बीसवीं सदी का शुरुआती दौर था. एक तरफ जहां क्रांतिकारी अंग्रेजों की नाक में दम किए हुए थे, अंग्रेजों को ऐसे ही एक और मोर्चे पर भिड़ना पड़ रहा था. बेहद खतरनाक और उनसे जंग लड़ना जान के लिए मुश्किल. ये न कोई निर्वासित राजा थे, न ही बंदूकधारी क्रांतिकारी और न ही इन्हें आम जनता के बीच भी स्वीकार्यता मिली थी. ये थे डाकू.
कौन था डाकू सुल्ताना?
भले ही डाकू थे, लेकिन इनमें भी कई ऐसे थे जो उसूलों के पक्के थे. अमीरों के लिए भले ही वे दहशतगर्द रहे लेकिन गरीबों के लिए वो मसीहा थे. ऐसा ही एक डाकू था, सुल्तान सिंह. जिसे डाकू सुल्ताना के नाम से जाना जाता था. सुल्ताना डाकू के बारे में मशहूर है कि उसने बचपन से ही अंग्रेजों के अत्याचारों को देखा था तो वह बागी हो गया था. उसने बंदूक उठा ली. उसके निशाने पर सिर्फ वही रहे जिन्होंने अंग्रेजों की मदद से अपने खजाने भरे और गरीब-गुरबों का शोषण किया. उनसे धन-दौलत लूटकर सुल्ताना उनसे गरीबों की मदद किया करता था.
नौटंकी शैली में कही जाती है अद्भुत कहानी
सुल्ताना डाकू की आन-बान और शान से भरी यही कहानी बीती सदी से लेकर आज तक कभी गीतों के जरिए तो कभी नाटकों के रूप में लोगों तक पहुंचती रही है. इसका सबसे सहज रूप रहा है नौटंकी शैली. गांव की चौपालों और चौबारों से होकर ये नौटंकी भी अब शहरों के चमचमाते-जगमगाते बड़े-बड़े ऑडिटोरियम में होने लगी है. लालटेन और पेट्रोमेक्स की बत्तियों की जगह रंग-बिरंगी लाइट्स ने ले ली है, लेकिन बावजूद नौटंकी का वही खालिस रस, उसके ऊंची आवाज में गाए जाने वाले लोकशैली गीत जस के तस हैं.
श्रीराम सेंटर की ओर जारी शीला भरत राम थिएटर फेस्टिवल के दौरान बीते शुक्रवार दर्शक इसी 'सुल्ताना डाकू' की कहानी से रूबरू हुए, जिसे नौटंकी शैली में पद्मश्री पंडित राम दयाल शर्मा ने लिखा था और वही इसके निर्देशक भी हैं. बीते लगभग कई दशकों से 'सुल्ताना डाकू' की कहानी को अलग-अलग कलाकारों ने अपने-अपने तरीकों से पेश किया है, लेकिन अब नई पीढ़ी के नवोदित कलाकारों को देखकर खुशी और यकीन होता है कि वह नाट्य परंपरा की इस लोक संस्कृति को न सिर्फ बचा ले जाएंगे बल्कि अपनी अदाकारी से इसे जिंदा और स्वस्थ भी रखेंगे.
सुल्ताना डाकू बने भानु ने किया जीवंत अभिनय
मंच पर 'डाकू सुल्ताना' के किरदार में नजर आए भानु प्रताप सिंह राजपूत को देखकर ये यकीन और पुख्ता होता जाता है. अपने कंधे पर बंदूक थामे, काली पगड़ी और काला तिलक किए जब ये नौजवान सुल्ताना बना हुआ धमक भरी चालों से मंच पर उतरता है तो बड़ा ही वर्सेटाइल नजर आता है. एक ही किरदार में उसके कई रंग है. वह गंभीर है, योद्धा है, मजाकिया है, सख्त है और प्रेमी भी है. उदार भी है और चपल भी और सबसे जरूरी निडरता जो डाकू के किरदार के लिए सबसे जरूरी है, वह भाव-भंगिमाओं से खुद ही अपना बयान कर देती है.
गीतमय संवाद बने थे मुश्किल
इस तरह की विधा में खुद को ढालने के लिए कैसी मेहनत करनी पड़ी? भानु कहते हैं कि और जितने नाटक किए, उनमें सुल्ताना का किरदार सबसे अलग है, बल्कि इस विधा का पूरा ट्रीटमेंट ही अलग सा है. सबसे पहली मशक्कत तो संवादों के साथ हुई. जरूरत थी कि यहां जो भी कहा जाए वह सुर-लय और ताल में कहा जाए और उस पर ये भी जरूरी था कि संवाद भले ही गायन में हैं, लेकिन ये गीत न लगने लगे, इनका रुख बातचीत ही लगना चाहिए. इसके लिए जरूरी था कि संवादों में गायन की गरिमा को न गिराकर बातचीत ही करनी थी , ताकि संवाद भी बना रहे और गायन की गरिमा बनी रहे. इसमें पूरी की पूरी मदद की हमारे सम्मानित साजिंदों की टीम ने. उन्होंने अभिनय की रिहर्सल से पहले संवादों की रिहर्सल कराई और फिर इस तरह सुल्ताना डाकू आपके सामने पेश हुआ.
भानु पहले भी इस नौटंकी विधा में रचे-बसे अभिनय को करते रहे हैं और कहते हैं कि खुशी होती है कि जब किसी किरदार को लोग आपके नाम से जानते हैं. तब कहीं न कही लगता है मेहनत सफल हो रही है. इस किरदार को और अपने अभिनय को अभी और ऊपर लेकर जाने की तमन्ना है.
एक किरदार जो बना यादगार
इस पूरे मंचन में एक किरदार जो बरबस ही सबका ध्यान अपनी ओर खींचता है वह है 'गामा'. गामा, सुल्ताना की फौज में ही शामिल एक डाकू है, लेकिन उसके किरदार में हास्य का रंग घुला है. जब वह मंच पर मौजूद रहता है तो भी दर्शकों का ध्यान उसकी ओर ही चला जाता है, क्योंकि हर सीन में उसके पास करने के लिए कुछ न कुछ अनोखा है. गामा अपनी छोटी सी बंदूक में एक फूल खोंसे दिखता है. जब-तब उसे सूंघकर अजीब आवाजें निकाला करता है और उसकी बंदूक की नली में आगे एक रस्सी बंधी है. वह क्यों बंधी है, उसका क्या मकसद है? बस यूं ही बंधी है तो बंधी है, लेकिन ये सारी ही बातें 'गामा' को बाकी अन्य किरदारों से अलग बनाती हैं. दर्शक आखिरी तक उसे याद रखते हैं.
अंग्रेज अफसर फ्रेडी यंग की भूमिका में दिखे शशांक
इतिहास कहता है कि सुल्ताना डाकू को पकड़ने की जिम्मेदारी अंग्रेज अफसर मिस्टर फ्रेडी यंग को दी गई थी. शशांक जमलोकी ने इस किरदार को बखूबी निभाया है. चूंकि ये विधा नौटंकी की है, और अंग्रेज अफसर को डाकू सुल्ताना के आगे थोड़ा तो कमतर दिखाना जरूरी रहा होगा, लिहाजा फ्रेडी यंग जैसा महत्वपूर्ण किरदार भी कॉमेडी की भेंट चढ़ गया है, लेकिन शशांक ने अपनी इस भूमिका से पूरा न्याय किया है. कमर की लचीली मूवमेंट के साथ मंच पर आना, स्टिक को दोनों हाथों से पकड़कर किसी जिम्नास्ट की तरह कमर घुमाते हुए खास अंदाज में संवाद बोलना और अपनी कॉमिक टाइमिंग के साथ ही यंग साहब वाली गंभीरता को ओढ़े रहना, किरदार के इस शेड में मशक्कत तो दिखती है और वह प्रभावी भी लगते हैं, और आखिरी में वह अपनी इसी शैली में वो जरूरी बात कह जाते हैं जो हमारे इतिहास का काला सच है.
जब एक डाकिया पैसे के लालच में सुल्ताना की मुखबिरी कर उसे गिरफ्तार करवा देता है तो यंग साहब सुल्ताना से कहते हैं कि 'इस देश में आपसी फूट कि कारण ही हम विदेशी तुम पर राज करते रहे हैं.' ये संवाद असल में इस नाटक का सबसे गंभीर बिंदु है और इस पूरे प्रदर्शन को एक सार्थक अंत देता है.
कलाकार और उनकी भूमिकाएं
नौटंकी में अभिषेक कंबोज ने प्रधान का किरदार निभाया जो डाकू सुल्ताना का मुख्य सहयोगी था. प्रणव श्रीवास्तव ने सूत्रधार और शेर सिंह की दोहरी भूमिका निभाई. अभिषेक राजपूत ने लाला का किरदार निभाया, वहीं दीपक भट्ट ने डिप्टी साहब की भूमिका निभाई. उमेश ने गामा का किरदार निभाया, और स्पर्श पटेल ने फकीर की भूमिका निभाई. नवीन ने सूत्रधार और डाकिया दोनों किरदार निभाए, जबकि काव्या ने फूल कुँवर के रूप में अपनी भूमिका निभाई. देवांशी ने नर्तकी और सूत्रधार की भूमिका निभाई, और प्रिया ने भी सूत्रधार और नर्तकी का किरदार निभाया. नीलम ने दस्यु सुंदरी की भूमिका निभाई, और डाकिए के बेटे के किरदार में जहान नजर आए.
इन सभी ने मंच पर प्रस्तुति देकर बीसवीं सदी एक नायक/प्रतिनायक डाकू सुल्ताना को नौटंकी शैली के जरिए जीवंत कर दिया. इस मंचन की जान और इसकी प्रस्तुति में चार चांद लगाए इसकी संगीतमय प्रस्तुति ने, जो देखते ही बनती थी. पर्दा उठने के साथ ही मंचन की शुरुआत शिव वंदना से होती है, जिसके सुर बेहद कर्णप्रिय और शब्द सरल थे. इसी तरह नौटंकी की मांग के मुताबिक बीच में एक आइटम नंबर जैसा डांस भी था, लेकिन फिल्मी अश्लीलता से कोसों दूर और बेहद सहज. गौर से सुनेंगे तो यह भी शृंगार रस में पगा एक भजन ही था, जिसके बोल थे, 'कान्हा तोरी बंसी, कलेजे मारे कसकी...'
सुल्ताना डाकू पर बनी हैं कई फिल्में
नौटंकी के लेखक पद्मश्री पंडित राम दयाल शर्मा ने सुल्ताना के चरित्र को एक बागी की तरह उभारा है. सुल्ताना का चरित्र भी काफी जटिल है और उसके सहयोगी भी कई तरह की मानसिक और व्यवहारिक चुनौतियों से गुजरते हैं. वन्य जीवन के जाने माने विशेषज्ञ जिम कार्बेट ने अपनी पुस्तक "माय इंडिया" में भी सुल्ताना डाकू का जिक्र किया है.
असल में फ़्रेडी यंग ने जिम कार्बेट से सुल्ताना को पकड़ने के लिए मदद मांगी थी. ऐतिहासिक लेखों के मुताबिक 1923 के दिसंबर में फ़्रेडी यंग ने सुल्ताना को पकड़ लिया. उसे फांसी की सजा दी गई, लेकिन तब तक सुल्ताना एक हीरो बन चुका था. राबिन हुड की तरह सुल्ताना पर कई फ़िल्में बन चुकी हैं. हिंदी सिनेमा में दारा सिंह भी सुल्ताना का किरदार निभा चुके हैं. किरदार से प्रेरित कुछ हॉलीवुड फिल्में भी बनी हैं.
अंग्रेजी दासतां के समय से ही सुल्ताना लोक कला की विभिन्न शैलियों में नायक बन गया था. उस पर आधारित अनेक नाटक लिखे गए, लेकिन नौटंकी शैली में प्रस्तुतियों ने उसे जन मानस का अपना सा लगने वाला नायक बना दिया था. श्रीराम सेंटर की मंडली के कलाकारों ने अपने सशक्त अभिनय से इसे मंच पर एक बार फिर जीवंत कर दिया.