प्रधानमंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों को जेल जाने पर 30 दिन में पद से हटाने वाले कानून पर सपा और टीएमसी आदि का संयुक्त संसदीय समिति में बहस से भागना बहुत कुछ वैसा ही जैसे बिना लड़े युद्ध के मैदान से हट जाना. क्या लोकतंत्र में पहली लड़ाई संविधान के तरीके से नहीं होनी चाहिए? संसदीय समिति और उसमें संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी ) का भारतीय राजनीति में बहुत महत्व रहा है. देश की दूसरे नंबर की पार्टी कांग्रेस शायद ये बात समझ रही है इसलिए ही अभी तक इस दल की ओर से अपने सहयोगी दलों की भांति जेपीसी में भाग नहीं लेने का अब तक कोई वक्तव्य नहीं आया है. हो सकता है कि इंडिया गठबंधन के दलों के दबाव के आगे कांग्रेस कभी भी ऐलान कर दे कि वो इस मुद्दे पर जेपीसी से अलग हो रही है. क्योंकि इस समय कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती विपक्ष की एकजुटता ही है. पर जिस तरह का व्यवहार विपक्ष की ओर से ईवीएम ,पेगासस और एसआईआर के साथ किया गया है, उससे तो यही लगता है कि विपक्ष इस मुद्दे पर मैदान छोड़ने ही वाला है.
संविधान का 130वां संशोधन विधेयक, 2025, जिसे ‘जेल से सरकार नहीं’ बिल के नाम से जाना जा रहा है, गंभीर आपराधिक मामलों (5 वर्ष या अधिक सजा वाले) में 30 दिनों से अधिक हिरासत में रहने वाले प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को स्वतः पद से हटाने का प्रावधान करता है. यह विधेयक संयुक्त संसदीय समिति (JPC) को भेजा गया है, लेकिन तृणमूल कांग्रेस , समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी (AAP) जैसे विपक्षी दल इसमें शामिल होने से कतरा रहे हैं. विपक्ष का यही रुख अन्य विवादास्पद मुद्दों जैसे इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM), पेगासस जासूसी कांड, और विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के दौरान भी देखा जा चुका है. विपक्ष ने उपरोक्त मुद्दों पर जिस तरह औपचारिक बहस या जांच से दूरी बनाया वह निश्चित ही केंद्र सरकार के लिए राहत पहुंचाने वाले रहा है.
‘जेल से सरकार नहीं’ बिल और JPC से परहेज?
टीएमसी, समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी जैसे कुछ दलों का कहना है कि इस बिल का उद्देश्य विपक्षी नेताओं को निशाना बनाना और उनकी सरकारों को अस्थिर करना है. TMC के राज्यसभा सांसद डेरेक ओ’ब्रायन ने इसे नौटंकी और सुपर-इमरजेंसी करार देते हैं. उनका कहना है कि सत्तारूढ़ NDA की बहुमत के कारण JPC की कार्यवाही पक्षपातपूर्ण होगी. SP अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी ममता बनर्जी के रुख का समर्थन करते हुए JPC में शामिल न होने का फैसला किया है.
पर सवाल यह है कि यह तो संवैधानिक प्रक्रिया है. जिस पार्टी का बहुमत होता है उस पार्टी के अधिक लोग समिति में रहेंगे ही. पर क्या इस बात का बहाना लेकर विपक्ष संसदीय प्रक्रिया से बच सकता है. या यूं कहें कि क्या नैतिक होगा कि संसदीय प्रक्रिया को रोकने का दबाव बनाना. यह तो सीधे-सीधे लोकतंत्र का विरोध करना हुआ. दूसरा सवाल यह भी है कि अगर विपक्ष किसी कानून को काला कानून समझता है तो उसका विरोध करने संसद से सड़क तक होना चाहिए. पर विपक्ष यह लड़ाई केवल सड़क पर ही लड़ना चाहता है. जाहिर है कि सत्ता पक्ष ये आरोप लगाएगा ही कि विपक्ष राजनीतिक फायदा उठाने के लिहाज से ऐसा कर रही है.
इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि जेल से नहीं चलेगी सरकार बिल का विरोध सत्तारूढ़ पार्टियां आसानी से करेंगी. पर एक बार इस बिल का जेपीसी में जोरदार विरोध तो होना ही चाहिए. ताकि आम जनता तक ये बात पहुंचे कि किस तरह का ये विधेय़क है. अगर विधेयक वर्तमान सरकार को तानाशाह बना सकती है तो ये बात जेपीसी में जब रखी जाएगी तभी तो देश की जनता को पता चलेगा. इसलिए विपक्ष को अगर लगता है कि ये कानून ठीक नहीं है तो उसका संसदीय समिति में जमकर विरोध करना चाहिए था. बहिष्कार करने से तो केवल सरकार को अपनी मनमर्जी करने के लिए छुट्टा छोड़ने जैसा ही होगा.
EVM पर भी जब अपनी बात साबित करने का मौका आया तो कोई नहीं पहुंचा आयोग
EVM को लेकर आम आदमी पार्टी , समाजवादी पार्टी और कांग्रेस आदि को बहुत सी शिकायतें रही हैं.इन पार्टियों ने बार-बार सवाल भी उठाए हैं. लेकिन चुनाव आयोग के बुलावे पर ईवीएम हैक भी हो सकता है यह साबित करने कोई नहीं पहुंचा था.
दरअसल यूपी में 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद ईवीएम हैक करने का मुद्दा बहुत जोर शोर से उठा था. बीएसपी सुप्रीमो मायावती और यूपी के पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने खुलेआम चुनाव आयोग को चुनौती देते हुए बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग की. दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल की पार्टी की ओर से भी ईवीएम टेपरिंग के मुद्दे पर पूरा कैंपेन चलाकर बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग की गई. चुनाव आयोग ने चुनौती स्वीकार करते हुए ईवीएम हैक करके दिखाने की चुनौती दे दी.
आयोग ने उसी साल खुला चैलेंज दिया कि मई के पहले हफ्ते से लेकर 10 मई के बीच कोई भी उनकी इन मशीनों को हैक करके दिखाए. EC ने चुनौती दी कि किसी भी राजनीतिक दल का कोई भी विशेषज्ञ, वैज्ञानिक और टेक्नीशियन एक हफ्ते या 10 दिन के लिए आकर मशीनों को हैक करने की कोशिश कर सकता हैं.
अंतिम दिन तक कोई राजनीतिक दल इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हुआ. खुली चुनौती में शामिल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सीएमएम) के प्रतिनिधियों ने EC के दफ्तर पहुंचकर मशीन को हैक करने में अपनी अक्षमता जाहिर की.
पेगासस जासूसी कांड पर आरोप लगाए, लेकिन सबूत के तौर पर फोन नहीं दिये
पेगासस जासूसी कांड में भी विपक्ष, विशेष रूप से TMC और SP, ने संसद में जोरदार हंगामा किया, लेकिन औपचारिक जांच या बहस में शामिल होने से बचा. कहा गया कि केंद्र सरकार विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, और कार्यकर्ताओं की जासूसी के लिए पेगासस सॉफ्टवेयर का उपयोग कर रही है. ममता बनर्जी ने इसे लोकतंत्र पर हमला बताया, और अखिलेश यादव ने इसकी जांच की मांग की.
पर जब सुप्रीम कोर्ट ने पेगासस मामले की जांच के लिए एक समिति गठित की, तो विपक्षी दल इसमें सक्रिय रूप से शामिल नहीं हुए. उन्हें डर था कि जांच के परिणाम सरकार के पक्ष में हो सकते हैं, और उनकी भागीदारी इसे वैधता दे सकती है. इसके बजाय, उन्होंने संसद में हंगामा और सार्वजनिक बयानबाजी को प्राथमिकता दी.
SIR पर विपक्ष का रुख
बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) को लेकर भी विपक्ष ने वोट चोरी का आरोप तो लगा रही है पर मजबूती के साथ कानूनी स्टैंड लेने से कतरा रही है. यही कारण है कि औपचारिक कार्रवाई से विपक्ष बच रहा है. राहुल गांधी और तेजस्वी यादव ने SIR को वोट काटने की साजिश बताते हैं पर जब चुनाव आयोग ने इस मुद्दे पर चर्चा के लिए बुलाता है तो कोई स्वीकार नहीं करता है.विपक्षी दल औपचारिक आपत्ति दर्ज करने या बैठक में शामिल होने से भी हिचकिचाते हैं. राहुल गांधी से कितनी बार आयोग ने कहा कि आप इस मामले में शपथ पत्र भेजिए पर ऐसा नहीं किया गया.बिहार में मतदाता सूचियों के प्रकाशन के बाद चुनाव आयोग ने जिनका नाम छूट गया हो, जिन पतों पर सैकड़ों वोट बने हों आदि के लिए आपत्ति दर्ज कराने को कहा . पर राजनीतिक दलों ने इस कार्य में बहुत इंट्रेस्ट नहीं लिया. अभी जब चुनाव हो जाएंगे तो सभी सामने हेर फेर का आरोप लगाते हुए प्रकट हो जाएंगे.
कांग्रेस के साथ आना चाहिए था टीएमसी और सपा को
जेल से सरकार नहीं बिल पर कांग्रेस का रुख अभी तक अपने साथी दलों से अलग दिख रहा है.दरअसल कांग्रेस सहित कुछ पार्टियों का मानना है कि संसदीय समितियों की कार्यवाही अदालतों में महत्व रखती है और विवादित कानूनों पर जनमत को प्रभावित भी करती है.शायद इसी के चलते कांग्रेस अब तक JPC में शामिल होने की समर्थक रही है. लेकिन सपा और टीएमसी के बहिष्कार ने समीकरण बदल दिए हैं. कांग्रेस के साथ असमंजस है कि वो अपने साथी दलों का साथ दे या जेपीसी में केंद्र सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद करे.
दरअसल समाजवादी पार्टी और टीएमसी आदि को समझना चाहिए कि JPC में शामिल होकर वह विधेयक के संभावित दुरुपयोग को जनता के सामने ला सकती है . इसके साथ सड़क से संसद तक का संघर्ष करने का आधार तैयार कर सकती है.विपक्ष को JPC को एक मंच के रूप में देखना चाहिए. कांग्रेस DMK, NCP-SP, RJD, और JMM जैसे सहयोगी दलों को JPC में शामिल करने की कोशिश कर रही है ताकि विपक्षी एकता बरकरार रहे. टीएमसी और सपा को भी साथ आकर विपक्ष की एकता को और मजबूत बनाना चाहिए.