एक दिन किसी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं मौजूदा राजनीतिक शासन की आलोचना न करने में विश्वास रखता हूं. मुझे प्रश्न दिलचस्प लगा. सिर्फ इसलिए नहीं कि एक गुरु के रूप में, मैं लगातार लोगों को प्रेरित करता हूं कि वे खोजें, न कि विश्वास करें. लेकिन साथ ही, जो कोई भी मुझे जानता है वह जानता है कि मैं निहित स्वार्थों पर लगातार सवाल उठाने में सक्षम हूं. हालाँकि, प्रश्न पूछने के कई तरीके हैं. प्रश्न पूछना रचनात्मक या विनाशकारी हो सकता है. यथास्थिति को अस्तव्यस्त करने, सत्ता समीकरणों को चुनौती देने, और गिरोहों और उत्पादक-संघ, एकाधिकार और विशिष्टता के गुटों को हिलाने का एक शक्तिशाली तरीका लोकतंत्र है. आधुनिक लोकतंत्र का उपहार यह है कि यह मतपेटी के माध्यम से सत्ता परिवर्तन को लाता है. यह एक बड़ी उपलब्धि है कि हमने बिना खून-खराबे के सत्ता हस्तांतरण का, अहिंसक तरीके से सत्ता को अव्यवस्थित करने का एक साधन ढूंढ लिया है.
बोलने की आज़ादी बरकरार रखना
हालांकि, एक बार जब हम मतपेटी का सम्मान करना चुनते हैं, तो इसका मतलब है कि हम अपनी व्यक्तिगत इच्छा को शांति से सामूहिक इच्छा की खातिर छोड़ने को सहमत हैं. क्या इसका मतलब यह है कि हमने विरोध करने का अधिकार खो दिया है? बिलकुल नहीं. बोलने और अभिव्यक्ति की हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता, विचार करने और असहमति जताने, संवाद और बहस को कायम रखने की हमारी क्षमता महत्वपूर्ण है. एक लोकतंत्र तभी कारगर होता है जब इन व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को गर्व से प्रतिष्ठित किया जाता है और उनकी मजबूती से रक्षा की जाती है. इससे पहले कि हम व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मुखर समर्थक बनें, यह जरूरी है कि हम पहले व्यक्ति बनें. एक ऐसी प्रणाली जिसने समूहों को सामूहिक रूप से वोट देने के लिए हेरफेर करने के तरीके ढूंढ लिए हैं - चाहे वह जाति, धर्म, लिंग या यहां तक कि विचारधारा के आधार पर हो - सच्चा लोकतंत्र नहीं है. यह लोकतांत्रिक आवरण में सामंतवाद है.
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यह आदेशों की संस्कृति नहीं है
एक संपन्न लोकतंत्र, एक प्रामाणिक आध्यात्मिक प्रक्रिया की तरह, व्यक्तिगत स्वतंत्रता की धारणा पर आधारित है. लेकिन जब लोग लुभावने राजनीतिक और धार्मिक प्रचार के प्रलोभन से परे देखेंगे, सिर्फ तभी सच्चे लोकतंत्र और सच्ची आध्यात्मिकता का जन्म हो सकता है. दोनों ही मामलों में, व्यक्ति को साथियों के दबाव और भाईचारे, समूह के संकीर्ण हितों और सत्ता लॉबी से बाहर निकलना होगा.
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एक सच्ची आध्यात्मिक प्रक्रिया कभी सत्तावादी नहीं होती. यह हमेशा तरल, खुले अंत वाली और बहस के लिए खुली रहती है. इस उपमहाद्वीप में आध्यात्मिकता का सदैव यही दृष्टिकोण रहा है. यह खोज की संस्कृति है, आदेश की नहीं. यहां, जिसे हम "पवित्र" मानते हैं उस पर बहस हो सकती है. इसका पालन करना जरूरी नहीं है. यहां तक कि जब दिव्य माने जाने वाले प्राणी इस भूमि पर प्रकट हुए - शिव से लेकर कृष्ण तक - तब भी हमने उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया. हमने उनसे सवाल किए, उनसे बहस की. इसी प्रकार, भारतीय संविधान आदेशों का समूह नहीं है. यदि ऐसा होता, तो यह धार्मिक सत्तावाद का राजनीतिक समकक्ष होता.
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रचनात्मक या विनाशकारी स्वतंत्रता?
एक बार जब आप एक व्यक्ति के रूप में उभरते हैं, तो इसका एहसास होना महत्वपूर्ण है कि आपकी स्वतंत्रता का दूसरों पर प्रभाव पड़ता है. लोकतंत्र में रहने का मतलब है कि हम सभी को समान स्वतंत्रता का अधिकार देने पर सहमत हुए हैं. आप किसी नीति का विरोध करना या किसी फिल्म की निंदा करना चुन सकते हैं, लेकिन यदि आप अपना गुस्सा व्यक्त करने के लिए किसी शहर या राज्य को बंद कर देते हैं, तो आप दूसरे लोगों की स्वतंत्रता भी छीन रहे हैं. यह स्वतंत्रता के वेष में व्यक्तिगत सनक है, व्यक्तिगत पहल के रूप में गैरजिम्मेदारी है.
आदियोगी अतीत के नहीं, बल्कि भविष्य के हैं
एक राष्ट्र के रूप में हमें खुद से यह सवाल पूछना चाहिए: क्या हम अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उपयोग रचनात्मक तरीके से कर रहे हैं या विनाशकारी तरीके से? क्या हमारी स्वतंत्रता वास्तव में सशक्त करने वाली है या यह दूसरे नागरिकों की खुशहाली के अधिकार को नुकसान पहुंचा रही है? इससे पहले कि हम व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बारे में बात करें, हमें ईमानदारी से एक और बुनियादी सवाल पूछना होगा: क्या हम अभी तक वास्तव में जिम्मेदार व्यक्ति बन गए हैं?