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पागलपन, फरेब और सत्ता का खेल… श्रीराम सेंटर में जिंदा हुआ 'तुगलक', मंच पर उतरी एक सनकी की त्रासदी

तुगलक नाटक में तुगलक को दुनिया बदलने की दीवानगी से ग्रसित एक ऐसे नायक/ प्रतिनायक के तौर पर प्रस्तुत किया गया है जो महज अपने स्वार्थ के लिए किसी भी बचकानी हरकत के प्रति कोई हिचक नहीं रखता. सुल्तान होने के नाते वह चाटुकारों और जीहुज़ूरी करने वालों से घिरा हुआ है. वह उसे भ्रमित करके रखे हुए हैं. वह असलियत से कोसों दूर अपने ही ख्वाब की मस्ती में है.

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मंडी हाउस के श्रीराम सेंटर में तुगलक नाटक का मंचन करते कलाकार
मंडी हाउस के श्रीराम सेंटर में तुगलक नाटक का मंचन करते कलाकार

मशहूर शायर हबीब जालिब की बड़ी पसंद की जाने वाली गजल में उन्होंने दो बहुत खूबसूरत शेर पढ़े हैं...

तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहां तख़्त-नशीं था
उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था

कोई ठहरा हो जो लोगों के मुक़ाबिल तो बताओ
वो कहाँ हैं कि जिन्हें नाज़ बहुत अपने तईं था

श्रीराम सेंटर के मंच पर लगभग ढाई घंटे तक बिना पलकें गिराएं 'तुगलक' नाटक को देखते हुए ये दोनों शेर यूं ही जेहन में तैर गए. तैर इसलिए गए क्योंकि लगभग 13 फीट ऊंचे तख्त पर तख्तनशीं 'मुहम्मद बिन तुगलक' की हंसी, उसका उपहास, उसका बहक जाना, बेचैन दिखना और बेचैनी में ऊल-जलूल हरकतें करना, उसका खालिस सनकपन फिर अपने फैसलों पर अमल कराने के लिए पागलपन की हद तक  पहुंच जाना सोचने को मजबूर कर देते हैं. 

ये सबकुछ इस बात की ओर इशारा करते थे कि तुगलक वंश के वारिस के तौर पर दिल्ली सल्तनत के तख्त पर तख्तनशीं हुआ मुहम्मद बिन तुगलक खुद में 'रियाया का खुदा' बनने का सपना पाले बैठा था. फिर इसकी पूर्ति के लिए कितनी बदन लाशों में तब्दील करने पड़ जाएं, इस पर कोई सवाल न हो. मुल्क को अपनी ही निगाहों के मुताबिक खूबसूरत बनाने का इरादा लिए तुगलक कब अपने ही मुल्क का दुश्मन समझा जाने लगा उसे पता भी नहीं चला और जब तक पता चलता तबतक काफी देर हो चुकी थी. 

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वही हुआ जो गालिब ने लिखा है... 'खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक'

रंगमंच की प्रसिद्ध हस्ती और सिनेमा के कैनवस को भी अपनी कला व अभिनय से रंगीन बनाने वाले गिरीश कर्नाड ने साल 1964 में तुगलक नाटक मूलतः कन्नड़ में लिखा था. 13 दृश्यों के इस नाटक का मंचन सबसे पहले 1965 में हुआ और नाटक की विषय वस्तु का विस्तार इतना विशाल था कि कई भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है. कई निर्देशकों और कलाकारों के हाथों होते हुए मौजूदा तुगलक नाटक को निर्देशक के माधव ने अपनी विधा में मंच पर उतारा और श्रीराम सेंटर के सुधी कलाकारों ने उनके दिशा-निर्देशन में इस ऐतिहासिक तथ्य से भरे दस्तावेज का नाट्य रूपांतरण सामने रखा. नाटक के केंद्रीय पात्र 'तुगलक' को किसी जमाने में अभिनेता कबीर बेदी भी निभा चुके हैं. 
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श्रीराम सेंटर में शीला भरत राम थिएटर फेस्टिवल
श्रीराम सेंटर की ओर से 'शीला भरत राम थिएटर फेस्टिवल' के दौरान गुरुवार को जब इसकी पहली प्रस्तुति दी गई तो मंच से एक बार फिर 'तुगलक' के दीदार हुए. मोहम्मद बिन तुगलक के किरदार के जरिए अभिनेता अयाज खान ने मध्यकालीन इतिहास के एक दौर को जिंदा किया. हिंदुस्तानी जुबान में की गई संवाद अदायगी, आंखों की पुतलियों तक से अभिनय करने की ताकत और उनकी तुगलकी चाल का कोई सानी नहीं. वह जब दोनों बाहें फैलाए मस्त अंदाज में सीढ़ियों से चढ़ते हुए तख्त पर पहुंचते और फिर पटका लहराते हुए तेज कदमों से नीचे उतरते तो मंच, मंच नहीं उस जमाने का 'तुगलकाबाद' नजर आता.

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एक्टर अयाज खान ने तुगलक के किरदार में बांधा समां
इस किरदार को निभाते हुए आप तुगलक के बारे में क्या सोचते हैं? अयाज खान कहते हैं कि तुगलक एक ऐतिहासिक पात्र है पर आज तक प्रासंगिक है. इसे सिर्फ सत्ता की रेप्लिका के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि हम सब अपनी-अपनी जिंदगी में कहीं न कहीं 'तुगलकीपन' अपनाते हैं. जब हम ये सोचते हैं कि जो हम सोच रहे हैं और वही सोच अच्छी है और किसी और की सोच में इसकी काट नहीं है तो यकीन कीजिए कि यही 'तुगलकी मिजाज' है. 

तुगलक अपनी सोच में अच्छा है, लेकिन उस सोच को अमल कराने में बुरा है तो कह सकते हैं कि तुगलक अच्छा और बुरा है, लेकिन उसके चाल-चलन-चरित्र में 'ग्रे शेड' नजर नहीं आता है. उसने मान लिया कि दिल्ली से दौलताबाद जाना सही फैसला है तो मान लिया कि सही है. फिर कोई कुछ भी कहे, तुगलक को किसी की राय से फर्क नहीं पड़ता. 

'असल में तुगलकों को किसी की राय से कोई फर्क नहीं पड़ता.' 

दो किरदार जिन्होंने चुराया दर्शकों का दिल
ये तो रही तुगलक की बात, लेकिन मंचन के दौरान दो किरदार ऐसे थे, जिन्होंने पूरे ढाई घंटे न सिर्फ मंच की रौनक बढ़ाई बल्कि दर्शकों का दिल भी चुराया. ये किरदार थे दो फरेबियों के. इनके जिस्म में लहू नहीं फरेब बहता था. ये सांस लेते तो किसी का हक मारकर और चैन से सोते तो ईमान बेचकर. ये दो किरदार रहे अजीज और आजम के. अजीज के किरदार में दिखे भानु राजपूत और अजाम के किरदार में दिल जीता प्रणव श्रीवास्तव ने.

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होता ये है कि तुगलक चाहता है कि लोग उसे दिलदार मानें, सहिष्णु समझें. हिंदू और मुसलमान दोनों उसे अपना झंडाबरदार समझें. इस दिखावे के लिए वह एक ब्राह्मण की कब्जाई जमीन को वापस कर देता है. अजीज, जो एक धोबी है, जब वो इस ऐलान को सुनता है तो उस ब्राह्मण से उसकी जमीन हासिल कर लेता है और फिर ब्राह्मण का वेश बनाकर तुगलक के दरबार में पहुंच जाता है.

भानु राजपूत जब इस किरादर को लेकर आते हैं तो वह तुगलकी माहौल में हंसी की फुहारें ले आते हैं. वह बताते हैं कि मैंने जब नाटक में इस किरदार को पढ़ा तो लगा कि यह किरदार इतना रंगीन है कि शुरू से अंत तक छाया रहता हैं. जहां एक से बढ़कर एक कैरेक्टर अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं अजीज न सिर्फ जिंदा रहता है, बल्कि हर चाल में सफल रहता है. अजीज पैरलल कैरेक्टर है, जिस पर तुगलक से भी ज्यादा नजर रहेगी.

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दर्शक उसके सीन में आने का इंतजार करते हैं. भानु यह भी कहते हैं कि तुगलक भले ही ऐतिहासिक किरदार है लेकिन उसकी मौजूदगी हर सदी में है. हर वक्त की सियासत में है और सिर्फ सियासत में ही क्यों हमारे बीच में ही मौजूद है. आप सिर्फ इसे एक बादशाह या राजा की तानाशाही मत समझिए, इसे ऐसे समझिए ऐसी सनकमिजाजी से हम रोजमर्रा में दो-चार होते ही हैं.

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नाटक की जान है 'आजम' का किरदार
अजीज के दिली दोस्त बने आजम (प्रणव श्रीवास्तव) को भी नाटक की जान ही समझना चाहिए. वह पहले ही दृश्य में एक चोर-उठाइगीरे की भूमिका में मंच पर मौजूद रहते हैं और भीड़ जब तुगलकी फरमानों पर चर्चा कर रही होती है तो वह बड़ी सफाई से लोगों की जेबें साफ कर रहे होते हैं. आवाज में तुतलाहट और मजाकिया भाव-भंगिमाएं उनके किरदार की खूबी हैं और कई दफा ऐसे मौके भी आते हैं जहां अजीज और आजम की जोड़ी पेट पकड़ कर हंसने पर मजबूर करती है. 

प्रणव बताते हैं कि निजी जिंदगी में वह थोड़े गंभीर और हल्के-फुल्के मजाक पसंद हैं, लेकिन आजम का किरदार उनके निजता से बिल्कुल परे है और तोतला तो बिल्कुल नहीं है. बल्कि मूल लेखक गिरीश कर्नाड ने भी आजम के कैरेक्टर में ऐसी कोई खूबी नहीं रची है, लेकिन उनकी प्रस्तुति में आजम को अलग रंग-ढंग दिया गया है जो गंभीर विषय के नाटक में हास्य के गुल खिला रहा है.
     
अपनी मजबूत सहायक कास्ट के साथ, यह ढाई घंटे का नाटक दर्शकों को 14वीं सदी के भारत में ले गया और यह दर्शाया कि सुल्तान के दिल्ली से दौलताबाद तक राजधानी ट्रांसफर करने और कुछ वर्षों बाद वापस लौटने के निर्णय ने रियाया (प्रजा) को कैसे प्रभावित किया. इसके अलावा, उन्होंने एक नई मुद्रा नीति लागू करने का प्रयास किया, जिसमें उन्होंने तांबे और पीतल के सिक्कों को पेश किया, जिन्हें सोने और चांदी सिक्कों से बदला जा सकता था.

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इससे राज्य और गरीब हो गया और लोग सुल्तान की दया पर निर्भर हो गए. नाटक का एक मुख्य आकर्षण था प्रॉप्स का प्रभावी उपयोग और मंच सज्जा. सुल्तान का सिंहासन केवल एक विशाल, स्थिर फर्नीचर का टुकड़ा नहीं था, बल्कि पूरे नाटक में इसकी धीरे-धीरे एक दिशा से दूसरी दिशा में गति राजधानी के बदलाव और सुल्तान के मूड और नीतिगत उतार-चढ़ाव के सिंबल के तौर पर सामने आता है. 

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न कोई संवाद न कोई अभिनय... किरदार जिन्होंने बटोरीं तालियां
अपने पागल राजा के अत्याचारों को सहन करने वाली असहाय रियाया को व्हाइट बॉडी कास्ट के जरिए दिखाया गया, जिनके शरीर सफेद रंग से रंगे थे और मंच पर मूर्तियों जैसे स्थिर मुद्राओं में खड़े थे, कोई बैठे थे और तो कोई मृत शरीरों की तरह पड़े थे. दर्शकों ने नाटक के अंत में इन बॉडी कास्ट की बहुत-बहुत सराहना की. एक किरदार जो तख्त पर सबसे ऊपर बिल्कुल मूर्तिवत बैठा हुआ था, जब वह नाटक के अंत में नीचे उतर कर खड़ा हुआ तब अधिकांश लोगों ने जाना कि वह कोई मूर्ति नहीं बल्कि जीती-जागती देह था. सिर्फ एक स्थिति मैं ढाई घंटे बैठे रहकर उसने दर्शकों की प्रशंसा हासिल की.

पूरी कास्ट ने हिंदी- उर्दू मिश्रित संवादों में अपने-अपने हिस्से बहुत करीने से पढ़े. अयाज़ खान का 'पागलपन' तो देखते बनता था, एक दृश्य में जब वह लगातार पागल होकर नगाड़े बजाते रहे तो दर्शकों की तालियों से हॉल गूंज उठा. उनका आंतरिक द्वंद्व नाटक की इन पंक्तियों से खूबसूरती से उभरकर सामने आया: “खुदा की अज़मत, रियाया की भलाई का ख्वाब, और ज़ाती ख्वाहिशें – जब तीनों में कशमकश हो रही हो तो मुझे सोने का वक्त कहां है…”

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इस नाटक में तुगलक को दुनिया बदलने की दीवानगी से ग्रसित एक ऐसे नायक/ प्रतिनायक के तौर पर प्रस्तुत किया गया है जो महज अपने स्वार्थ के लिए किसी भी बचकानी हरकत के प्रति कोई हिचक नहीं रखता. सुल्तान होने के नाते वह चाटुकारों और जीहुज़ूरी करने वालों से घिरा हुआ है. वह उसे भ्रमित करके रखे हुए हैं. वह असलियत से कोसों दूर अपने ही ख्वाब की मस्ती में है. उसकी इच्छा है सबसे आदर्श मुल्क बनाने की, इसके लिए वह कोशिशें भी करता है, लेकिन इन कोशिशों का फायदा सिर्फ फरेबी उठा रहे हैं. असल मजबूरों को उसके किसी बदलाव का कोई लाभ हासिल नहीं है. ऐसे में उसका मानसिक पतन हो जाता है. लाइट धीमी होती जाती है, किरदार थमते जाते हैं, मंच पर अंधेरा है और तुगलक अपनी तनहाई के लाल  लिबास में लिपटा तख्त के आखिरी सीढ़ी के नीचे पड़ा है. 

पर्दा गिरता है...

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