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जब इस शहर की सड़कों से हटा दिए गए थे सारे कुत्ते... चूहों से भर गईं नालियां, बदलना पड़ा फैसला

पेरिस की जिन सड़कों पर कभी कुत्ते दौड़ते थे वहां कुछ ही महीनों में मोटे-मोटे चूहे दौड़ने लगे. कुत्ते असल में चूहों को नियंत्रित करने वाले जानवर माने जाते हैं, लेकिन इनकी अनुपस्थिति में चूहों ने शहर में आतंक मचा दिया. चूहों से शहर के नाले भर गए. इस स्थिति ने शहर के इको-सिस्टम को असंतुलित कर दिया.

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1880 मेैं पेरिस ने भी सभी कुत्तों को शहर से हटा दिया था. (Photo: AI/Grok)
1880 मेैं पेरिस ने भी सभी कुत्तों को शहर से हटा दिया था. (Photo: AI/Grok)

देश की राजधानी दिल्ली से आवारा कुत्तों को पकड़कर शेल्टर होम ले जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उस घटना की याद दिला दी है जब लगभग 150 साल पहले फ्रांस की राजधानी ऐसी ही समस्या से जूझ रही थी. 1789 में हुई फ्रांस की क्रांति ने वहां शासन की नई व्यवस्था को जन्म दिया. पूरे शहर को सिरे से बसाया जाने लगा. 

1880 के दशक में पेरिस बैरन हॉसमान के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर शहरी नवीकरण से गुजर रहा था. इस दौरान स्वच्छता और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जा रहा था.

इस दशक में पेरिस एक अजीब संकट से गुजर रहा था. आज विश्व की फैशन की रानी कहे जाने वाले इस शहर में तब भयानक गंदगी थी. कुत्तों और बिल्लियों की संख्या व्यापक रूप से बढ़ गई थी. 

इसके कई परिणाम हुए. ये जानवर न सिर्फ शहर की गंदगी बढ़ा रहे थे, बल्कि कुत्तों के काटने से शहर में रेबीज के मरीज बेतहाशा बढ़ रहे थे. उस डॉक्टरी व्यवस्था उतनी सटीक नहीं थी इसलिए कई मरीज इलाज के अभाव में मर भी जा रहे थे. 

जब कुत्तों ने पेरिस में कहर मचा दिया

गुजरते वक्त के साथ घोड़ों की जगह मोटर कार, बस, ट्राम और ट्रेनों ने सड़कों को भी बदल दिया. 1880 और 1890 के दशक में घोड़े द्वारा खींचे जाने वाले टमटम बंद हो गए. इसके बाद कु्त्तों की समस्या और भी सामने आई. ये कु्त्ते अकारण ही हादसे की वजह बन रहे थे

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कुत्तों की बढ़ती संख्या ने पेरिस की नगरपालिका परिषद में बहस छेड़ दी. हालत बिगड़ता देख पेरिस शहर प्रशासन ने इन आवारा कुत्तों और शहर की गलियों में मचलती बिल्लियों को शहर से हटाने के आदेश दिए गए. 

जर्नल jstor.org पर प्रकाशित एक रिसर्च पेपर 'STRAY DOGS AND THE MAKING OF MODERN PARIS' में इस घटना का जिक्र है. रिसर्च पेपर के मुताबिक एमीले कैप्रोन नाम के फार्मासिस्‍ट ने पेरिस शहर की सड़कों से आवारा कुत्तों को हटाने की मांग की थी.

हालांकि उस समय बिल्लियों को मारे जाने की घटना का जिक्र नहीं मिलता. लेकिन अनुमान लगाया जाता है कि शहर से बिल्लियों को खदेड़े जाने के कारण और उन्हें मारे जाने के कारण पेरिस में चूहों की संख्या काफी बढ़ गई थी.

मेनका गांधी ने किया जिक्र

बीजेपी नेता मेनका गांधी ने भारत में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिल्ली से कुत्तों को हटाने के आदेश का जिक्र करते हुए पेरिस की घटना को याद किया है. उन्होंने कहा, "अगर कुत्ते चले गए तो शहर में हर जगह बंदर घूम रहे होंगे. आज कुत्तों के डर से बंदर पेड़ से नहीं उतरते."

मेनका गांधी ने कहा कि, "पेरिस में 1880 में कुत्ते-बिल्लियों को मार डाला. एक हफ्ते के अंदर कोई उस शहर में विकट स्थिति हो गई. वहां कोई रह नहीं पा रहा था. नालों में चूहे भर गए थे. आखिरकार कुत्ते-बिल्लियों को वापस लाना पड़ा."

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मेनका गांधी ने अपने बयान में कहा है कि कुत्ते और बिल्लियां "रोडेंट कंट्रोल एनिमल" के रूप में कार्य करते हैं, और इनके बिना पारिस्थितिक असंतुलन पैदा होता है. 

आउट ऑफ कंट्रोल हुए चूहे

पेरिस नगरपालिका ने शहर से कुत्तों को तो हटा दिया. लेकिन इस शहर के इकोलॉजी सिस्टम पर इसका विपरीत असर हुआ. जब इन जानवरों को हटाया गया तो उन कुत्तों और बिल्लियों की कमी के कारण चूहों की संख्या बहुत बढ़ गई. 

जिन सड़कों पर कुत्ते दौड़ते थे वहां कुछ ही महीनों में मोटे-मोटे चूहे दौड़ने लगे. कुत्ते असल में चूहों को नियंत्रित करने वाले जानवर माने जाते हैं, लेकिन इनकी अनुपस्थिति में चूहों ने शहर में आतंक मचा दिया. चूहों से शहर के नाले भर गए. इस स्थिति ने शहर के इको-सिस्टम को असंतुलित कर दिया और सार्वजनिक स्वास्थ्य को खतरा पहुंचाया. हालात इतने बिगड़े की प्रशासन को कुत्तों की एक निश्चित संख्या को वापस शहर में लाना पड़ा.

इसस यह भी साबित हुआ कि आवारा जानवरों को पूरी तरह खत्म करना न तो स्थायी समाधान है और न ही समस्या के सामाजिक कारणों का निदान ढूंढ़ता है. 

आवारा कुत्ते शहरों और गांवों में बचे-खुचे खाने, गिरे भोजन और छोटे मृत जानवरों को खाकर नैचुरल 'क्लीनर' का काम करते हैं. वैज्ञानिक रूप से ये कुत्ते सड़कों पर ऑर्गेनिक वेस्ट कम करने में मदद करते हैं जिससे गंदगी और बदबू घटती है. 

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भारत में रेबीज के आंकड़े

सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2024 में देश भर में कुत्तों के काटने के 37 लाख मामले दर्ज किए गए. बीबीसी के अनुसार विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि भारत में रेबीज़ का की भयावहता का सटीक अनुमान नहीं है. हालांकि उपलब्ध जानकारी के अनुसार इससे हर साल 18,000-20,000 मौतें होती हैं. 

एनिमल राइट्स के लिए काम करने वाले एक्टिविस्ट कहना है कि रेबीज़ से होने वाली मौतों की वास्तविक संख्या पूरी तरह से ज्ञात नहीं है.

दूसरी ओर भारत सरकार द्वारा संसद में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार 2024 में रेबीज से 54 मौतें दर्ज की गईं, जबकि 2023 में यह संख्या 50 थी. 

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