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Fatty Liver in Kids: 14 साल के लड़के का बदला गया लिवर, कैसे किशोरों के बीच बढ़ रहा Fatty Liver

Fatty Liver: हेपेटोलॉजिस्ट्स का कहना है कि आजकल के दौर में मां-बाप को बचपन से ही बच्चे के मोटापे और डाइट पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि फैटी लिवर, जो कभी बड़ों की बीमारी थी, अब टीनएजर्स को भी हो रही है.

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किशोरो में फैटी लिवर की दिक्कत (Photo: ITG)
किशोरो में फैटी लिवर की दिक्कत (Photo: ITG)

Fatty Liver: फैटी लिवर आज के दौर की तेजी से बढ़ती बीमारी है जो अब बच्चों और किशोरों को भी अपनी चपेट में लेने लगी है. रिसर्च से पता चला है कि कई जेनेटिक म्यूटेशन्स की वजह से यह तेजी से बिगड़ रही है.
टीनएजर्स में फैटी लिवर होना शायद बहुत कम हो. लेकिन यह हो रहा है.

फैटी लिवर अब क्रॉनिक लिवर डिजीज का सबसे आम कारण बन चुका है जो मोटापे से ग्रस्त लगभग 10-17 प्रतिशत टीनएजर्स को प्रभावित करता है. हालांकि, जो बात अभी भी बहुत कम होती है, वह है 18 साल से कम उम्र के बच्चे में लिवर ट्रांसप्लांट की जरूरत.

14 साल के लड़के का बदला लिवर

लेकिन गुजरात के सूरत के एक 14 साल के लड़के के लिए जान बचाने के लिए लिवर ट्रांसप्लांट करना पड़ा जो फैटी लिवर डिजीज के एक एडवांस्ड स्टेज में एक्यूट लिवर फेलियर के साथ मुंबई के सर एच. एन. रिलायंस फाउंडेशन हॉस्पिटल पहुंचा था.

उसका मामला इस बात की साफ याद दिलाता है कि बचपन के मोटापे पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत क्यों है, खासकर उन भारतीयों में जो जेनेटिकली फैटी लिवर डिजीज का ज्यादा शिकार हो सकते हैं, भले ही उनके पेट पर सिर्फ फैट हो.

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यह लड़का अब घर पर ठीक हो रहा है, उसके सभी पैरामीटर ठीक हैं क्योंकि एक महीने पहले ही उसका लिवर ट्रांसप्लांट हुआ था. उसके पिता ने डोनर के तौर पर आगे आकर उसे बचाने के लिए अपना दाहिना लोब दिया.

हॉस्पिटल में लिवर ट्रांसप्लांट और HPB सर्जरी डिपार्टमेंट के को-डायरेक्टर डॉ. गौरव गुप्ता कहते हैं, 'लड़के को गंभीर दिक्कतें हुईं, जिनमें पीलिया, पेट में पानी जमा होना और पानी का बहुत ज्यादा जमा होना शामिल था जिससे अचानक 15-20 kg वजन बढ़ गया. सर्जरी के बाद सूजन कम होने लगी.'

इस मुश्किल की वजह एक जेनेटिक म्यूटेशन था जो लिवर में फैट जमा होने को बढ़ावा देता है. लेकिन सिर्फ जेनेटिक्स ही इसके लिए जिम्मेदार नहीं थे. डॉ. गुप्ता बताते हैं, ये आदतें अक्सर खान-पान, मोटापा और इंसुलिन रेजिस्टेंस जैसे माहौल के फैक्टर्स के साथ मिलकर असर डालती हैं.

ज्यादा जेनेटिक रिस्क वाले इंसान को अगर हेल्दी लाइफस्टाइल बनाए रखें तो उन्हें कभी भी गंभीर बीमारी नहीं हो सकती. लेकिन कई टीनएजर्स की तरह, यह लड़का भी रेगुलर तौर पर बहुत ज्यादा प्रोसेस्ड और जंक फूड खाता था जिससे नुकसान तेजी से हुआ.

किन वजहों से हुआ लिवर डैमेज

लड़के की जांच करने के बाद डॉ. गुप्ता ने लिवर फेलियर के लक्षणों को मैनेज करने के सभी तरीकों के बारे में सोचा. लेकिन ट्रांसप्लांट ही एकमात्र ऑप्शन लग रहा था. डॉ. गुप्ता कहते हैं, 'ऐसे मामलों में लिवर टॉक्सिंस को फिल्टर करने, प्रोटीन बनाने और ग्लूकोज स्टोर करने जैसे जरूरी काम नहीं कर पाता.'

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'उसे जॉन्डिस था और बहुत ज्यादा फ्लूइड रिटेंशन था, खासकर उसके पैरों में. लिवर की नसों में बढ़े हुए प्रेशर से फ्लूइड पेट में चला जाता है जिससे गंभीर सूजन हो जाती है जिससे सांस लेने और खाने पर असर पड़ता था.'

कई जांचों से कई जेनेटिक म्यूटेशन का पता चला जिससे हालत इतनी तेजी से बिगड़ने की वजह पता चली. वो आगे बताते हैं, 'ट्रांसप्लांट जरूरी था क्योंकि एक हेल्दी डोनर लिवर में ऐसे म्यूटेशन नहीं होते.'

सर्जरी के समय फ्लूइड ओवरलोड की वजह से लड़के का वजन लगभग 84 kg था. आज उसका वजन 60s के आसपास है. डॉ. गुप्ता कहते हैं, उसका बिलीरुबिन लेवल 10 mg/dL से ज्यादा था और अब नॉर्मल हो गया है. लिवर फेलियर के सभी लक्षण ठीक हो गए हैं. क्योंकि यह कंडीशन जेनेटिक थी इसलिए फर्स्ट-डिग्री रिश्तेदारों को भी जेनेटिक टेस्टिंग करवाने की सलाह दी गई थी.

वो आगे कहते हैं, 'मकसद इसी तरह के नुकसान को रोकने के लिए लाइफस्टाइल में जल्दी सुधार करना है.'

डाइट ने लिवर को कैसे जल्दी खराब किया

जेनेटिक टेस्टिंग से PNPLA3 और GCKR जीन में हाई-रिस्क वेरिएंट का पता चला जो फैटी लिवर की बीमारी के प्रति सेंसिटिविटी को काफी बढ़ा देते हैं और खासकर भारतीय आबादी में ये काफी कॉमन हैं.

चीफ पीडियाट्रिक हेपेटोलॉजिस्ट और पीडियाट्रिक ट्रांसप्लांट फिजिशियन डॉ. आरती पावरिया कहती हैं, 'हालांकि, उसकी कंडीशन के पीछे सिर्फ जेनेटिक्स ही जिम्मेदार नहीं था. डाइट ने स्थिति को और बिगड़ा. अनहेल्दी डाइट पैटर्न, ज्यादा कैलोरी लेना और कम फिजिकल एक्टिविटी ने उनके जेनेटिक रिस्क को बढ़ा दिया.'

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लड़के ने बहुत ज्यादा प्रोसेस्ड फूड जैसे पैकेज्ड स्नैक्स, चिप्स, बर्गर, कुकीज, नूडल्स और सोडा का सेवन किया था जो आमतौर पर टीनएजर्स के पसंदीदा होते हैं. स्कूलों, पेरेंट्स और पॉलिसी मेकर्स को बच्चों से ऐसी चीजों को दूर रखने लिए मिलकर काम करने की जरूरत है.

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