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मोदी फैक्टर से लेकर महिला वोटर्स के मूड तक... चुनाव नतीजों में क्या दिखा? प्रीति चौधरी के 10 Takeaways

उत्तर प्रदेश में नई दलित राजनीति का उदय देखने को मिला. नगीना सीट पर अकेले दम पर चुनावी मैदान में उतरे दलित युवा नेता चंद्रशेखर आजाद पर हर किसी की नजरें टिकी थीं. उनकी जीत के साथ बसपा के भविष्य को लेकर चर्चाएं होने लगीं. बसपा का इस बार खाता तक नहीं खुला.

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लोकसभा चुनाव में एनडीए ने बहुमत हासिल किया है.
लोकसभा चुनाव में एनडीए ने बहुमत हासिल किया है.

2024 का लोकसभा चुनाव हाल के समय का सबसे दिलचस्प चुनाव है. प्रत्येक राज्य में दूसरे की तुलना में अलग-अलग मुद्दे पर मतदान होते देखा गया. मैंने 5 राज्यों उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा और पश्चिम बंगाल में जाकर मतदाताओं के मूड को जानने की कोशिश की और 48 दिन बिताए. चुनावी माहौल को समझने के लिए विस्तार से इसका एनालिसिस किया तो 10 बड़ी बातें निकलकर सामने आई हैं. 

1. मतदाता को यह ना बताएं कि आप वापस आ रहे हैं. 400 पार की तो बात ही छोड़ दीजिए. सबसे कम संसाधन होने के बावजूद आम आदमी यह बर्दाश्त नहीं करेगा कि उसकी उपेक्षा की जाए.

2. गरीब 'लाभार्थी' का गुस्सा अब सिर्फ 5 किलो मुफ्त राशन से शांत नहीं होगा. मैंने पूर्वी उत्तर प्रदेश में 'राशन नहीं, रोजगार' की गूंज सुनी.

3. मोदी फैक्टर कम हुआ है, लेकिन खत्म होने से बहुत दूर है. मोदी अभी भी वोटर्स के एक बड़े वर्ग के बीच पॉपुलर हैं और लोग उन्हें पसंद करते हैं. राजस्थान के एक स्थानीय किसान के शब्द थे- 'नाराज हैं, पर गद्दार नहीं.'

4. महिला वोटर्स को लेकर भी मिथक है. जबकि महिलाएं, पुरुषों की तुलना में अलग तरह से वोट करती हैं. महिलाएं भी अन्य महिलाओं की तुलना में अलग तरह से वोट करती हैं. यह सोचना कि डायरेक्ट कैश ट्रांसफर या अन्य महिला केंद्रित SOPS जैसी योजनाएं महिलाओं को सामूहिक रूप से आकर्षित करेंगी, गलत है. उदाहरण के तौर पर जो बात ममता बनर्जी के लिए काम आई, वो अरविंद केजरीवाल या जगन मोहन रेड्डी के लिए काम नहीं आई. महिलाओं की वोटिंग प्राथमिकता बंगाल से लेकर मध्य प्रदेश, हरियाणा और यूपी के विभिन्न क्षेत्रों में बहुत अलग देखी गई.

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5. यह 543 सीटों वाला चुनाव था. कोई 'आम' चुनाव नहीं. कोई सिंगल नैरेटिव नहीं. अलग संसदीय क्षेत्र और अलग चुनाव.

6. रिलीजन सेंट्रिक पॉलिटिक्स की पोलराइजिंग में युवाओं का बड़ा रोल रहा है. मैंने युवा वोटर्स के बीच बहुत सुना 'हिंदू-मुसलमान' नहीं होना चाहिए.

7. हिंदी हार्टलैंड में नए जाति कॉम्बिनेशन का उदय देखने को मिला है. हरियाणा में दलितों और जाटों ने देवीलाल युग के बाद पहली बार एक साथ मतदान किया है. पूर्वी राजस्थान में जाट-मीना-गुर्जर गठबंधन आखिरी बार 2018 में देखा गया था. उत्तर प्रदेश में यादवों के साथ दलितों ने पहली बार वोट किया. हालांकि, यह अस्थायी सोशल इंजीनियरिंग है या लंबे समय तक चलने वाला प्रभाव? यह सवाल बना हुआ है.

8. उत्तर प्रदेश में नई दलित राजनीति का उदय देखने को मिला. नगीना सीट पर अकेले दम पर चुनावी मैदान में उतरे दलित युवा नेता चंद्रशेखर आजाद पर हर किसी की नजरें टिकी थीं. उनकी जीत के साथ बसपा के भविष्य को लेकर चर्चाएं होने लगीं. बसपा का इस बार खाता तक नहीं खुला. दलित पॉलिटिक्स करने वालीं मायावती की टेंशन बढ़ी है. इस चुनाव में बसपा और मायावती को उनके कोर वोटर्स ही बीजेपी की बी टीम के रूप में देखते रहे. क्या हम यूपी में नए और उभरते दलित नेता को देख रहे हैं?

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9. इस चुनाव में संविधान की गूंज भी गली-चौराहों पर सुनने को मिली. उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में एक दलित गांव में 'संविधान बचाना है' की बात सुनी गई. कोलकाता के एक आलीशान कॉफी शॉप में भी 'संविधान बचाओ लोकतंत्र बचाओ' की बातें कही जा रही थीं.

10. कमंडल की राजनीति इस बार मंडल की राजनीति पर भारी पड़ी है. राम मंदिर की गूंज मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में सुनने को मिली, लेकिन उत्तर प्रदेश जाति की राजनीति में उलझ गया और यह मंदिर की राजनीति पर हावी हो गई. यहां तक ​​कि फैजाबाद जिले की अयोध्या सीट पर भी बीजेपी को हार मिली और समाजवादी पार्टी ने जीत हासिल की. यहां के ग्रामीण इलाकों में मैंने यह नारा सुना - "ना मथुरा, ना काशी, अयोध्या में पासी.''

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