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राम मंदिर बनाना आसान था, मैकाले का 'ढांचा' गिराना बहुत कठिन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत कठिन टारगेट ले लिया है. ये बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनाने से ज्‍यादा कठिन है. पीएम मोदी ने मैकाले की शिक्षा नीति से जन्‍मी गुलाम मानसिकता को दूर करने और अपनी जड़ों  की ओर लौटने का संकल्‍प लिया है. लेकिन, क्‍या ये इतना आसान है?

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राम मंदिर प्रांगण में भाषण देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने गुलाम मानसिकता की जकड़ से बाहर आने का आह्वान किया.
राम मंदिर प्रांगण में भाषण देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने गुलाम मानसिकता की जकड़ से बाहर आने का आह्वान किया.

अयोध्या में राम मंदिर के धर्म ध्वजारोहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण एक बार फिर उस बहस को सामने ले आया है, जो वे पिछले कुछ वर्षों से लगातार छेड़ते रहे हैं- 'मैकाले से प्रेरित गुलामी की मानसिकता और उससे छुटकारे की जरूरत'.

मौका धार्मिक था, लेकिन मोदी ने इसे सांस्कृतिक और राष्ट्रीय विमर्श का रूप दे दिया. उनका कहना था कि भारत भले ही राजनीतिक तौर पर स्वतंत्र हो चुका है, लेकिन मानसिक रूप से अभी भी कई परतें ऐसी हैं जिसके कारण अंग्रेजी राज से मिली हीनभावना को हमारा आत्मविश्वास ढो रहा है.

मोदी ने जनता से अपील की कि आने वाला दशक 'मैकाले से प्रेरित मानसिकता' से मुक्ति का दशक होना चाहिए, और देश को अपनी जड़ों से फिर से जुड़ने का अभियान आगे बढ़ाना होगा. 1835 में थॉमस बबैंगटन मैकाले की शिक्षा नीति भारत में लागू की गई थी, और दस साल बाद 2035 में उस बात को 200 साल पूरे हो जाएंगे. मोदी के इस बयान के कई तरह के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अर्थ निकलते हैं. जिसके कारण यह भाषण सिर्फ अयोध्या तक सीमित नहीं रहा.

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मैकाले का जिक्र बार-बार क्यों?

मैकाले की शिक्षा नीति को लेकर प्रधानमंत्री मोदी हमेशा से हमलावर रहे हैं. वे मानते हैं कि इस नीति ने भारतीय भाषाओं और ज्ञान परंपराओं को पिछड़ा बताया और अंग्रेजी शिक्षा को श्रेष्ठ स्थापित किया. मोदी का कहना है कि इस सोच ने भारतीयों के भीतर ऐसी मानसिकता पैदा की जिसमें अपनी संस्कृति, अपनी भाषा और अपने ज्ञान के प्रति हीनभावना पनप गई. उनका दावा है कि इस मानसिक ढांचे को बदले बिना भारत पूरी तरह आत्मनिर्भर नहीं हो सकता.

राम मंदिर से 'जड़ों पर लौटने' की बात, और रास्‍ते की चुनौतियां

राम मंदिर को मोदी ने एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की शुरुआत बताया. उनके मुताबिक, यह सिर्फ मंदिर निर्माण का नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आत्मविश्वास के पुनर्निर्माण का क्षण है. देश हर स्तर पर उन मूल्यों की तरफ लौटे जो भारतीय परंपरा के करीब हों. 'अपनी जड़ों से जुड़ना' किसी अतीत में लौटने की कोशिश नहीं, बल्कि 21वीं सदी में नए भारत की नींव तैयार करने का प्रयास है. हालांकि, उनके इस विचार के विरोधी इसे भारत को अंध-विश्‍वास, हिंदुत्‍व और विज्ञान से दूर ले जाने की कोशिश के रूप में बयां करते हैं.

शिक्षा- मोदी का जोर मातृभाषाओं पर लगातार बढ़ रहा है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) को वे इसी दिशा का बड़ा कदम बताते हैं. उनका मानना है कि जब तक भारतीय भाषाओं को बराबर सम्मान नहीं मिलेगा, तब तक देश की सोच, शोध और ज्ञान उत्पादन पर विदेशी ढांचे का असर बना रहेगा. यही वजह है कि प्रधानमंत्री ने यह भी दोहराया कि अंग्रेजी सीखना गलत नहीं है, लेकिन अंग्रेजी को ही श्रेष्ठ मान लेना असली समस्या है. 

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जबकि, उनके इस रुख को लेकर राजनीतिक विरोधी हिंदी थोपने की कोशिश के रूप में बताते हैं. खासतौर पर तमिलनाडु और महाराष्‍ट्र में पिछले दिनों से भाषा पर संग्राम इसी की वजह थी. हर बहस में अंग्रेजी को हिंदी से ऊपर जगह दी गई.संस्‍कृत जैसी भाषा पर तो बात ही नहीं हुई.

संस्कृति और विरासत- मोदी के इस अभियान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा संस्कृति और विरासत को नया जीवनदान देना भी है. मोदी सरकार पहले से ही मंदिरों, तीर्थ स्थलों और ऐतिहासिक धरोहरों के विकास पर बड़ा खर्च कर रही है. प्रधानमंत्री इसे आर्थिक ताकत से भी जोड़ते हैं. उनके अनुसार, संस्कृति और पर्यटन आने वाले वर्षों में भारत की बड़ी 'सॉफ्ट पावर' होंगे.

पीएम मोदी के विरोधी मंदिर और भारतीय संस्‍कृति के बढ़ावे को 'हिंदुत्‍व' के रूप में देखते हैं. कई बार इसे मुस्लिम-विरोधी एजेंडे के रूप में बताया जाता है.

राजनीतिक तौर पर क्या बदलेगा?

मोदी के इस एजेंडे का राजनीतिक असर साफ दिखाई देता है. राम मंदिर के बाद सांस्कृतिक मुद्दों का जोर कम होने के बजाय और तेज हुआ है. 'मैकाले मानसिकता' जैसा शब्द नए राजनीतिक नारे के रूप में उभरता दिख रहा है, जिसके मायने राजनीतिक हितों के अनुसार बदले जा सकते हैं. विपक्ष के सामने चुनौती है कि इस मुद्दे का विरोध करें तो सांस्कृतिक भावना के खिलाफ खड़े होने का खतरा, समर्थन करें तो भाजपा की लाइन को सही ठहराने का रिस्‍क है.

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भारत की सच्‍ची ग्‍लोबल इमेज क्‍या हो?

मोदी बार-बार कहते रहे हैं कि भारत सिर्फ आर्थिक शक्ति नहीं, बल्कि एक 'उभरती हुई सभ्यता' है. उनके इस एजेंडा का वैश्विक असर भी दिख सकता है. भारत अपनी संस्कृति, योग, आयुर्वेद, दर्शन, कला और विरासत को दुनिया के सामने और आक्रामक ढंग से रख सकता है.
ये एक ऐसी पहचान गढ़ने की कोशिश है जिसमें भारत पश्चिम के बराबर खड़ा दिखाई दे, उसके पीछे नहीं.

यह लक्ष्य कितना हासिल होगा, यह आने वाले वर्षों में तय होगा. लेकिन इतना साफ है कि प्रधानमंत्री ने अगला दशक एक नई सांस्कृतिक और मानसिक क्रांति के नाम कर दिया है. यह अभियान तभी सफल होगा, जब पूरा देश इसमें शामिल होगा. और देश इसमें कितना शामिल होगा, यह राजनीति तय करेगी. जिसका इस विषय पर एकमत होना नामुमकिन है. राम मंदिर तो एक भौतिक निर्माण था, हो गया. मैकाले की मानसिकता रगों में दौड़ती है, इसे जहन से निकालना उतना आसान नहीं है.

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