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नरू-बिजुला की वो कहानी जो गढ़वाल के 'रासो गीत' में 500 साल बाद भी जिंदा है

नरू-बिजुला ने कैसे-कैसे जतन और संघर्ष करके यमुनाघाटी की बांद से ब्याह किया और फिर साथ भी रहे, ये कहानी गढ़वाल की गंगा घाटी में चारों ओर बिखरी हुई है. यह गाथा वहां की हवा में ऐसी रमी और रची-बसी है कि लोगों के बीच उनके मन का गीत बन गई और इसे नाम मिला 'रासो गीत' का. वही 'रासो गीत' जो उत्तराखंड की लोक परंपरा वाले गीतों की पहचान हैं.

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वादियों में रची-बसी नरू-बिजुला की प्रेम कहानी, जो रासो में शामिल है और लोक कलाकार इस गाथा का मंचन भी करते हैं
वादियों में रची-बसी नरू-बिजुला की प्रेम कहानी, जो रासो में शामिल है और लोक कलाकार इस गाथा का मंचन भी करते हैं

एक था नरू. एक था बिजुला (बिजोला)... वैसे नाम तो इनके नरेंद्र-बिजेंद्र थे और ये दोनों जब थे तब से आज तक तकरीबन 500 साल तो बीत ही गए होंगे. तब उत्तरकाशी (तब के बाड़ाहाट) में जो महाथौलू (महामेला) लगता था. उसमें दूर-दूर से लोग आते थे. क्या रंगत और रौनक हुआ करती थी इस मेले की. बाड़ाहाट से 70-70 कोस दूर तक से लोगों के रेले चले आ रहे हैं, कोई उनसे पूछे कि  'तुम कख जाणा छन'? (आप सब कहां जा रहे हैं?) तो वो सबके सब एक साथ कहते कि बाड़ाहट क थौलू जाणा छन (बाड़ाहाट के मेले में जा रहे हैं.)

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इसी थौलू में एक दिन नरू-बिजुला की नजर मिली एक खूबसूरत पहाड़ी नथ वाली, बरफ सी सुफैद, रुई के फाहों सी नाजुक बांद (प्यारी लड़की) से. उसके निर्दोष गालों पर झूमती-झूलती पहाड़ी नथ ने नरू-बिजुला को दीवाना बना लिया. गंगा घाटी के दोनों जवान लड़कों को यमुना घाटी की बांद भा गई थी. 

जब प्रेम के राह में रोड़ा बनी पुरानी रंजिश
अब अगर कहीं दिल लगने की बात होगी तो धुआं तो उठेगा ही. आग नरू-बिजुला के सीने में भी थी और बांद के भी, लेकिन धुआं उठ गया गंगाघाटी के तिलोथ और यमुना घाटी के गीठ में. दोनों इलाकों के बीच थी पुरानी रंजिश और रंजिश का आलम ऐसा कि यहां के लोग, तिलोथ वालों के घर बेटी न ब्याहते थे. 

नरू-बिजुला ने कैसे-कैसे जतन और संघर्ष करके यमुनाघाटी की बांद से ब्याह किया और फिर साथ भी रहे, ये कहानी गढ़वाल की गंगा घाटी में चारों ओर बिखरी हुई है. यह गाथा वहां की हवा में ऐसी रमी और रची-बसी है कि लोगों के बीच उनके मन का गीत बन गई और इसे नाम मिला 'रासो गीत' का. वही 'रासो गीत' जो उत्तराखंड की लोक परंपरा वाले गीतों की पहचान हैं. रासो गीतों में नरू-बिजुला के बांद से प्रेम के किस्से छाए हुए हैं और गढ़वाल की गंगा घाटी में लोग खुशी के मौकों पर ये गीत गाते हैं और इस पर झूमते भी हैं. इस गीत की एक बानगी देखिए...

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ज्ञानसू लग्यूं घुंडू भानी रासु नरु-बिजोला 
नर दा बिजु द्विई भाई होला नरु-बिजोला 
कंकव्वी जाण्णा बाड़ाहाटा का थौलु नरु-बिजोला 
तख त ओणि  सौंजडुडियों की बांद नरु-बिजोला 
तुंइन त लुइणी बड़ा नथौला वाली नरु-बिजोला 

इस रासो गीत में यही कहानी गाई गई है. इसमें बताया जा रहा है कि नरू-बिजुला दोनों भाई बाड़ाहाट के मेले में गए. वहां रवांई की बांद को देखा, उससे प्यार हो गया और फिर दोनों वीर भाइयों ने दुश्मनों की परवाह न करते हुए ठान लिया कि पहाड़ी नथ वाली उस बांद को ब्याह कर लाएंगे. युवती मेले से लौट आती है लेकिन नरू-बिजुला उसके ख्यालों में खोए रहते हैं.

रासो गीत

नरू-बिजुला बना लिए गए बंधक
बस इसके बाद नरू-बिजुला ने मेले में जिस लड़की को देखा था उसके बारे में खोजबीन शुरू की और जब उन्हें पता लगा कि वो लड़की रंवाई घाटी की है तो कुछ समय बाद दोनों भाई रवांई के खरसाली के मेले में पहुंचे.

लेखक और स्थानीय लोक साहित्य एंव संस्कृति के जानकार दिनेश रावत बताते हैं कि, यहां मौका तलाश कर दोनों ने उस लड़की से बातकी. जब इसकी भनक लड़की के परिजनों को लगी तो उन्होंने नरू-बिजुला को रातभर के लिए बंधक बना दिया.

लेकिन जब ये बात उस लड़की को पता चली कि बाड़ाहाट के मेले के वो दो लड़के उसके लिए रवांई घाटी आ पहुंचे हैं और उन्हें बंधक बना दिया गया है तो वो दयाभाव से उनकी मदद के लिए पहुंची और उनको वहां से भागने में मदद करती है. नरू-बिजुला उस लड़की को अपने साथ कुठार (अनाज रखने के लिए लकड़ी का विशाल बक्सा) में छिपाकर ले जाते हैं. 

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दो भाइयों ने एक बांद से कैसे किया विवाह?
वैसे बता दें कि इस गीत में बार-बार दो भाइयों का एक लड़की से प्रेम करने और फिर विवाह करने का जिक्र हो रहा है. असल में पुराने समय में उत्तराखंड में पांचाली प्रथा रही है. जौनसार इलाके में तो एक लड़की का कई सगे भाइयों से विवाह करने का रिवाज रहा है. ये सही था या गलत यह दूसरा विषय है, लेकिन अभी के लिए बस इतना जानना चाहिए कि ऐसा होता था और नरू-बिजुला ने दोनों भाइयों ने एक ही बांद से विवाह किया. 

जब तीनों के वहां न होने का पता चला तो अगले दिन इस घटना से यमुना घाटी में लोगों में गुस्सा पनप उठा. रंवाल्टे (रवांई के लोग) अपने हथियार-औजार लेकर जंगल के रास्ते गंगा घाटी के ज्ञानसू पहुंच गए. भागीरथी नदी के उस पार तिलोथ गांव में रवांई की बांद को लाने का जश्न मनाया जा रहा था. 

'लेईगाली त्यूंन बांद मा कि बांद नरू-बिजुला,
लेई गाली त्यूंन चांद मा कि चांद नरू-बिजुला'
(नरू-बिजुला बांदों की बांद, और चांदों की चांद लड़की लेकर आ गए हैं). 

तिलोथ में जश्न था तो नदी के उस पार ज्ञानसू पहुंचे रवांई के लोगों में आक्रोश था, जिसके बाद वे तिलोथ वालों को आतंकित करने के लिए हाथों में हथियार लहराते हुए ढोल-बाजों के साथ नृत्य करने लगते हैं. 

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'तब चली बल गीठ की खटीक नरू-बिजुला,
ज्ञानसू लगी घुंडू भानी रासो नरू-बिजुला'  
(युमना घाटी के गीठ के लोगों का ज्ञानसू में रासो लगा) 

नरू-बिजुला को इसका पता लग गया. इन सारी योजनाओं को जानने के बाद सबसे पहले उन्होंने अपने सभी गांववासियों व अपनी प्रेमिका को रात के अंधेरे में ही चुपचाप सिल्याणा गांव की ओर रवाना कर दिया. इसके बाद यमुना घाटी के लोगों को रोकने के लिए भागीरथी नदी पर बने पुल की रस्सियां काट दीं. इससे यमुना घाटी के गुस्साए लोग इधर नहीं आ सके, लेकिन रंवाल्टों ने पुल को बचा लिया. 

खून से लाल हो गई इंद्रावती नदी
फिर छिड़ा भीषण युद्ध कहते हैं कि पास ही बहने वाली इंद्रावती नदी का पानी भी लाल हो गया. इसी कारण गीठ के कई लोग इंद्रावती नदी का पानी नहीं पीते. यमुना घाटी के लोग इसके बाद तिलोथ गांव पहुंचे जहां उन्हें न नरू-बिजोला मिले और न मिली वो बांद... इस पर गुस्साए लोग उनके घर से कोठार, भांडे-बर्तन उठा लाए जिसे उनकी विजय के प्रतीक के रूप में देखा जाता है. 

रासो नृत्य

आज भी मौजूद है नरू-बिजुला का घर
इसके बाद नरू-बिजुला बांद को अपने गांव तिलोथ लाते हैं और फिर शांति से भरा जीवन जीते हैं. जिस लकड़ी के प्यारे से घर में उनका परिवार पला और पीढ़ियां बड़ी हुईं वह इमारत आज भी तिलोथ गांव में उनके प्यार की निशानी की तरह खड़ी है. यह इमारत ऐसी अविचल है कि साल 1991 का विनाशकारी भूकंप भी इसका कुछ नहीं बिगाड़ सका. 

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क्या है रासो और रासो गीत
लेखक और स्थानीय लोक साहित्य एंव संस्कृति के जानकार दिनेश रावत बताते हैं कि, नरू-बिजोला (बिजुला) की कहानी रासो गीतों के जरिए गढ़वाल की संस्कृति में जिंदा है. इसकी कहानी कहे जानी की शैली ही असल में इस लोकगीत परंपरा की जान है. रासो गीत वीरता, प्रेम और बलिदान की भावनाओं से लबरेज होते हैं और सामाजिक घटनाओं से इनके रचे-बुने जाने की प्रेरणा मिलती है. "रासो" शब्द संस्कृत के "रस" से निकला है. इसका अर्थ है भावनाओं का रस या आनंद. गढ़वाली रासो गीत आमतौर पर लंबे कथानक वाले होते हैं, जो किसी नायक, नायिका, या ऐतिहासिक घटना के इर्द-गिर्द बुने जाते हैं. इन गीतों में गढ़वाली भाषा की मिठास और स्थानीय बोली की जीवंतता स्पष्ट झलकती है.

रासो गीतों का प्रदर्शन अक्सर समुदाय के सामूहिक समारोहों, जैसे मेलों, त्योहारों, विवाह, या धार्मिक अवसरों पर किया जाता है. इन्हें गाने वाले कलाकार, जिन्हें स्थानीय रूप से "जागरी" या "बाजगी" कहा जाता है, ढोल, नगाड़ा, और हारमोनियम जैसे पारंपरिक वाद्य यंत्रों का उपयोग करते हैं. इन गीतों में कथानक को गायन और नृत्य के माध्यम से जीवंत किया जाता है, जिससे श्रोता भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं.

नरू-बिजुला की कहानी का नाट्य मंचन करते लोक कलाकार
नरू-बिजुला की कहानी का नाट्य मंचन करते लोक कलाकार

पुरुष लगाते थे रासो, अब महिलाएं भी होती हैं नृत्य में शामिल
दिनेश रावत कहते हैं कि उत्तरकाशी जनपद के भवाई–जौनपुर क्षेत्र में इस नृत्य को पुरुष–स्त्री दोनों मिलकर करते हैं. ढोल–नगाड़े के साथ लोग नाचते हैं. खास तौर पर रासो माघ संक्रांति और विषुवत संक्रांति को किया जाता है. मण्डण (गोल घेरा) लगता है और पुरुष नाचते हैं. इसमें ओजी जागर लगाते हैं और पुरुष लोग गोल घेरे में नाचते हैं. दीपावली के मौके पर रवांई–जौनसार क्षेत्र में विशेष रूप से मण्डण का आयोजन होता है. रासो नृत्य मुख्यतः पुरुषों के द्वारा ही किया जाता रहा है पर अब महिलाएं भी इसमें भाग लेती हैं. इसमें गीत और इसके संगीत को अधिक खूबसूरत बनाने के लिए कई लोकवाद्यों का प्रयोग भी किया जाता है.

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रासो पर आधारित और नरू-बिजुला की कहानी को कई लोकनाटकों में भी देखा जा सकता है. नाट्य विधा के कलाकारों ने नरू-बिजुला की कहानी का मंचन राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर किया है. रासो सिर्फ पहाड़ का गीत नहीं है, यह ऊबड़-खाबड़ और ऊंची चोटी-गहरी घाटियों की पहचान है. उनकी आवाज है और लोकगीतों में उनके भावों की गूंज है.

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