scorecardresearch
 

जब अहंकार की ‘अग्नि’ से टकराई प्रेम की ‘बरखा’... श्रीराम सेंटर में मंच पर उतरा इंसानी सोचों का महासंग्राम

श्रीराम सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स की ओर से आयोजित चार दिवसीय शीला भरत राम नाट्य महोत्सव का आखिरी और चौथा दिन महान नाट्य कृति अग्नि और बरखा के नाम रहा. रविवार की शाम जो दर्शक सभागार में बैठे थे, लगभग तीन घंटे बाद जब वह बाहर निकले तो तमाम खामोशियों के बीच उनके पास कहने के लिए सिर्फ कुछ शब्द थे. बहुत खूबसूरत, Mind-blowing, क्या प्ले था, Amazing...

Advertisement
X
श्रीराम सेंटर में नाटक अग्नि और वर्षा का मंचन. विशाखा के किरदार में अनुश्री जैन
श्रीराम सेंटर में नाटक अग्नि और वर्षा का मंचन. विशाखा के किरदार में अनुश्री जैन

पर्दा उठता है. एक हल्की रोशनी मंच पर पड़ती है. अग्नि की ज्वाला भड़कती दिखाई देती है तो कई होता ऋषि मंत्रोच्चारण करना शुरू कर देते हैं. यह ज्वाला एक यज्ञ की है. यज्ञ बीते सात वर्षों से हो रहा है और अब अपने अंतिम चरण में है और शायद अगले एक महीने में ही इसकी पूर्णाहुति होने वाली है. यही प्रथम दृश्य है और नाटक की शुरुआत इसी से होती है. 

Advertisement

क्या कहता है नाटक का प्रथम दृश्य?
अब सवाल उठता है कि यज्ञ क्यों हो रहा है? इतने वर्षों से क्यों चल रहा है और ये कौन लोग हैं? दर्शकों में मन में ये प्रश्न आने से पहले ही अगले कुछ संवाद जवाब परोस देते हैं. एक राज्य जो वर्षों से अकाल और दुर्भिक्ष झेल रहा है, जिसकी न जाने कितनी प्रजा मारी गई है और न जाने कितने ही पलायन कर गए हैं. राज्य जो जातियों में बंटा है. ब्राह्मणों. निषादों, वन्य कोल-भील की प्रजातियों और नटों की भी जाति के लोग जिसमें शामिल हैं और जिनमें उच्च कुल और नीच खानदान वाली भावनाएं प्रबल हैं. जहां ब्राह्मण श्लोक गान करें तो वह यज्ञ के मंत्र और नट कोई गीत गाएं तो वह निम्न जाति के लोग. यही इस पहले सीन के मायने हैं, उसका अर्थ है और इसका मर्म भी है. यज्ञ से देवताओं के राजा इंद्र प्रसन्न होंगे और वह वर्षा करेंगे. बस इसी कामना से यह यज्ञ सात सालों से हो रहा है.  

Advertisement

अभिनेता और नाटककार गिरीश कर्नाड ने लिखा था अग्नि और वर्षा नाटक
अभिनेता होने के अलावा गिरीश कर्नाड कितने बेहतरीन लेखक थे, उनकी सोच की गहराई की थाह उनकी नाट्य कृतियों से नापी जा सकती है. इंसानी संवेदनाओं और मानव की समेटी न जा सकने वाली बहुत सी इच्छाओं का नैतिकता के साथ एक ही शरीर, मन, मस्तिष्क और बुद्धि के भीतर कैसा-कैसा युद्ध होता है? गिरीश कर्नाड की रचनाएं इसकी जीवंत बानगी हैं. इसे समझना हो तो उनके लिखे कई नाटक पढ़े जा सकते हैं, मसलन- तुगलक, हयवदन, ययाति, बलि, नागमंडल, टीपू सुल्तान के ख्वाब, उनकी रचनाओं की भीड़ में ऐसे कई नाम हैं और इन्हीं में से एक नाम है अग्नि और बरखा.

Agn Aur Varsha

शीला भरत राम थिएटर फेस्टिवल के समापन में हुआ नाट्य मंचन
श्रीराम सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स की ओर से आयोजित चार दिवसीय शीला भरत राम नाट्य महोत्सव का आखिरी और चौथा दिन इसी महान नाट्य कृति अग्नि और बरखा के नाम रहा. रविवार की शाम जो दर्शक सभागार में बैठे थे, लगभग तीन घंटे बाद जब वह हल्की नीली रोशनी के बीच अपनी कुर्सियां छोड़कर बाहर निकले तो तमाम खामोशियों के बीच उनके पास कहने के लिए सिर्फ कुछ शब्द थे. बहुत खूबसूरत, Mind-blowing, क्या प्ले था, Amazing...

Advertisement

ऐसा इसलिए, क्योंकि एक तीन घंटे के नाटक ने इस एक बात को बहुत आसानी से समझाने की कोशिश की थी, देवता और राक्षस हमारे भीतर की ही उपज हैं. वह हमारे ही मस्तिष्क में उमड़-घुमड़ करते रहते हैं. इन देवताओं और राक्षसों को अलग-अलग जातियों से भी कोई मतलब नहीं होता. एक ब्राह्मण के भीतर भी राक्षस हो सकता है और एक गड़ेरिये की भीतर देवता रह सकता है. देवता और राक्षसों की खुद भी की कोई जाति नहीं होती है.

हम जब सिर्फ अपने स्वार्थ और अहंकार (ईगो) को पूरा करने में लग जाते हैं तो हम ही राक्षस बन जाते हैं और जब हम अपने अलावा आसपास को भी देखकर उनके लिए भी जीने की कोशिश करते हैं तो देवता बन जाते हैं.  

महाभारत में वर्णित कथा से निकलता है नाटक का कथानक
कर्नाड के लेखन में इतना विस्तारित आयाम है कि वह अपने नाटक के विषय के तौर पर महाभारत के वनपर्व में शामिल एक कथा को आधार बनते हैं, लेकिन उसे चमत्कार, वरदान और दैवीय कार्यकलापों से दूर रखते हुए इतना सरल और मानवीय बनाते हैं कि जिससे पुराण कथाओं को एक नए संदर्भ में देखने का नजरिया पैदा होता है.  साथ ही हम उस सच से रूबरू होते हैं जो इंसान का सच है. हम सवाल पूछते हैं खुद से कि ये तपस्या, कर्मकांड, तमाम विधियां मनुष्य को दुख देकर क्यों पूरी होती हैं. ये कौन से नियम हैं जो मनुष्य को मनुष्यता से दूर कर देते हैं. अगर इन्हीं नियमों से कल्याण होना है तो फिर देवता और राक्षस कहां अलग हुए?

Advertisement

इन सारे सवालों को मंच पर नाटक के किरदार अपने-अपने संवादों के जरिए इतनी तेज आवाज में कर रहे होते हैं कि कानों में तालियों की गड़गड़ाहट नहीं सवालों की चोट ही गूंजती है. श्रीराम सेंटर के कलाकारों का मंचन देखते ही बनता है, वह मंत्रोच्चार की अभिमंत्रित ध्वनि के साथ दर्शकों समेत समूचे सभागार को पांच हजार साल या शायद उससे भी पीछे कहीं किसी वैदिक युग में ले जाते हैं. जहां वर्षा की अभिलाषा के लिए इंद्र प्रसन्ना यज्ञ चल रहा है.

कहानी सूखे, बारिश के लिए होने वाले यज्ञ, व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता और भावनात्मक उथल-पुथल में फंसे लोगों के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है. सूखा न केवल भूमि पर असर डालता है, बल्कि सुखा देता है वह मन के भावों को भी, आंसुओं को भी और प्रेम पनपने वाले हृदयों को भी. नाटक के पात्र अपने आंतरिक तूफानों से भी जूझते हैं.

Agn Aur Varsha

क्या है नाटक का कथानक और उसकी कहानी?
नाटक का मुख्य केंद्र परवसु है, जो राजा की ओर से कराए जा रहे यज्ञ का प्रमुख पुरोहित है और बारिश लाने के लिए अग्नि अनुष्ठान का नेतृत्व कर रहा है. उसका छोटा भाई अर्वसु नवकिशोर है, 16 या 18 साल का वह चपल-चंचल किशोर नाटक का प्राण है. वह एक अभिनेता है, जो प्रेम और स्वतंत्रता की तलाश में है. वह जीवन के तमाम झंझावातों से अलग अपनी सखी, प्रेमिका नित्तिलयी के साथ खेलता है, दौड़ता-भागता है और दोनों उस घोर सूखे काल में भी कहीं प्रेम को हरा-भरा कर रहे हैं. 

Advertisement

वैदिक युग का प्रसंग लेकिन आज भी प्रासंगिक
अन्य महत्वपूर्ण पात्रों में यवक्री है जो परवसु का चचेरा भाई है. वह वेदपाठी न हो सका तो उसने जल्दी ज्ञान पाने के लिए तप का सहारा लिया. इंद्र आए भी लेकिन ज्ञान वरदान में नहीं दिया जा सकता. वह तो सीखने और अनुभव की बात है, लेकिन यवक्री सिर्फ किसी भी तरह खुद के श्रेष्ठ विद्वान साबित करना चाहता है. पात्रों की भावनाओं का आपसी संबंध उनके जरिए ही संसार में बिखरे पड़े तमाम दुखों का प्रतीक बनता है. मिथक और मानवीय संघर्ष का यह मिश्रण ही अग्नि और बरखा को आज के लिए भी प्रासंगिक बना देता है, भले ही इसका कथानक वैदिक युग का ही क्यों न हो. 

यह भी पढ़िएः दास्तान-ए-डाकू सुल्ताना... नौटंकी के जरिए बिखरा लोककला का रंग, श्रीराम सेंटर के कलाकारों ने किया जीवंत अभिनय

सवालों की जीवित मूर्ति है विशाखाः अनुश्री
पात्रों ने अपने-अपने किरदारों को भरपूर जिया. विशाखा के रूप में अनुश्री जैन महिला सशक्तिकरण की प्रतीक लगती हैं. उनकी मुखर आवाज, पति-प्रेमी और श्वसुर से किए तीखे प्रश्न मंच पर उनकी मौजूदगी बड़ी मजबूती से दिखाते हैं. वह कहती हैं कि विशाखा का किरदार इसलिए इतना सशक्त गढ़ा गया है क्योंकि वह मेल ईगो को चुनौती दे रही है. वह उन स्त्रियों की मुखर आवाज है, जिनकी कहीं नहीं सुनी जाती है. न शादी में न प्रेम में, बल्कि पति भी अपने किसी काम से उससे दूर जाना है तो उसे सिर्फ निर्णय सुना दिया जाता है, पूछा नहीं जाता. विशाखा के भीतर इन्हीं सारी बातों को लेकर दर्द है.

Advertisement

वह जिस प्रेमी से प्रेम करती है,  वह सिर्फ किसी और से श्रेष्ठता साबित करने के चक्कर में तपस्या के लिए चला जाता है और 10 साल बाद लौटता है. इन 10 वर्षों में विशाखा की शादी बिना उसकी मर्जी के परवसु से करा दी जाती है, लेकिन विवाह के अगले ही साल वह भी सात सालों के यज्ञ अनुष्ठान के लिए चले जाते हैं. विशाखा की यही विंडबना है. प्रेमी इंद्र की तपस्या के लिए चला गया, पति इंद्र के प्रसन्ना यज्ञ के लिए निकल पड़े. वह अकेली क्या करे? इसलिए बीच मंच पर आकर विशाखा जोर से आवाज लगाकर इंद्र को ही धिक्कारती है. इंद्र की वजह से उसका जीवन रिक्त है. अनुश्री कहती हैं कि इस किरदार में बहुत से शेड हैं. वह दुखी है, गुस्से में है. प्रेम भी करती है, उसमें तड़प भी है. इन भावों को मंच पर उभारने का काम प्रैक्टिस और रिहर्सल से ही हो सकता था और बार-बार के इस अभ्यास ने मुझे विशाखा के असल भाव के करीब पहुंचाया.

Agn Aur Varsha

सहज, भोला, निश्छल और स्वच्छंद है अर्वसु का किरदारः प्रणव श्रीवास्तव
नाटक के प्राण अर्वसु का किरदार निभाया है प्रणव श्रीवास्तव ने. असल में नाटक की कथा गाहे-बगाहे उनके ही इर्द-गिर्द है. ब्राह्मण होते हुए भी अर्वसु निषाद कन्या से प्रेम करता है. इस संबंध में जाति बंधन आड़े आता है. निषाद पंचायत बुलाते हैं और इस पंचायत में अर्वसु को अपनी नित्यलई का हाथ मांगना है. दोनों इस बारे में योजना बना ही रहे होते हैं कि कई दुर्घटनाएं एक साथ घट जाती हैं. अर्वसु के किरदार को जीने के लिए प्रणव की सहजता बहुत काम आती है.

Advertisement

इसके पहले भी वह नाटकों में कॉमिक किरदारों में अपना रंग भरते रहे हैं, लेकिन प्रणव का ये किरदार कॉमिक नहीं है, बल्कि सहज, भोला, निश्छल और स्वच्छंद है. बहुत प्राकृतिक ढंग का है. वह छल-छद्म की भाषा नहीं जानता है. वह है तो 18 साल का, लेकिन अभी भी किसी 12-14 साल के लड़कों की तरह ही सोचता है. प्रणव मंच के एक कोने से आखिरी कोने तक कुलांचे भरते हुए इस किरदार को खूब जीते हैं. असल में नाटक में तालियां उनके ही हिस्से में आई हैं, क्योंकि बाकी अन्य दृश्य तो स्तब्ध कर जाते हैं, जहां कई बार दर्शकों यह नहीं सूझता का कि यहां तालियां बजाएं य न बजाएं. इस स्तब्धता में नाटक का म्यूजिक और लाइटिंग भी अहम भूमिका निभाते चलते हैं.
 
Agni Aur Varsha

नित्तलई के किरदार ने मोहा मन
संगीत की बात हो रही है पूरे नाटक को संगीतमय कर दिया है, नित्तिलयी के किरदार ने. उसका खिलना, खिलखिलाना, हंसना-बोलना. वह पूरे प्रदर्शन में एक चहकती चिड़िया सी है. इस किरदार को निभाने वाली प्रिया कहती हैं कि मुझे नित्तिलयी का किरदार बहुत पसंद है और मेरे अपने जैसा लगता है. वह कहती हैं कि नित्तिलयी को जब मैंने पढ़ा तो इसके चरित्र को समझकर एक बात समझ आई कि यह वैदिक जमाने की बिंदास छवि वाली लड़की है. इसमें छल-कपट भी नहीं है और यह परंपरा वगैरह को भी साथ लेकर चलती है. अर्वसु के साथ उसका रिश्ता सिर्फ प्रेम का नहीं है, थोड़ा-थोड़ा ममता का भी है. इसलिए वह खुद से ज्यादा उसका ध्यान रखती है. निषाद होने के कारण वह उम्र से ज्यादा मैच्योर है और कई जगहों पर समझदारी भरे स्टेप लेती है, लेकिन दुख है कि अर्वसु नहीं समझ पाता है, लेकिन वह उसकी हर संभव मदद करती है, बल्कि मदद तो वह सबकी ही करती है.

इसलिए नाटक के क्लाईमैक्स में जब इंद्र प्रकट होते हैं और वह अर्वसु से वरदान मांगने को कहते हैं तभी ब्रह्मराक्षस आकर उससे अपनी मुक्ति वरदान में मांगने को कहता है. अर्वसु पहले तो मना करता है, लेकिन राक्षस कहता है कि सोचो अगर नित्तिलयी जिंदा होती तो क्या मांगती. यह सुनकर ही अर्वसु इंद्र से राक्षस की मुक्ति मांग लेता है. यही नाटक का ध्येय है, उद्देश्य है और यहीं नित्तिलयी के विचारों के जरिए मनुष्यता के बड़े होने का संदेश दिया गया है. 

 

Agn Aur Varsha

मंचन में कौन-कौन से किरदार
ब्रह्मराक्षस की भूमिका में भानु प्रताप सिंह राजपूत दिखाई दिए. चार दिन के महोत्सव में भानु ने हर बार अलग-अलग किरदारों को मंच पर जीवंत किया और उन्हें पहचान दी. यह कला के कैनवस पर उनके अभिनय आयाम को बड़ा विस्तार देता है. प्रणव श्रीवास्तव भी कई महत्वपूर्ण भूमिकाओं से होते हुए अर्वसु जैसी भूमिका की कठिन परीक्षा से गुजरते हैं और नाटक के बाद दर्शकों से मिली दाद उनकी सफलता का बयान है. अनुश्री जैन तुगलक नाटक में मोहम्मद बिन तुगलक के किरदार की सौतेली मां बनी थीं, लेकिन विशाखा का किरदार उन्हें अभिनय की गहराई को जीने और समझने का मौका देता है.

यह भी पढ़ेंः पागलपन, फरेब और सत्ता का खेल… श्रीराम सेंटर में जिंदा हुआ 'तुगलक', मंच पर उतरी एक सनकी की त्रासदी

मंचन में और भी जो किरदार रहे, उन्होंने अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया. शशांक जमलोकी परवासु के रूप में दर्शकों के सामने आए. दीपक भट्ट ने यवक्री का चरित्र निभाकर उसे गहराई दी, और उमेश राय ने कर्तानट के रूप में मंच पर अपनी छाप छोड़ी. नवीन ने ऋषि रैभ्य की भूमिका को सशक्त रूप में प्रस्तुत किया, तो अभिषेक कांबोज अंधक के रूप में प्रभावी रहे. नीलम ने निषाद कन्या की भूमिका को संजीदगी से निभाया, वहीं अभिषेक राजपूत ने नित्तिलाई के भाई का किरदार निभाया. स्पर्श पटेल राजा की भूमिका में मंच पर दिखाई दिए पुरोहितों की भूमिकाओं में रजत, अरुण, राहुल, अनुराग, सावन और विपुल ने मिलकर एक संगठित और प्रभावशाली प्रस्तुति दी. समूचे नाटक ने दर्शकों पर गहरा प्रभाव छोड़ा और सभी पात्रों ने अपने अभिनय से कहानी को सजीव बना दिया. 

नाटक के अंत में इंद्र प्रसन्न होते हैं. वह अर्वसु के कहने पर कालचक्र पीछे घुमा सकते थे, लेकिन आखिरकार अर्वसु ब्रह्मराक्षस की मुक्ति मांगता है. इंद्र उसकी निश्छलता पर प्रसन्न होते हैं. अंततः वर्षा होती है. राज्य में आनंद आता है. अर्वसु नित्तिलाई की मृत देह को शरीर से चिपकाए वर्षा में भीगता है. अहंकार की अग्रि बुझ जाती है. सुख की वर्षा से मन भीगते हैं. मानवता जीत जाती है. पर्दा गिरता है...

Live TV

Advertisement
Advertisement