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पहाड़ों में फोन ऑफ कर घूम रहे थे साइंटिस्ट, वापस लौटे तो बन चुके थे नोबेल विनर, जानिए दिलचस्प कहानी

फ्रेड रामस्डेल को 2025 का फिजियोलॉजी या मेडिसिन का नोबेल पुरस्कार मिला है. मगर जब उनके विनर बनने का ऐलान किया गया तो वह उस वक्त व्योमिंग में अपनी पत्नी के साथ बिना फोन और नेटवर्क के बर्फ का मजा ले रहे थे.

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नोबेल पुरस्कार विजेता बनने पर फ्रेड रामस्डेल ने प्रतिक्रिया दी (Photo: Instagram@uclaalumni)
नोबेल पुरस्कार विजेता बनने पर फ्रेड रामस्डेल ने प्रतिक्रिया दी (Photo: Instagram@uclaalumni)

इस साल मेडिसिन का नोबेल प्राइज 64 साल के साइंटिस्ट फ्रेड रैम्सडेल (Fred Ramsdell) ने जीता है. चौंकाने वाली बात ये है कि फ्रेड रैम्सडेल (Fred Ramsdell) इस बात से बिल्कुल बेखबर थे कि वह 2025 का नोबेल पुरस्कार जीत चुके हैं. जब उन्हें नोबेल पुरस्कार विजेता घोषित किया गया तो उस वक्त वह बिना फोन, बिना नेटवर्क, सिर्फ बर्फ और नेचर के बीच अपनी पत्नी के साथ पहाड़ों में घूम रहे थे. वह डिजिटल डिटॉक्स कर रहे थे यानी वह मोबाइल या किसी भी गैजेट का इस्तेमाल नहीं कर रहे थे.

नेटवर्क से दूर थे फ्रेड रैम्सडेल

रैम्सडेल अपनी पत्नी के साथ वायोमिंग के पहाड़ों में लगभग तीन हफ्ते तक बैकपैकिंग ट्रिप पर गए हुए थे. WIRED को उन्होंने बताया कि वो वायोमिंग के पहाड़ों में लगभग 8,000 फीट की ऊंचाई पर येलोस्टोन नेशनल पार्क के पास थे. जहां वो हर चीज से दूर ताजी बर्फ में कैंपिंग का लुत्फ उठा रहे थे.

इस बात का उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं था कि स्टॉकहोम में नोबेल कमेटी उनसे बात करने की कोशिश कर रही है. जैसे ही उनकी पत्नी का फोन नेटवर्क में आया. उनके फोन पर नोटिफिकेशन की बाढ़ आ गई. उसमें 100 से ज्यादा मैसेज थे, जैसे ही उन्होंने फोन देखा तो चौंककर कहा, 'ओह माय गॉड, तुम्हें नोबेल पुरस्कार मिला है!' अपनी पत्नी के मुंह से ये बात सुनकर रैम्सडेल को पहले भरोसा नहीं हुआ था, लेकिन जब उन्होंने देखा कि सच में मैसेज आए हैं तो वो समझ गए कि ये कोई मजाक नहीं है. 

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किस खोज के लिए मिला नोबेल पुरस्कार

रैम्सडेल को उनके दो साथियों मैरी ई. ब्रंकॉ (Mary E. Brunkow) और शिमोन सकागुची (Shimon Sakaguchi) के साथ  'पेरिफेरल इम्यून टॉलरेंस' की खोज के लिए फिजियोलॉजी या मेडिसिन के फील्ड में नोबेल पुरस्कार मिला है. इन तीनों ने ये समझने की बड़ी खोज की है कि हमारा इम्यून सिस्टम अपने ही शरीर के ऊतकों पर हमला क्यों नहीं करता है यानी शरीर अपने ही अंगों को सेल्फ के तौर पर पहचानना कैसे सीखता है. 

ये खोज हमारे इम्यून सिस्टम को समझने में रेवोल्यूशन लेकर आई है और इससे ऑटोइम्यून बीमारियों जैसे रूमेटॉइड आर्थराइटिस, टाइप-1 डायबिटीज़ और ल्यूपस के इलाज के नए अवसर खुलेंगे. वैसे ये खोज एक अजीब प्रयोग से शुरू हुई थी.

टेनेसी स्थित ओक रिज नेशनल लाइब्रोट्री में एक पुरानी रेडिएशन रिसर्च से जुड़े 'स्कर्फी माइस' नाम के चूहों में एक ऐसी जेनेटिक खराबी थी, जिससे उनका इम्यून सिस्टम खुद उनके शरीर पर हमला करने लगती थी. रैम्सडेल और ब्रंकॉ ने 1990 के दशक में वो जीन खोजा जो इस बीमारी का कारण था. यही खोज आज की सेल थेरेपी की नींव बनी, जो अब कैंसर और ऑटोइम्यून बीमारियों के इलाज में काम आ रही है.

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

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नोबेल पुरस्कार मिलने पर रैम्सडेल का रिएक्शन 

नोबेल पुरस्कार जीतने पर फ्रेड रैम्सडेल ने कहा, 'मुझे लगा था कि हमें पहले जो क्राफोर्ड प्राइज मिला था, वही इस खोज की सबसे बड़ी पहचान है, नोबेल का तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था.' इसके साथ ही उन्होंने कहा, 'ये टीम साइंस की जीत है, हम सबकी मेहनत से ये संभव हुआ है और बहुत से वैज्ञानिकों के योगदान के बिना हम यहां तक नहीं पहुंचते.'

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डिजिटल डिटॉक्स क्या है?

नोबेल विनर फ्रेड रामस्डेल अपनी पत्नी के साथ व्योमिंग के जंगलों में डिजिटल डिटॉक्स पर थे. जो लोग नहीं जानते हैं,  उनको बता दें कि डिजिटल डिटॉक्स का मतलब होता है कि आप जानबूझकर अपने डिवाइस से दूरी बनाते हैं.  डिजिटल डिटॉक्स से अपने ऑनलाइन एक्टिव रहने के टाइम को कम करते हैं,  क्योंकि मोबाइल और लैपटॉप से लेकर पूरे दिन चिपके रहने की वजह से कई बीमारियां हमें घेर लेती हैं. उन सभी बीमारियों को खुद से दूर करने के लिए आजकल लोग डिजिटल डिटॉक्स का सहारा लेते हैं. 
 

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