हुनर
इस तरह संस्कृति की नाव और सत्ता के विकासशील रथ पर चढ़कर समय बीतता गया और गौड़ साम्राज्य का दौर भी धूमिल होता गया, लेकिन कला और हुनर का जो बीज इस मिट्टी में बोया गया था, उसके फूटे अंकुर, बड़े पेड़ों की तरह बढ़े और ऐसे बढ़े कि जब यह इलाका, बाद के दिनों में मुर्शिदाबाद बन गया तो उसकी पहचान बन गए. मुर्शिदाबाद का शानदार इतिहास 18वीं शताब्दी की शुरुआत से शुरू होता है, जब बंगाल के पहले स्वतंत्र नवाब, मुर्शिद कुली खान राजधानी को ढाका से यहां ले आए. उनके नाम पर इस जमीन को मुर्शिदाबाद नाम मिला फिर जल्द ही शहर वाणिज्य, शासन और संस्कृति का केंद्र बन गया. नवाबों के शासनकाल में यह शहर फला-फूला और विशेष रूप से रेशम और वस्त्रों के व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया, जिनकी मांग विश्व भर में थी.

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हालांकि, 1757 में प्लासी के युद्ध ने शहर के भाग्य को नाटकीय रूप से बदल दिया. यह युद्ध, जिसने भारत में ब्रिटिश शक्ति के उदय को चिह्नित किया, मुर्शिदाबाद के राजनीतिक महत्व के क्रमिक पतन का कारण बना. फिर भी, शहर के सांस्कृतिक और वास्तुशिल्पीय खजाने आज भी संरक्षित हैं, जो इसके गौरवशाली अतीत की झलक हैं. खैर, कोई पूछे कि मुर्शिदाबाद में क्या था तो उसे बताइए कि, मुगल, बंगाली और यूरोपीय शैलियों में बने यहां के वास्तु इस शहर की रौनक हैं. यकीन न आए तो यहां का 'हजारी महलः हजार दरवाजों वाला महल' देख लीजिए. 

मुर्शिदाबाद कढ़ाई कारीगरी
मुर्शिदाबाद कढ़ाई कारीगरी

1837 में वास्तुकार डंकन मैक्लियॉड द्वारा नवाब नाजिम हुमायूं जाह के लिए निर्मित यह महल शाही वैभव का प्रतीक है. इसमें एक प्रभावशाली संग्रहालय है, जिसमें प्राचीन हथियार, पांडुलिपियां और कलाकृतियां शामिल हैं. यहीं निजामत इमामबाड़ा भी है. साल 1723 में नवाब मुर्शिद कुली खान द्वारा बनवाया गया कटरा मस्जिद भी आकर्षण का केंद्र है. इसके विशाल गुंबद और ऊंचे मीनार मुगल वास्तुकला का शानदार नमूना हैं. मस्जिद परिसर में नवाब का मकबरा भी मौजूद है. 

कंपनी पेंटिंग की जमीन बना मुर्शिदाबाद
इसी मुर्शिदाबाद ने चित्रकला यानी पेंटिंग के क्षेत्र में एक नया ही आयाम विकसित किया. 18वीं और 19वीं शताब्दी के अंत में, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने साउथ एशिया में अपना प्रभाव जमाया तो बड़ी संख्या में इसके कर्मचारी इंग्लैंड से भारत में नए जीवन की तलाश में आए. जैसे-जैसे वे देश भर में यात्रा करते गए, उन्हें अनोखे पेड़-पौधे, जीव-जंतु, प्राचीन स्मारक और विदेशी लोग मिले. इन छवियों को अपने साथ ले जाने या घर भेजने के लिए, जहां आधुनिक पर्यटक कैमरे का उपयोग करता, उस समय के यात्रियों को भारतीय चित्रकारों को नियुक्त करना पड़ता था. इन कलाकारों द्वारा यूरोपीय शैली और रंगों में बनाए गए कार्यों को सामूहिक रूप से "कंपनी" पेंटिंग के रूप में जाना जाता है.

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इस कंपनी पेंटिंग की जमीन मु्र्शिदाबाद में ही तैयार हुई. ये चित्र थॉमस और विलियम डैनियल जैसे कलाकारों द्वारा बनाए गए भारत के सुरम्य दृश्यों के वंशज हैं. यह चित्रकला शैली विभिन्न शहरों में विकसित हुई, जहां हर क्षेत्र की शैली स्थानीय परंपराओं से प्रभावित थी. कलकत्ता शुरुआती महत्वपूर्ण केंद्रों में से एक था, क्योंकि यह सबसे पुराने ब्रिटिश व्यापारिक केंद्रों में से एक था. इस शहर में दो बड़े अंग्रेज अफसर, लॉर्ड इम्पे (1777-1783 तक हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश) और मार्क्वेस वेलेज़ली (1798-1805 तक गवर्नर-जनरल) थे. दोनों ने बड़े चिड़ियाघर बनाए और अपने पक्षियों और जानवरों को चित्रित करने के लिए कलाकारों को नियुक्त किया. इसके बाद, कलकत्ता में कंपनी द्वारा स्थापित एक वनस्पति उद्यान ने अपने संग्रह की वनस्पतियों के लिए भी ऐसा ही एक प्रोजेक्ट शुरू किया.

मुर्शिदाबाद कंपनी पेंटिंग का एक नमूना, घोड़ों को नियंत्रित करता घुड़सवार
मुर्शिदाबाद कंपनी पेंटिंग का एक नमूना, घोड़ों को नियंत्रित करता घुड़सवार

कैसे बढ़ा कंपनी पेंटिंग का बाजार
अन्य महत्वपूर्ण चित्रकला केंद्रों में वाराणसी (जिसे ब्रिटिश लोग बनारस कहते थे), जो हिंदू तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के लिए प्रमुख स्थल था, और मद्रास, जहां 1798-1804 तक लॉर्ड और लेडी क्लाइव तैनात थे, शामिल थे. दिल्ली में 1803 में ब्रिटिश कब्जे के बाद चित्रकला का बाजार बढ़ा. यहां के शानदार मुगल स्मारक सबसे लोकप्रिय विषय थे, और कलाकारों ने चित्रों के लिए हाथी दांत का उपयोग करके अपनी विशिष्टता दिखाई. इस दौरान कंपनी के कर्मचारियों के घर, नौकर, गाड़ियां, घोड़े और अन्य संपत्तियां भी चित्रों के सामान्य विषय थे. लेडी इम्पे ने कई ऐसे दृश्यों को संरक्षण प्रदान किया.

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शुरुआती चरणों में, कलाकार कुछ प्रमुख संरक्षकों पर निर्भर थे, लेकिन 19वीं शताब्दी की शुरुआत तक, उद्यमी भारतीय कलाकारों ने मानक लोकप्रिय विषयों के सेट बनाना शुरू कर दिया था, जिन्हें प्रमुख पर्यटक स्थलों से गुजरने वाले किसी भी पर्यटक को बेचा जा सकता था. इन सेटों में स्मारक, उत्सव, जातियां, व्यवसाय या भारत की वेशभूषा जैसे विषय शामिल हो सकते थे.

कंपनी पेंटिंग और पटना शैली
इस शैली के प्रसिद्ध कलाकारों में पटना में काम करने वाले सेवक राम और दिल्ली के गुलाम अली खान परिवार के सदस्य शामिल थे. पटना कंपनी चित्रकला का एक प्रमुख केंद्र था, क्योंकि यहां एक महत्वपूर्ण फैक्ट्री और प्रांतीय समिति थी, जिसके कारण कई ब्रिटिश प्रवासी यहां रहते थे. सेवक राम 1790 के दशक में काम की तलाश में पटना आए; 1820 के दशक तक, उनके उत्सवों और समारोहों के बड़े पैमाने के चित्रों को लॉर्ड मिंटो और लॉर्ड एमहर्स्ट जैसे गवर्नर-जनरल ने संग्रहित किया. 

मुर्शिदाबाद स्कूल की बंगाली पट पेटिंग
मुर्शिदाबाद स्कूल की बंगाली पट पेटिंग

मुर्शिदाबाद की संस्कृति इसके ऐतिहासिक महत्व और कलात्मक प्रयासों से बुनी गई एक समृद्ध टेपेस्ट्री है. शहर का प्रसिद्ध मुर्शिदाबाद रेशम हो, हाथी दांत की नक्काशी, पीतल के बर्तन हों या फिर लकड़ी की कलाकृतियां, मुर्शिदाबाद ने हर हुनर को न सिर्फ संरक्षण दिया बल्कि इसमें नए प्रयोग भी किए. 

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मुर्शिदाबाद केवल एक शहर नहीं है; यह इतिहास के पन्नों में दर्ज एक सफर है, हुनर का त्योहार है. ये अतीत की विरासत को मॉडर्न एरा से जोड़ने वाला ब्रिज है और आज ये ब्रिज झुलसा हुआ दिख रहा है. इसकी कालिख मुर्शिदाबाद के चेहरे पर है. 

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