बिस्मिल्लाह खां स्वयं से जुड़ा एक किस्सा सुनाते हुए कहते हैं.. 'लखनऊ एक ऐसी जगह थी, बड़ी खूबसूरत जगह हिंदुस्तान में मानी गई. कोई पूछता लखनऊ में क्या है. कुछ नहीं मियां, तवायफ बैठती थी चौक में. खाली जायका लेने के लिए एक बार हम भी निकले. हमारे साथ दो-तीन आदमी और चले आए. टुंडे का कबाब खाने के लिए चले आए. वहां जा के देखें, कि वहां एक से आंख मिल गई. हमने कहा कि ये आंख से देखती नहीं, तीर मारती है. बगल में से टुंडे का कबाब लिया और उधर सुर लगा दिया ‘द न द न दन दन न दन दन..’ अर्रे-बाप रे बाप! अरे खां साहब, अरे खां साहब! हम कहिन, भागो यहां से. एक तो खूबसूरत, ऊपर से आंखों से तीर चलाए और तीसरे सुरीली भी. और जो हम भागे वहां से कि क्या बताएं ...
पंडित किशन महाराज के स्मृति पटल पर घटनाएं साफ साफ अंकित हैं. जैसे सब कल की ही बात हो. ‘.. तो सौभाग्य यह हुआ कि तीन साल की उम्र में हम पिता के साथ रहने लगे. ये जहां बाहर जाते, हम उनके साथ जाते. उनके साथ कितना कुछ घटित होते हुए देखा. अधिक निकट होने का नतीजा यह हुआ कि पिता-पुत्र, गुरु-शिष्य तो हम थे ही, एक मित्र का रूप भी हमारे संबंध ने ले लिया. 20 वर्ष की अवस्था तक हमें रियाज करवाते रहे. व्यायाम करवाते थे, अखाड़ा में कुश्ती करवाते थे. 20 साल की उम्र में रात को भी उनके साथ ही बैठकर खाते और दोपहर में भी. एक मजेदार घटना सुनाता हूं. एक दिन मां खाना देकर अंदर चली गईं, तो हमसे कहने लगे- किशन. हम कहा-जी. कहें कि यार, क्या तुम्हारी इच्छा शादी की नहीं हुई? हम कहा- नहीं. कहें कि जब तुम्हारी इच्छा शादी करने की हो तब हमसे बतला देना. 24 साल की उम्र तक हमने विवाह नहीं किया. 24 साल में हमने उनसे कहा कि अब आप जहां चाहे हमारी शादी कर दीजिए, मगर एक चीज कीजिएगा. कहें क्या? हम कहें कि शहर की लड़की से शादी मत कीजिएगा. किसी गांव की लड़की से हमारी शादी कीजिए. तो बनारस से 24 मील की दूरी पर स्थित गांव के तबला वादक अनोखे लाल के बड़े भाई की लड़की से किशन महाराज का विवाह हुआ. उनकी पत्नी पढ़ी लिखी नहीं थीं- आयीं तो 13 साल की थी. किशन महाराज की मां ने रामायण पढ़ पढ़ उनको हिंदी पढ़ना सिखाया.
संगीत में पंडित जसराज का ‘प्यारे से दिल’ के साथ परिचय महादेवी वर्मा ने कराया. कलकत्ते में एक कार्यक्रम का आयोजन था, महादेवी वर्मा आईं थीं. पंडित जसराज उस वाकये का जिक्र करते हुए कहते हैं, ‘हम गाकर उठे और उनसे मिलने गए, बहुत खुश हुईं. बोलीं- इलाहाबाद नहीं आते, मैंने कहा आता तो हूं. बोलीं- तब मिला करो.’ फिर जब उनके घर गया, तो कहने लगीं, ‘अनुज, तुम गाते तो बहुत अच्छा हो, पर थोड़ा प्यार करो न!’ हमको तो पहले समझ में नहीं आया, कहें- ‘इतना अच्छा, स्पष्ट बोलते हो, पीछे भावना भी लाओ न!’ अब साहब, इतनी बड़ी, इतनी महान व्यक्ति ने यह बात कही, तो थोड़ा सा गौर किया. सच में पाया कि हम कुएं पर तो जरूर खड़े हैं, मगर मुंडेर पर खड़े हैं, नीचे पानी में नहीं उतरे. बस आंख के आगे से पर्दा हट गया.’
‘कल्याणी’ के साथ मंगलमपल्ली बालमुरली कृष्ण के साक्षात्कार का किस्सा कुछ यूं है. केरल के समुद्र तट पर एक छोटा सा गांव. गांव के पास एक मंदिर. दूर-दूर तक जल की अपार राशि. तट पर फैली हुई सफेद बालू. सांझ ढले जल लहरी और संगीत लहरी में खोए हुए लोग. हवा में ‘सलामी’ का स्वर गूंज रहा है. जाने कहां से एक सुदर्शन, तन्वगी, मंच की ओर चली आती है. गल-गल-गल-गल-गल-गल-गल ध्वनि और लाल साड़ी पहने वह सुंदरी मंच पर गायक के साथ बिराजती है. गायक से कहती है, मुझ पर एक रचना रचो. गायक पूछता है, ‘तुम कल्याणी हो?’ ‘हां’ गायक उसी समय रागिनी पर एक सुंदर रचना रचता है. सामान्यतः 15-20 मिनट तक चलने वाले गायन के स्थान पर गायन डेढ़ घंटे से भी अधिक समय तक उसी राग में चलता है. ‘कल्याणी’ के माथे पर बिंदी है. बाल खुले हैं. रागिनी की एक स्वर लहरी और सौन्दर्य राशि में सारे श्रोता डूब जाते हैं. गायन समाप्त करके गायक आंखें खोलता है, न वहां रागिनी है और न उसकी लाल साड़ी का कोई चिन्ह. रेत पर बने है उसके पैरों के निशान. इस सांझ से पहले और बाद में किसी ने सौन्दर्य की उस सम्राज्ञी को नहीं देखा.
संतूर वादक पंडित शिवकुमार शर्मा एक बार स्विटरजलैंड में थे. पंडित शिवकुमार शर्मा बताते हैं.. 'आल्प्स में वह एक गांव जैसी जगह थी. छोटी सी. वहां केवल किसान रहते थे. थोड़े से. एक गिरिजा घर था वहां. थोड़े-बहुत घर, कार भी ऊपर नहीं आती थी. एक डाकघर था. रात में खाना खाकर हम जो बैठे तो चारों ओर केवल सन्नाटा हो गया. तब सुनाई दिया कि कहीं कोई गा रहा है. पास में कहीं पहाड़ी पर कोई किसान कहीं बैठा हुआ है. अकेला, स्विस, उसकी भाषा भी हमें समझ में नहीं आ रही थी. गा रहा था. उसे निकट से सुनने के लिए, जहां हम ठहरे थे, उस मकान में एक बाथरूम था जिसकी खिड़की खुली हुई थी और बत्ती बंद थी, हम अंधेरे में धीरे धीरे उस बाथरूम में जाकर बैठ गए. खिड़की से गायन की आवाज बहुत साफ सुनाई दे रही थी और वह उस सन्नाटे में, माहौल में, जहां भाषा भी हमें समझ में नहीं आ रही, हम उस स्वर को सुन रहे हैं. उस स्वर का जो हम पर असर हो रहा है कि हम सब तरह का संगीत भूल गए कि यह जो कर रहा है, काश हम ऐसा कर पाएं.'
एक बड़ी महफिल लगी थी. उस्ताद बिस्मिल्लाह खां शहनाई बजाकर जा चुके थे. उसके बाद बिरजू महाराज को कथ्थक करना था. शंभू महाराज दर्शकों में सबसे आगे की पंक्ति में बैठे पर्दा उठने का इंतजार कर रहे थे. ग्रीन रूम में किसी ने आकर बिस्मिल्लाह खां के कान में फुसफुसाया, ‘अच्छन के लड़के प्रोग्राम है.’ अच्छन महाराज के साथ बिस्मिल्लाह खां की पुरानी दोस्ती रह चुकी थी किसी जमाने में. अब दोस्त नहीं रहा, उसका लड़का नाच रहा है, तो वे भी जाकर शंभू महाराज की बगल में बैठ गए. बिरजू ने गुरुजनों को प्रणाम करके नाचना शुरू किया. ‘वाह, सुभानल्लाह’, तालियों की गड़गड़ाहट के बीच वे एक-एक करके भाव दिखाते गए. कृष्ण का, राधा का, यशोदा मैया का, गोप और सखी का. वह नाचना ऐसा था कि उस्ताद बिस्मिल्लाह खां दाद देना ही भूल गए. आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई, प्रोग्राम खत्म होने पर बिरजू ने आकर पांव छुए. बिस्मिल्लाह खां शंभू महाराज से बोले, ‘अबे शंभू, नाचता तो तू भी अच्छा है. अच्छन भी नाचता था. मैंने तुम्हें दाद भी खूब दी. मगर हमेशा मुंह से ‘वाह’ ही निकला. किसी का नाचना देखकर मेरी आंखों में आंसू नहीं आए. मगर इस लड़के ने तो मुझे रुला दिया. रुला दिया शंभू इसने मुझे. जीते रहो बेटा बिरजू. खूब नाम करो. बिस्मिल्लाह खां की आंखों में आंसुओं से बड़ी और कौन सी दाद बिरजू महाराज को मिलती?’
पंडित हरि प्रसाद चौरसिया बता रहे हैं उन अपने दिनों की बेगम अख्तर को ले के दीवानगी की बात. कैसे उनके कपड़े, उनके जेवरात, उनकी नाक की हीरे की लौंग की सतरंगी चमक, उनका सोने के वरक में लिपटा हुआ पान और गोली के आकार का तंबाकू किमाम, कैसे इन सबके नशे में युवा हरिप्रसाद बेगम अख्तर के दरवाजे के पीछे छिप-छिप कर उन्हें देखते थे. एक बार जब बेगम अख्तर ने उन्हें देख लिया और सामने बुला लिया, तो इनकी सिट्टी पिट्टी गुम. बस यही कह पाए कि बस, आपका पान एक बार खाना चाहते हैं, और उन्होंने कैसे इन्हें समझाया कि बेटा अभी तुम्हारी उम्र इस तरह के पान को खाने की नहीं है.