खालिदा जिया का जीवन बंगाल के इतिहास की एक छोटी सी कहानी जैसा लगता है. यह विस्थापन, हिंसा और अधूरी उम्मीदों की कहानी है- जहां हर पड़ाव, बंगाल के किसी न किसी ट्रॉमा का आईना है.
खालिदा जिया का जन्म 15 अगस्त 1945 को जलपाईगुड़ी में हुआ. यह वह वक्त था जब ब्रिटिश हुकूमत भारत में अपने अंतिम दिन गिन रही थी और भारत अपने सबसे बड़े विभाजन की दहलीज पर खड़ा था. दो साल बाद विभाजन हुआ और मजूमदार परिवार उन लाखों लोगों में था जिन्हें दूर बैठे लोगों की खींची गई नई सीमाओं के पार पलायन करना पड़ा.
खालिदा का परिवार जलपाईगुड़ी से दिनाजपुर चला गया, एक ऐसी रेखा पार करते हुए जिसने रातों-रात पड़ोसियों को विदेशी बना दिया. खुद बंगाल की ही तरह, जो बीच से कट गया था, जिया भी अपने जन्मस्थान से जाकर उस भूभाग में बस गईं, जो आगे चलकर पूर्वी पाकिस्तान बना.
1971 में जब बांग्लादेश खून-खराबे के बीच जन्म ले रहा था, खालिदा घर संंभाल रही थीं. जब उनका देश उथल-पुथल में था, वो दो छोटे बेटों की परवरिश कर रही थीं. लेकिन उनके पति मेजर जियाउर रहमान आजादी की लड़ाई के सबसे निर्णायक और ऐतिहासिक मौके पर सीधे तौर पर शामिल थे.
25 मार्च 1971 की रात, जब पाकिस्तानी सेना ने ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ के तहत बंगाली नागरिकों पर जनसंहार की कार्रवाई शुरू की, जियाउर रहमान चटगांव में 8वीं ईस्ट बंगाल रेजिमेंट के सेकेंड-इन-कमांड थे. उसी रात उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ विद्रोह का फैसला किया.
27 मार्च 1971 को चटगांव के कलूरघाट रेडियो स्टेशन से उन्होंने बांग्लादेश की स्वतंत्रता की घोषणा की. रेडियो तरंगों पर उनकी आवाज गूंजी- 'मैं, मेजर जियाउर रहमान, बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान की ओर से, यह घोषणा करता हूं कि स्वतंत्र पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ बांग्लादेश की स्थापना हो चुकी है.'
यह घोषणा बंगाल की खाड़ी में मौजूद एक जापानी जहाज ने भी सुनी और बाद में रेडियो ऑस्ट्रेलिया व बीबीसी ने इसे ब्रॉडकास्ट किया. इससे एक भटके हुए राष्ट्र को दिशा मिली और प्रतिरोध को आकार मिला. जियाउर रहमान 'स्वतंत्रता के उद्घोषक' के रूप में जाने गए.
अस्थायी सरकार के मार्गदर्शन में उन्हें 'जेड फोर्स' का कमांडर नियुक्त किया गया. उन्होंने पाकिस्तानी सेना के खिलाफ कई सैन्य ऑपरेशन्स का नेतृत्व किया.
नौ महीने के गुरिल्ला युद्ध और भारतीय सैन्य हस्तक्षेप के बाद 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने आत्मसमर्पण किया. इसी के साथ ही बांग्लादेश का जन्म हुआ.
लेकिन मुक्ति, विभाजन की तरह ही अधूरी साबित हुई. नया राष्ट्र पुराने घावों के साथ पैदा हुआ- धार्मिक तनाव, धर्मनिरपेक्षता बनाम इस्लामी पहचान की बहस, और ऐसी सेना जिसने सत्ता का स्वाद चख लिया था. बांग्लादेश को आजादी तो मिली, शांति नहीं.
15 अगस्त 1975 को तड़के हुए सैन्य तख्तापलट में मध्यम रैंक के अधिकारियों ने शेख मुजीबुर रहमान के आवास पर धावा बोलकर उनकी और उनके परिवार के अधिकांश लोगों- पत्नी और तीन बेटों की हत्या कर दी. केवल उनकी दो बेटियां, जो विदेश में थीं, बच सकीं. तख्तापलट के साजिशकर्ताओं ने मुजीब के ही एक कैबिनेट मंत्री खोंडाकर मुस्ताक अहमद को राष्ट्रपति बनाया.
राष्ट्रपति मुस्ताक ने सेना प्रमुख को बर्खास्त कर 25 अगस्त 1975 को जियाउर रहमान को थलसेना प्रमुख नियुक्त किया. लेकिन खालिदा के पति जल्द ही तख्तापलट और उसके बदले में फिर से तख्तापलट के भंवर में फंस गए, जिसने उनकी जान पर बन आई.
3 नवंबर 1975 को ब्रिगेडियर खालिद मुशर्रफ ने एक और तख्तापलट किया, इस बार मुजीब के हत्यारों के खिलाफ. जियाउर रहमान को पद छोड़ना पड़ा और उन्हें नजरबंद कर दिया गया. तीन दिनों तक वे अपने ही घर में कैदी रहे.
7 नवंबर 1975 को सैनिकों ने विद्रोह कर उन्हें मुक्त कराया. दोबारा थलसेना प्रमुख बनने के बाद जियाउर रहमान ने सेना में अनुशासन बहाल करने के लिए कठोर कदम उठाए. पहले सैनिकों की सैलरी बढ़ाकर उन्हें शांत किया, फिर उन्हीं लोगों के खिलाफ कार्रवाई की जिन्होंने उन्हें आजाद कराया था. अबू ताहेर को गिरफ्तार कर गुप्त सैन्य अदालत में देशद्रोह का दोषी ठहराया गया और 21 जुलाई 1976 को फांसी दे दी गई.
जिया ने समाजवादी जातीय समाजतांत्रिक दल पर कार्रवाई की, उसके नेताओं को जेल में डाला और उस क्रांतिकारी आंदोलन को कुचल दिया जिसने उन्हें आजाद कराया था. 30 नवंबर 1976 को वो चीफ मुख्य मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर बने. 21 अप्रैल 1977 को जिया ने राष्ट्रपति पद संभाला और सितंबर 1978 में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की स्थापना की.
बांग्लादेश ने पाकिस्तान की सैन्य शासन को तो मात दे दी लेकिन फिर देखा कि वह अपने ही जनरलों की गुलामी में फंस गया है.
30 मई 1981 को चटगांव में सैन्य तख्तापलट की कोशिश के दौरान राष्ट्रपति जियाउर रहमान की हत्या कर दी गई. एक रात की गोलीबारी में खालिदा 35 वर्ष की उम्र में विधवा हो गईं, उनका निजी जीवन भी उसी राजनीतिक हिंसा की भेंट चढ़ गया जिसने दशकों से बंगाल की पहचान बना हुआ था.
आधुनिक बंगाल का इतिहास ऐसी हत्याओं से भरा है जो सब कुछ मोड़ देती हैं- 1975 में शेख मुजीबुर रहमान और उनका परिवार, 1981 में जियाउर रहमान. ये हत्याएं अपवाद नहीं, बल्कि एक पैटर्न थीं- घाव पर घाव चढ़ाने का तरीका.
खालिदा जिया के पति की मौत के बाद, 24 मार्च 1982 को जनरल एच.एम. इरशाद ने सत्ता हथिया ली. देश पर एक बार फिर सैन्य तानाशाही थोप दी गई. इन हालातों में खालिदा ने राजनीति में कदम रखा. वो सात बार हिरासत में ली गईं और सैन्य शासन के खिलाफ प्रतिरोध का चेहरा बनीं. इरशाद के हटने और चुनावों का रास्ता खुलने पर 1991 के चुनाव में वे सत्ता में आईं.
प्रधानमंत्री के रूप में उनके दो कार्यकाल बांग्लादेश के अक्षम लोकतंत्र की तस्वीर थे. वो चुनाव जीतीं लेकिन स्थिरता नहीं ला सकीं. भ्रष्टाचार के आरोप, इस्लामी उग्रवाद का उभार, राजनीतिक हिंसा और शेख हसीना के साथ उनकी तीखी प्रतिद्वंद्विता- 'बैटलिंग बेगम्स', ने शासन को पंगु बना दिया.
देश कभी सैन्य तानाशाही, कभी लोकतांत्रिक अव्यवस्था के बीच झूलता रहा- आवामी लीग और बीएनपी के बीच, दो ऐसी महिलाओं के बीच जिनकी पारिवारिक विरासतें सत्ता साझा करने की कल्पना भी नहीं करने देती थीं.
हसीना के सत्ता में आने के साथ ही यह स्पष्ट हो गया कि बांग्लादेश का लोकतंत्र किसी और रूप में बदल चुका है. यहां विरोधियों को सिर्फ हराया नहीं जाता, नष्ट किया जाता है. लोकतंत्र दिखता तो था, पर इसका रवैया प्रतिशोध जैसा था.
खालिदा ने वर्षों अस्पताल के बिस्तर पर बिताए. उन्हें विदेश में समुचित इलाज की अनुमति नहीं मिली, जबकि प्रतिद्वंद्वी सरकार ने शिकंजा कसते हुए कानून का सहारा लिया. ‘बैटलिंग बेगम्स’ की लड़ाई सड़कों से अदालतों और अस्पताल की कोठरियों तक पहुंच गई.
अगस्त 2024 में छात्र आंदोलन ने शेख हसीना की सरकार को गिरा दिया. खालिदा रिहा हुईं और जनवरी 2025 में वर्षों की कैद के बाद उनके खिलाफ बचे मामलों से बरी कर दी गईं. अंतिम महीनों में, 80 वर्ष की उम्र में कमजोर स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने 12 फरवरी 2026 को होने वाले चुनाव लड़ने की तैयारी की जिसमें बीएनपी को प्रबल दावेदार माना जा रहा है.
लेकिन इस मुक्ति के पूरा होने से पहले ही उनका निधन हो गया. उनका चक्र अधूरा रह गया- जैसे उनके देश का.
वे कभी उन पैटर्नों से मुक्त नहीं हो सकीं जिन्होंने उनके देश को जकड़ रखा था. बंगाल की तरह, वही लड़ाइयां नए रूपों में चलती रहीं- लोक आंदोलन, सैन्य तख्तापलट और लोकतंत्र एक दुष्चक्र में घूमते रहे.
खालिदा जिया का निधन 30 दिसंबर 2025 को हुआ. उन्होंने पूर्वी बंगाल के सारे दर्द जिए, पर उसकी शांति नहीं देख पाईं. इस हिसाब से, वो उस धरती की सबसे सटीक प्रतीक थीं जिसने उन्हें गढ़ा.