सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा विधेयकों के रोके रखने के अधिकारों पर सर्जिकल स्ट्राइक कर दी थी. दरअसल संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट ने डीम्ड असेंट का नया प्रावधान बना दिया गया है. इसके तहत कोई भी विधेयक एक निश्चित समय सीमा के भीतर राष्ट्रपति और राज्यपालों को पास करना जरूरी हो गया है. जाहिर है कि यह विधायिका के अधिकारों पर बहुत बड़ा हमला है. इसीलिए ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ अनुच्छेद 142 को 'न्यूक्लियर मिसाइल' करार देते हैं. धनखड़ कहते हैं कि यह अनुच्छेद लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24x7 उपलब्ध परमाणु हथियार है. जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ बवाल तो होना ही था.
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू 15 मई को इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट को प्रेसिडेंशियल रेफरेंस (संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत) भेजा है. राष्ट्रपति के इस फैसले को राजनीतिक गलियारों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनी हद पार करने के जवाब में उचित माना जा रहा हैं. डीम्ड असेंट न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने की शक्ति देता है. यह संविधान के मूलभूत ढांचे शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) के सिद्धांत को कमजोर करता है, क्योंकि कोर्ट कार्यपालिका की विवेकाधीन शक्ति को बाधित करता है.
1-राष्ट्रपति का इकलौता अधिकार जो ताकतवर पीएम को तानाशाह होने से रोकता है, उस पर न्यायपालिका छुरी चलाना चाहती है
सुप्रीम कोर्ट ने डीम्ड असेंट की व्यवस्था तो यह सोचकर की गई कि देश में विपक्ष की सरकारों की स्वतंत्रता और कानून बनाने का अधिकार प्रभावित न हो. सुप्रीम कोर्ट का यह पहलू अहम था कि इस तरह की कई शिकायतें आ रहीं कि विपक्ष द्वारा शासित राज्यों के कानून बनाने के अधिकारों का हनन हो रहा है. कुछ एक राज्यों में जहां एनडीए सरकार नहीं है वहां कुछ जरूरी कानूनों पर राज्यपालों ने अपनी भृकुटि तान ली थी. पर सिक्के का दूसरा पहलू भी है. राष्ट्रपति के पास एकमात्र यही अधिकार ऐसा होता है जिससे ताकतवर सरकारें भी डरती रही हैं. अगर ये अधिकार खत्म हो जाए तो राज्यपाल और राष्ट्रपति को तो मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री महत्व ही देना बंद कर देंगे.
हिंदू कोड बिल को लेकर देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का विवाद जगजाहिर है. इसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में पोस्ट ऑफिस बिल को लेकर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के बीच विवाद ने भी काफी चर्चा बटोरी थी. जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट के इस अधिकार से राष्ट्रपति और राज्यपालों के अधिकार में बहुत बड़ा अंतर आने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है.राष्ट्रपति का यह अधिकार भारत में आज भी ताकतवर प्रधानमंत्रियों को भी तानाशाह होने से रोकता है.
2. सुप्रीम कोर्ट के फैसले का आधार क्या था?
सबसे पहले विवाद की पृष्ठभूमि में चलते हैं. विवाद की जड़ में तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल आरएन रवि के बीच का अहम है. तमिलनाडु सरकार ने शिकायत की कि राज्यपाल ने विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयकों को अनुचित रूप से लंबित कर रखा है या राष्ट्रपति के पास भेज दिया. इन विधेयकों में शिक्षा, प्रशासनिक सुधार, और सामाजिक कल्याण से संबंधित मुद्दे शामिल थे.
सरकार ने इसे पॉकेट वीटो (अनिश्चितकाल तक विधेयक रोकना) का दुरुपयोग माना और सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. 8 अप्रैल 2025 को, जस्टिस जेपी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की सुप्रीम कोर्ट बेंच ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया. कोर्ट ने आदेश दिया कि अनुच्छेद 200 के तहत, राज्यपाल को विधेयक प्राप्त होने पर उचित समय में निर्णय लेना होगा—या तो स्वीकृति देनी होगी, पुनर्विचार के लिए वापस भेजना होगा, या राष्ट्रपति को भेजना होगा.
यदि विधानसभा दोबारा विधेयक पारित करती है, तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर स्वीकृति देनी होगी. इसी तरह राष्ट्रपति के लिए अनुच्छेद 201 के तहत आदेश दिया गया कि यदि राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा.
कोर्ट ने कहा कि पॉकेट वीटो असंवैधानिक है, क्योंकि यह विधायिका की इच्छा को निष्फल करता है. यदि राष्ट्रपति या राज्यपाल समयसीमा में निर्णय नहीं लेते, तो विधेयक को माना जाएगा कि मंजूरी मिल गई. कोर्ट ने यह भी कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल के कार्य न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं, और यदि विधेयक अनुचित रूप से रोका जाता है, तो राज्य सरकारें सीधे सुप्रीम कोर्ट का रुख कर सकती हैं.
3. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का प्रेसिडेंशियल रेफरेंस
15 मई 2025 को, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 सवालों के साथ औपचारिक राय मांगी. यह दुर्लभ कदम था, क्योंकि अनुच्छेद 143(1) का उपयोग केवल तब किया जाता है, जब सार्वजनिक महत्व का कोई गंभीर संवैधानिक सवाल उठता है. हालांकि मुर्मू से पहले प्रणब मुखर्जी (2012) में, एपीजे अब्दुल कलाम (2005, 2006) दो बार और शंकर दयाल शर्मा ने (1993) में आर वेंकटरमण (1988), जाकिर हुसैन (1964), और राजेंद्र प्रसाद (1950 के दशक) में इस अधिकार का इस्तेमाल कर चुके हैं. पर मुर्मू का रेफरेंस सुप्रीम कोर्ट की कार्यपालिका पर हस्तक्षेप को लेकर एक ऐतिहासिक बहस का हिस्सा है. राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संवैधानिक मूल्यों और व्यवस्थाओं के विपरीत और संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण करार दिया है.
राष्ट्रपति के प्रमुख सवाल:
-क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा तय कर सकता है, जबकि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है?
-क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं?
-क्या Deemed Assent की अवधारणा संवैधानिक है, जब संविधान में इसका कोई उल्लेख नहीं है?
-क्या अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट कार्यपालिका की संवैधानिक शक्तियों को संशोधित या रद्द कर सकता है?
-क्या राज्य सरकारें अनुच्छेद 131 (केंद्र-राज्य विवाद) के बजाय अनुच्छेद 32 (मौलिक अधिकार) का दुरुपयोग कर रही हैं?
-क्या सुप्रीम कोर्ट का फैसला संघीय ढांचे और शक्तियों के पृथक्करण को कमजोर करता है?
राष्ट्रपति मुर्मू का कहना है कि अनुच्छेद 200 और 201 राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता देते हैं, इसके लिए संविधान में कोई समयसीमा नहीं तय की गई है. Deemed Assent जैसी अवधारणा संविधान में अनुपस्थित है और कार्यपालिका की स्वायत्तता पर खतरा है. राष्ट्रपति ने इसे संवैधानिक संकट के रूप में देखती हैं.
4- सुप्रीम कोर्ट ने हद पार कैसे की? क्योंकि डीम्ड असेंट से संवैधानिक संकट पैदा होने का खतरा
डीम्ड असेंट की अवधारणा से संवैधानिक संकट पैदा करने का खतरा इसलिए उत्पन्न करता है, क्योंकि यह संविधान के मूल ढांचे, शक्तियों के पृथक्करण, और संघीय संरचना के साथ टकराती है. इस अवधारणा के तहत, यदि राष्ट्रपति या राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित विधेयक पर तय समय सीमा (राष्ट्रपति के लिए तीन महीने, राज्यपाल के लिए एक महीने) में निर्णय नहीं लेते, तो विधेयक को स्वतः मंजूरी माना जाएगा.
राष्ट्रपति और राज्यपालों को संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत को विधेयकों पर स्वीकृति, पुनर्विचार, या रोकने की स्वतंत्रता मिली हुई है. विधेयकों की स्वीकृति के लिए कोई समयसीमा नहीं निर्धारित की गई है. डीम्ड असेंट संविधान में अनुपस्थित है और इसे लागू करना संवैधानिक ढांचे में नई शर्त जोड़ने जैसा है, जो केवल संसद के माध्यम से संशोधन द्वारा संभव है. यह कार्यपालिका की स्वायत्तता को कमजोर करता है.
डीम्ड असेंट सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 142 के तहत लागू किया गया, जो न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने की शक्ति देता है. यह शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) के सिद्धांत को कमजोर करता है, क्योंकि कोर्ट कार्यपालिका की विवेकाधीन शक्ति को बाधित करता है. राष्ट्रपति और राज्यपाल संघीय ढांचे में केंद्र-राज्य संतुलन बनाए रखते हैं. डीम्ड असेंट से विवादास्पद या असंवैधानिक विधेयक (जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा या केंद्र-राज्य संबंधों को प्रभावित करने वाले) स्वतः मंजूर हो सकते हैं, जिससे संघीय संरचना कमजोर होगी.