हैदराबाद के सांसद और एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी को 'राष्ट्रवाद' का प्रमाणपत्र देने के लिए भारत की 'राइट विंग आर्मी' को एक भीषण आतंकवादी हमले और पाकिस्तान के खिलाफ 87 घंटे लंबे सैन्य अभियान की जरूरत पड़ी.
कई साल तक ओवैसी की तीखी राजनीति को भाजपा ने 'राष्ट्र-विरोधी' भावना का प्रतिनिधित्व करने वाला बताकर बदनाम किया. शेरवानी पहनने वाले ओवैसी के अलग धार्मिक पहचान की वजह से वो लोग उनके 'दुश्मन' बन गए, जिनकी राजनीति भारतीय मुसलमानों को 'दूसरे लोग' के रूप में पेश करने के इर्द-गिर्द घूमती है.
आज, वही असदुद्दीन ओवैसी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान के आतंकवाद पर भारत के मामले को आक्रामक तरीके से उठाने के लिए 'देशभक्त' के रूप में सम्मानित हो रहे हैं. हैदराबाद के इस मुखर सांसद की राजनीति में कोई बदलाव नहीं आया है. उन्होंने पहले भी कई मौकों पर पाकिस्तान और दो-राष्ट्र सिद्धांत का विरोध किया है.
उनकी छवि भाजपा के कट्टर मुस्लिम विरोधी के रूप में बना दी गई है जिसका मतलब है कि उन्हें आसानी से संकीर्ण मुस्लिम हितों के पैरोकार के रूप में टाइपकास्ट किया जा सके. और अब जो वो कर रहे हैं, वो उनकी छवि परिवर्तन नहीं है बल्कि पहलगाम अटैक के बाद के राजनीतिक माहौल को दिखाता है जो घरेलू स्तर पर तो विभाजनकारी और पक्षपातपूर्ण बना हुआ है, लेकिन विदेश में एकजुट और सहमति वाला है.
पश्चिम बंगाल में गृह मंत्री अमित शाह की हालिया टिप्पणियों को देखें तो उन्होंने वहां ममता बनर्जी सरकार पर ऑपरेशन सिंदूर को लेकर 'वोट बैंक की राजनीति' करने का आरोप लगाया.
अधिकांश विपक्षी दलों की तरह ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी भी पाकिस्तान के साथ 'युद्ध' पर मोदी सरकार का समर्थन करती रही है. जब शाह कोलकाता में भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे थे, तब टीएमसी नेता अभिषेक बनर्जी पूर्वी एशिया में एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के हिस्से के रूप में पाकिस्तान की आर्मी स्टेट के खिलाफ जहर उगल रहे थे.
बंगाल में चुनाव होने में एक साल से भी कम समय बचा है, ऐसे में गृह मंत्री का कोलकाता भाषण चुनावी बिगुल बजाने के लिए था. 24 घंटे सक्रिय रहने वाले शाह, चुनाव प्रचार के दौरान गृह मंत्री कम और भाजपा कार्यकर्ता ज्यादा लगते हैं.
ऑपरेशन सिंदूर को लेकर कांग्रेस और शशि थरूर के बयानों में अंतर
भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस पार्टी की अराजक स्थिति पर भी नजर डालते हैं. पहलगाम के तुरंत बाद, पार्टी ने घोषणा की कि वो देश के 'राष्ट्रीय हित' की रक्षा के लिए मोदी सरकार की तरफ से उठाए गए किसी भी कदम का 'पूरी तरह से समर्थन' करेगी. लेकिन जब पार्टी के चार बार के तिरुवनंतपुरम सांसद शशि थरूर ऑपरेशन सिंदूर का समर्थन करते हैं, तो स्थानीय कांग्रेस नेताओं ने तुरंत उन्हें भाजपा के 'सुपर-प्रवक्ता' के रूप में ब्रांड करना शुरू कर दिया था.
अमेरिका के वाशिंगटन डीसी में पाकिस्तान के खिलाफ एक अन्य सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहे थरूर जहां इस आरोप का खंडन करते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत को युद्ध विराम के लिए राजी करने के लिए मजबूर किया, वहीं भोपाल में पार्टी की एक रैली में राहुल गांधी प्रधानमंत्री पर अमेरिका के सामने 'आत्मसमर्पण' करने का आरोप लगाते हैं. पार्टी के भीतर के मतभेद इन विरोधाभासी बयानों से साफ दिखाई दे रहे हैं.
भाजपा का डॉ. मनमोहन सिंह को 'कमजोर' प्रधानमंत्री' बताना
अब भाजपा की बात करते हैं, जो भारत की सत्ता की सबसे बड़ी पार्टी है. जब ऑपरेशन सिंदूर शुरू किया गया था, तो पार्टी के आधिकारिक सोशल मीडिया हैंडल ने कांग्रेस का मजाक उड़ाते हुए एक वीडियो जारी किया था. वीडियो में डॉ. मनमोहन सिंह पर 'कमजोर' प्रधानमंत्री होने का आरोप लगाया गया था, जिन्होंने 26/11 के बाद देश को कमजोर दिखाया.
अजीब बात यह है कि भाजपा के मुखर सांसद निशिकांत दुबे विदेश में एक सर्वदलीय टीम का हिस्सा हैं, लेकिन फिर भी उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से लेकर अब तक के कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों पर भारत के हितों को 'बेचने' का आरोप लगाते हुए तीखे ट्वीट किए. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को 'गद्दार' कहने से लेकर राहुल गांधी को 'पाकिस्तानी एजेंट' कहने तक, भाजपा की मीडिया मशीन ने बार-बार कांग्रेस नेतृत्व को निशाना बनाया है.
घरेलू विभाजन के लिए जिम्मेदार कौन?
फिर ऐसे राजनीतिक माहौल को कैसे समझा जाए जो विदेशी धरती पर भारत के लिए मजबूती से लड़ रहा है, लेकिन घर पर एक-दूसरे पर हमला करता है?
सबसे पहले, दोष मुख्य हितधारकों पर है और इस मामले में मुख्य हितधारक हैं- प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता. आपसी सम्मान की बात तो छोड़िए, प्रधानमंत्री मोदी और राहुल गांधी एक-दूसरे के प्रति घोर तिरस्कार का भाव रखते हैं. प्रधानमंत्री ने गांधी परिवार को बदनाम करने का कोई मौका नहीं छोड़ा है और अक्सर भद्दी भाषा में हमला किया है.
बदले में, राहुल गांधी भी मोदी के प्रति उतने ही तिरस्कारपूर्ण रवैया रखते हैं, मानो पीएम मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने का कोई अधिकार ही नहीं है. जब नेता एक-दूसरे को ऐसे भद्दे शब्दों में जवाब देते हैं, तो कोई कैसे उम्मीद कर सकता है कि उनके लोग कुछ अलग करेंगे?
संस्थागत कमजोरी
दूसरा, संस्थागत कमजोरी के कारण लोकतांत्रिक जवाबदेही सुनिश्चित करना मुश्किल होता जा रहा है. उदाहरण के लिए संसद को ही लें, जिसे पिछले एक दशक में सत्ताधारी पार्टी ने नोटिस-बोर्ड तक सीमित कर दिया है. सरकार के सांसदों ने विपक्ष के साथ महत्वपूर्ण मुद्दों पर सार्थक बातचीत करने के लिए बहुत कम या बिल्कुल भी कोशिश नहीं की है.
विधेयकों को जबरन पारित किया जाता है, चर्चाओं को बीच में ही रोक दिया जाता है, विवादास्पद मुद्दों पर चर्चा की अनुमति नहीं दी जाती. जब भारत में चीनी घुसपैठ पर बहस की मांग की जाती है, तो उसे तुरंत अस्वीकार कर दिया जाता है. जब ऑपरेशन सिंदूर पर चर्चा के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई जाती है, तो प्रधानमंत्री उसमें शामिल ही नहीं होते. अब, जब पहलगाम के बाद की स्थिति पर विशेष सत्र की मांग की जाती है, तो सरकार इस अनुरोध को नजरअंदाज कर देती है. जब बहस को दबा दिया जाता है, तो लोकतंत्र कमजोर होता है.
मीडिया का पक्षपातपूर्ण रवैया
तीसरा, मीडिया का एक बड़ा हिस्सा पक्षपातपूर्ण भूमिका निभा रहा है, जिस पर नजर रखनी चाहिए. जब मीडिया सरकार का लाउडस्पीकर बन जाता है और विपक्ष को चुप करा देता है या लगातार उससे पूछताछ करता है, तो देश की बातचीत में बराबरी का मौका मिलना मुश्किल है.
ऑपरेशन सिंदूर पर भी मीडिया ने सरकार से असहज सवाल करने की बहुत कम या बिलकुल कोशिश नहीं की. बल्कि नियमित रूप से सरकारी प्रोपेगैंडा को बढ़ावा दिया. इसमें हैरानी की बात नहीं कि चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ ने भारतीय जेट के नुकसान की बात सिंगापुर में एक विदेशी मीडिया नेटवर्क के सामने स्वीकार की, न कि भारत की मीडिया के सामने.
जब घरेलू मीडिया की विश्वसनीयता पर असर पड़ता है, तो इससे सूचना का अभाव पैदा होता है जो जनहित के खिलाफ काम करता है. जनता को जानने का अधिकार है, न कि गलत सूचनाओं की अंधेरी सुरंग में रखे जाने का.
सोशल मीडिया का खतरनाक असर
अंत में, घरेलू राजनीति में विभाजन का एक प्रमुख कारण सोशल मीडिया का खतरनाक प्रभाव है. सोशल मीडिया के युग में यह पहला भारत-पाकिस्तान संघर्ष है. सोशल मीडिया झूठ और गाली-गलौज का एक ऐसा खतरनाक चैंबर है जिसमें किसी भी चर्चा में शालीनता के लिए कोई नियम या फिल्टर नहीं है. यह सभी के लिए मुफ्त चैंबर है जिसमें अतिवादी आवाजों के लिए पर्याप्त स्पेस है जबकि संयम और बारीकियों की अभिव्यक्तियाां तेजी से हाशिए पर जा रही हैं.
सोशल मीडिया पर साउंडबाइट्स को चालाकी से एडिट किया जाता है, रील वायरल हो जाती है, ट्विटर युद्ध और बहसें आम बात हैं. जब सनसनी हावी हो जाती है तो समझदारी कौन चाहता है? घरेलू राजनीति सोशल मीडिया पर ऐसे खेल रही है जहां सही खबरों की जगह शोर ज्यादा मायने रखता है.
इसलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि हमारी राजनीति में संवाद की कोई भी उम्मीद धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है. ऑपरेशन सिंदूर ने भले ही हमारे नेताओं को विदेशी धरती पर एकजुट कर दिया हो, लेकिन घरेलू मैदान पर हम पहले की तरह ही बुरी तरह से विभाजित हैं.
और आखिर में, सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल एक विपक्षी सांसद ने बताया कि उन्हें अपने साथी भाजपा सांसद 'काफी अच्छी इंसान' लगीं. उन्होंने मुझे बताया, 'संसद में वह मुझे शत्रुतापूर्ण नजरों से देखती हैं, लेकिन विमान में उनसे बात करना काफी अच्छा लगा.' इसका मतलब है कि शायद, कुछ और सर्वदलीय दौरे दोनों पार्टियों के रिश्तों में जमी बर्फ को पिघलाने में मदद कर सकते हैं.