कांग्रेस का कर्नाटक संकट अभी खत्म नहीं हुआ है. भले ही ब्रेकफास्ट पर मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और डिप्टी सीएम डीके शिवकुमार की बातचीत को अच्छा बताया गया हो, और सरकार बनने के समय से ही आपस में भिड़े दोनों नेताओं ने सब ठीक-ठाक होने का दावा किया हो. लेकिन, ये झगड़े को टालने जैसा ही है. असल बात तो ये है कि समस्या का कोई स्थाई समाधान नहीं निकल सका है.
कर्नाटक संकट भी बिल्कुल वैसा ही है जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीते दिनों देखा जा चुका है. तीनों ही राज्यों में 2018 में कांग्रेस को एक साथ ही सत्ता हासिल हुई थी, लेकिन कहानी का अंत अलग अलग तरीके से हुआ. मध्य प्रदेश में तो बीच में ही कमलनाथ को सत्ता से हाथ धोना पड़ा था. ज्योतिरादित्य सिंधिया तो मौका देखकर निकल लिए, लेकिन सचिन पायलट अब तक धैर्य की परीक्षा दे रहे हैं.
एजेंडा आजतक में सचिन पायलट की मौजूदगी में दिग्विजय सिंह ने कर्नाटक के सवाल पर पावर शेयरिंग का जो फॉर्मूला सुझाया है, वो समस्या का किताबी समाधान तो लगता है लेकिन हालात ऐसे हो चले हैं कि वो व्यावहारिक समाधान नहीं लगता. सीनियर कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने कमान में ढाई-ढाई साल के बंटवारे को अव्यावहारिक बताया है.
कर्नाटक संकट का दिग्विजय फॉर्मूला
20 नवंबर को कर्नाटक में कांग्रेस सरकार के ढाई साल पूरे हुए, तो मुख्यमंत्री बदलने की चर्चा होने लगी. ये बात इसलिए क्योंकि कहा जाता है कि 2023 में डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया के बीच ऐसा ही बोलकर समझौता कराया गया था. बीच बीच में दोनों नेताओं के बीच कई बार टकराव की स्थिति महसूस की गई.
हाल फिलहाल जब बात नहीं बन पा रही थी, तो बेंगलुरु से मामला दिल्ली पहुंचा. और, पिछले हफ्ते सोनिया गांधी के सामने भी समस्या का हल निकालने की कोशिश हुई. चर्चा तो खूब हुई, लेकिन कोई समाधान नहीं निकल सका. कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने मीटिंग के बाद बताया कि कर्नाटक को लेकर पार्टी नेतृत्व आगे भी चर्चा करेगा, ताकि इस मुद्दे को जल्द से जल्द सुलझाया जा सके.
एजेंडा आजतक में जब ये मुद्दा उठा तो दिग्विजय सिंह का कहना था, ये जो बात होती है ढाई-ढाई साल की शेयरिंग की, ये बिल्कुल अव्यावहारिक है... मैं तो हमेशा से इस पक्ष का रहा हूं कि लोकतांत्रिक तरीके से विधायकों के बीच में सीएम का चुनाव होना चाहिए... जिसके पास ज्यादा विधायक हैं, वो मुख्यमंत्री बने और जो नंबर दो पर है वो उपमुख्यमंत्री बने... और उपमुख्यमंत्री को जो पोर्टफोलियो चाहिए वो देना चाहिए.
मंच पर मौजूद सचिन पायलट से जब दिग्विजय सिंह के बयान पर प्रतिक्रिया मांगी गई तो वो टाल गए. बोले, दिग्विजय सिंह को राजीनिति में 50 साल हो गए, वो इस तरह का बयान दे सकते हैं. मैं तो इस पर कमेंट करने वाला नहीं हूं.
असल में सचिन पायलट भी एक दौर में डीके शिवकुमार जैसी स्थिति फेस कर रहे थे. सचिन पायलट तो अपने समर्थक विधायकों को लेकर होटल भी पहुंच गए थे. और, राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उनको नकारा और पीठ में छुरा भोंकने वाला बता रहे थे. बवाल बढ़ा तो समझौता कराया गया, लेकिन सचिन पायलट की शिकायत यही रही कि उन बातों पर कभी अमल नहीं हुआ.
कर्नाटक संकट का जिक्र करते हुए सचिन पायलट का कहना था, मुख्यमंत्री (सिद्धारमैया) हों या डीके शिवकुमार उन दोनों के मुंह से आज तक कभी सुना है कि हम पार्टी की बात मानने वाले नहीं हैं... या पार्टी के निर्णय को अस्वीकार करेंगे... उनकी महत्वाकांक्षा हो सकती है, लेकिन जो पार्टी तय करेगी उसे मानने के लिए वे तैयार हैं.
देखा जाए तो कर्नाटक में सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार फिलहाल वैसे ही आमने-सामने नजर आ रहे हैं, जैसी स्थिति कभी राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में देखी जा चुकी है. छत्तीसगढ़ में टीएस सिंहदेव भी सचिन पायलट की तरह कांग्रेस सरकार के कार्यकाल के आखिर तक अपने हक के लिए जूझते रहे. सचिन पायलट मैदान में बने हुए हैं, लेकिन टीएस सिंहदेव की उम्र 70 पार होने के कारण वो शांत हो गए हैं.
कांग्रेस में पॉवर शेयरिंग नासूर बन चुका है
सचिन पायलट और डीके शिवकुमार की तुलना करें, तो कई बातें समझ में आती हैं. समय भी अलग है. सचिन पायलट बागी रुख उस वक्त अख्तियार किए थे, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में चले गए थे, और कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था. सचिन पायलट बार बार कह रहे थे कि वो कांग्रेस नहीं छोड़ रहे हैं, बल्कि वो तो राहुल गांधी के किए चुनावी वादों पर अमल होते देखना चाहते हैं.
डीके शिवकुमार की बात करें तो सचिन पायलट के मुकाबले वो ज्यादा साधन संपन्न हैं, और कई बार संकटमोचक की भूमिका में भी देखे गए हैं. जब कर्नाटक में एचडी कुमारस्वामी की सरकार संकट में थी, तो वो विधायकों को मनाने के लिए मुंबई पहुंच गए थे. कामयाबी नहीं मिली, ये अलग बात है.
कांग्रेस में ये संकट तो तब भी आया था, जब दिग्विजय सिंह को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया था. तब माधवराव सिंधिया मुख्यमंत्री बनते बनते रह गए थे. अपनी लड़ाई उनको भी लड़नी पड़ी, लेकिन तब उनके सामने उनके बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा विकल्प नहीं मौजूद था.
अगर दिग्विजय सिंह के फॉर्मूले की बात करें, तो बताते हैं, सिद्धारमैया को ही ज्यादा विधायकों का समर्थन हासिल है. लेकिन, डीके शिवकुमार बराबरी का टक्कर दे रहे हैं. ऐसे फॉर्मूले भी तभी लागू हो सकते हैं, जब नेतृत्व मजबूत हो. जिन राज्यों में भी ऐसी समस्या आई, मामला तो राहुल गांधी के दरबार में ही फाइनल हुआ. ये भी मालूम हुआ कि उसमें प्रियंका गांधी वाड्रा की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही.
ऐसा भी नहीं कि जिन चुनौतियों से कांग्रेस जूझ रही है, बीजेपी बिल्कुल अछूती है. लेकिन, बीजेपी नेतृत्व ऐसे मामले आसानी से सुलझा लेता है. बीजेपी में मोदी-शाह ही फाइनल अथॉरिटी हैं. हर मामले में अंतिम बात उनकी ही होती है. कभी कांग्रेस में भी इंदिरा गांधी ऐसा ही किया करती थीं - मुद्दा ये है कि मजबूत नेतृत्व न होने का असर तो होगा ही, मौजूदा कांग्रेस उसी कमजोरी का खामियाजा भुगत रही है.