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ट्रंप की यूक्रेन से सौदेबाजी के भारत, चीन और बाकी दुनिया के लिए क्या है मायने?

डोनाल्ड ट्रंप कभी पुतिन पर दबाव बनाने के लिए खामियाजा भुगतने या टैरिफ लगाने की धमकी देते हैं. तो अगले ही पल वे उतनी ही तेजी से पीछे हट जाते हैं. रूस से तेल खरीदने पर वे भारत पर टैरिफ तो लगा चुके हैं, लेकिन रूस को सचमुच चोट पहुंचाने का साहस उनमें नहीं दिखता.

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रूस यूक्रेन युद्ध सीजफायर कराने की कोशिशों में हैं डोनाल्ड ट्रंप (Photo: Reuters)
रूस यूक्रेन युद्ध सीजफायर कराने की कोशिशों में हैं डोनाल्ड ट्रंप (Photo: Reuters)

डोनाल्ड ट्रंप की खुद क गढ़ी छवि जिसमें वो खुद को दुनिया का सबसे बड़ा सौदेबाज बताते थे, अब टूटकर व्लादिमीर पुतिन के ब्रोकर की भूमिका में सिमट गई है. लेकिन जिसे वह कूटनीति का नाम देते हैं, वह दरअसल आत्मसमर्पण भर है.अलास्का में पुतिन के साथ उनकी शिखर बैठक और इसके बाद जेलेंस्की पर भारी दबाव, यूक्रेन, अमेरिका के सहयोगियों और स्वयं अमेरिका की विश्वसनीयता के साथ एक विश्वासघात है.

ट्रंप अपनी यूक्रेन नीति के तहत कीव को ऐसे समझौतों के लिए मजबूर करना चाहते हैं जो खुलकर रूसी आक्रामकता के पक्षधर हो. अलास्का बैठक से के बाद सीजफायर कराने में असफल होने पर ट्रंप ने फास्ट ट्रैक शांति समझौते के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया है. 

इस बीच रिपोर्ट्स सामने आई कि पुतिन ने पूर्वी डोनबास इलाके पर नियंत्रण की मांग की है और यूक्रेन की नाटो सदस्यता की महत्वाकांक्षाओं पर वीटो की मांग रखी है. इससे सारा दबाव यूक्रेन पर आ गया और ट्रंप ने संकेत दिया कि जेलेंस्की कुछ समझौते कर के युद्ध को लगभग तुरंत खत्म कर सकते हैं. यह रुख 2022 के आक्रमण के बाद से यूक्रेन के भारी बलिदानों को तुच्छ बना देता है और उसकी संप्रभुता को ट्रंप की सौदेबाजी वाली राजनीति में महज एक सौदे की मुहर में बदल देता है.

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18 अगस्त को व्हाइट हाउस के ओवल ऑफिस में जेलेंस्की के साथ हुई बैठक जिसमें मैक्रों और शॉल्ज भी शामिल थे. उन्होंने ट्रंप की जबरदस्त दबाव वाली रणनीति को उजागर कर दिया, जहां यूरोपीय नेता युद्धविराम को पहला और सबसे अहम कदम मान रहे थे. वहीं ट्रंप ने उसकी अहमियत को कम करके दिखाया और पुतिन-जेलेंस्की की सीधी मुलाकात पर जोर दिया. मानो कूटनीति सिर्फ एक फोटो खिंचवाने का मौका हो.

और भी बुरा यह था कि अमेरिकी सुरक्षा गारंटी का प्रस्ताव 90 अरब डॉलर की हथियार खरीद के साथ आया. जैसा कि जेलेंस्की ने बताया कि यूक्रेन को अमेरिका से 90 अरब डॉलर के हथियार खरीदने होंगे. मानवीय सहायता को भी ट्रंप ने बिक्री प्रस्ताव में बदल दिया, जबकि उसी समय रूसी मिसाइलें यूक्रेन के पोल्टावापर बरस रही थीं. 

न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि लेकिन यह सवाल कि क्या ट्रंप पर उनके वादे निभाने का भरोसा किया जा सकता है, सीधे तौर पर उनके लगातार बदलते रुख और यूक्रेन व अन्य कूटनीतिक संकटों पर उनके अस्थिर रवैये से जुड़ा है, खासकर तब, जब मामला बेहद अहम और दांव पर लगी वार्ताओं का हो.

ट्रंप कभी पुतिन पर दबाव बनाने के लिए खामियाजा भुगतने या टैरिफ लगाने की धमकी देते हैं. तो अगले ही पल वे उतनी ही तेजी से पीछे हट जाते हैं. रूस से तेल खरीदने पर वे भारत पर टैरिफ तो लगा चुके हैं, लेकिन रूस को सचमुच चोट पहुंचाने का साहस उनमें नहीं दिखता.

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अलास्का शिखर सम्मेलन में पुतिन की तारीफ करते हुए ट्रंप ने इस दौरे को शानदार बताया. अमेरिकी सरजमीन पर युद्ध अपराधों के आरोपी नेता की मेजबानी करना दृढ़ता नहीं बल्कि कमजोरी का संकेत है. सुजन राइस जैसे आलोचक तर्क देते हैं कि ट्रंप, पुतिन के मोहपाश में बंधे दिखाई देते हैं.

युद्धविराम को दरकिनार कर सीधे रियायतों पर जोर देकर ट्रंप तुष्टिकरण के उन पैंतरों को दोहराने का जोखिम उठा रहे हैं, जहां अल्पकालिक समझौते केवल आक्रांताओं को और अधिक साहसी बना देते हैं. उनका यह रुख दरअसल पुतिन की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को हरी झंडी देता है. यूक्रेन की संप्रभुता को उसी तरह टुकड़ों में बांटते हुए, जैसे द्वितीय विश्व युद्ध से पहले यूरोप को बांट दिया गया था.

अमेरिका के लिए ट्रंप की नीति स्वघातक साबित हो रही है, जिसने अमेरिका की लोकतंत्र के रक्षक के रूप में साख को छोटा कर दिया है. अब अमेरिकी प्रतिबद्धताएं सिद्धांतों पर नहीं बल्कि लेन-देन जैसी दिखती हैं.

यूरोप को ट्रंप की इस सौदेबाजी का सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. अमेरिका जब द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से निभाई गई नाटो की धुरी वाली भूमिका से पीछे हट रहा है, तो यूरोप को उस खालीपन को भरने के लिए जूझना पड़ रहा है. ट्रंप का यह जोर कि यूक्रेन नाटो की महत्वाकांक्षाएं छोड़े और अपना इलाका सौंप दे. इसने मैक्रों और शॉल्ज जैसे यूरोपीय नेताओं को हिला दिया है क्योंकि 2022 से अब तक उन्होंने यूक्रेन की रक्षा में 132 अरब डॉलर झोंक दिए हैं, जो अमेरिका के 114 अरब डॉलर से भी अधिक है. 

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चीन के लिए ट्रंप का यूक्रेन सौदा एक भू-राजनीतिक तोहफा है. यूक्रेन और नाटो को कमजोर करके वह बीजिंग को टूटते पश्चिमी गठबंधन को नजदीक से देखने और अपनी रणनीतिक पकड़ मजबूत करने का मौका दे रहे हैं. अगर पुतिन की आक्रामकता को इनाम मिलता है, तो यह शी जिनपिंग को साफ संदेश देता है कि ताइवान पर कब्जे जैसी क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं का सामना शायद कम प्रतिरोध से होगा क्योंकि अमेरिका ट्रंप के डीलमेकिंग सर्कस में उलझा रहेगा.

मई 2025 में कश्मीर को लेकर भारत-पाकिस्तान झड़प के बाद ट्रंप द्वारा मध्यस्थता का दावा (जिसे भारत ने नकारा) यह दिखाता है कि कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने का खतरा कितना बड़ा है. पुतिन जहां पाकिस्तान से रिश्ते गहरे कर रहे हैं, वहीं भारत से पुराने संबंध भी बनाए हुए हैं. यही वजह है कि अलास्का शिखर सम्मेलन के बाद मोदी का पुतिन से संपर्क करना इस हकीकत की समझ को दर्शाता है.

इस बीच, अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो का यह बयान कि अमेरिका भारत-पाकिस्तान की स्थिति पर रोज नजर रख रहा है,  एक खतरनाक रेखा की ओर इशारा करता है, जहां कश्मीर को वैश्विक सौदेबाजी का हिस्सा बनाकर मास्को या इस्लामाबाद को खुश करने की कोशिश की जा सकती है.

ट्रंप की टैरिफ़ नीति और यूक्रेन पर उनकी रणनीति ने अनजाने में भारत और चीन को ब्रिक्स ढांचे के भीतर और करीब ला दिया है. चीन के विदेश मंत्रालय ने भारत के साथ एकजुटता जताते हुए ट्रंप को धौंसपट्टी करने वाला कहा और यह भी दोहराया कि भारत की संप्रभुता पर कोई सौदा नहीं हो सकता.

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आगामी ब्रिक्स शिखर सम्मेलन चीन में होने वाला है, जिसमें पीएम मोदी और पुतिन भी शामिल होंगे. यह इस बात का संकेत है कि अमेरिका की आर्थिक दबाव नीतियों का मुकाबला करने के लिए यह मजबूत प्लेटफॉर्म बन सकता है. ट्रंप ने अपने पत्ते खोल दिए हैं. अब जिम्मेदारी भारत की है कि वह अपने पत्ते ऐसे फेंके कि उसके राष्ट्रीय हित किसी गैर जिम्मेदर राष्ट्रपति की जुए की मज पर दांव पर ना लगे.

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