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गुजर गए संजय गांधी के 'सेंसर मैन' वीसी शुक्‍ल

जंगल, मध्य भारत का जंगल, ये विद्या का समंदर था और वो इसकी शैतान मछली. पिता वकील थे, मगर विद्या बंजारों सा जब तब इन जंगलों में भटकता रहता था. फिर जब उसने 1951 में नागपुर के मॉरिस कॉलेज से बीए कर लिया, तो जिंदगी के सवाल उसे यहीं खींचकर लाए. जंगल में जवाब मिला विद्या को.

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जंगल, मध्य भारत का जंगल, ये विद्या का समंदर था और वो इसकी शैतान मछली. पिता वकील थे, मगर विद्या बंजारों सा जब तब इन जंगलों में भटकता रहता था. फिर जब उसने 1951 में नागपुर के मॉरिस कॉलेज से बीए कर लिया, तो जिंदगी के सवाल उसे यहीं खींचकर लाए. जंगल में जवाब मिला विद्या को.
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उन्होंने एक कंपनी शुरू की. उसका नाम था एलविन कूपर प्राइवेट लि. ये कंपनी आजादी के बाद के दशक में जंगल सफारी का आयोजन करती थी. जब जंगल का शोर, खौफ और बड़प्पन लेकर लोग सफारी से लौटते, तो विद्या को लगता कि उसके खजाने की साखी में एक और शख्स का इजाफा हो गया.

मगर जिंदगी यूं ही तो जंगल में नहीं भटक सकती थी. इसका इलहाम उन्हें भी था. आखिर पिता रविशंकर शुक्ल ने उन्हें अपना अर्दली जो बना रखा था. शुक्ल सेंट्रल प्रोविंस के सबसे कद्दावर नेता थे. वकील थे. जब वे संविधान सभा की बैठकों में जाते, तो विद्या का काम होता, उनकी फाइलें समेटना. उनसे मिलने वालों का ब्यौरा रखना.

अपने खनिज और जंगल सफारी का कारोबार जमाने के बाद विद्या फिर लौटे राजनीति के जंगल में. इस बार वे इंटर्न नहीं थे, बल्कि एंट्री की तैयारी में थे. पिता रविशंकर 1956 में मध्यप्रदेश के सीएम के तौर पर अपनी आखिरी बड़ी पारी खेल चुके थे. सूबे में कैलाश नाथ काटजू का दबदबा बढ़ चुका था. मगर विद्या पारिवारिक विरासत के दम पर महासमुंद सीट से टिकट ले आए. जीते तो 1957 में महज 28 साल की उम्र में लोकसभा सांसद बन गए.

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सिलसिला शुरू हो चुका था, दिल्ली की सियासत का. उन दिनों इंदिरा गांधी भी पिता की संभाल का दायरा बढ़ाकर उनकी राजनैतिक वसीयत की वारिस बनने को आतुर थीं. 1959 में इंदिरा पहली मर्तबा कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं. व्यवहार कुशल विद्या जल्द ही इंदिरा की फेवरिट लिस्ट में शामिल हो गए. जब शास्त्री के बाद इंदिरा पीएम बनीं, तो शुक्ल भी मंत्रिमंडल में शामिल हुए. छोटे भाई की सुप्रीमो से नजदीकी का सिला बड़े भाई को भी मिला. विद्या के बड़े भाई श्यामा चरण शुक्ल 1969 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.

अब तक विद्या चरण शुक्ल का सफर शानदार ढंग से चल रहा था. मगर उसमें कुछ ऐसा नहीं था, जो तारीख में न मिटने वाली लकीर सा माद्दा रखता हो. फिर आया इमरजेंसी का दौर. इंदिरा थीं, मगर होने से ज्यादा नेपथ्य में चली गई थीं. मंच पर घनी कलमों, मोटे चश्मे और तीखी कश्मीरी नाक वाले संजय का पदार्पण हो चुका था. उसी तेजी से, जिस तेजी से वे मारुति चलाने का हवा हवाई दावा करते थे.

इमरजेंसी के शुरुआती दिनों में ही संजय कोटरी का ध्यान सूचना और प्रसारण मंत्रालय की तरफ गया. ये संजय के मिजाज के मुताबिक नहीं चल रहा था. इस पर जब तब विपक्ष की खबरें भी आ रही थीं. उससे भी भयानक अपराध यह था कि यह मंत्रालय अपनी नाक के नीचे छप रहे अखबारों को, उनकी खबरों को नियंत्रित नहीं कर पा रहा था. ऐसे में एक शाम इंदिरा से संजय ने गुफ्तगू की और परवाना निकल गया. उस समय के मंत्री इंदर कुमार गुजराल को राजदूत बनाकर रूस रवाना कर दिया गया. और आईबी मिनिस्ट्री का जिम्मा मिला विद्याचरण शुक्ल को.

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उस दिन के बाद विद्या ने अपनी निष्ठा दिखाने का कोई मौका जाया नहीं किया. हर अखबार प्रकाशन से पहले उनके दफ्तर जाता था और काले रंग के घेरों में रंगकर वापस आता था. हालत ये हो गई थी कि संपादकों ने खीझकर संपादकीय की जगह खाली छोड़नी शुरू कर दी. इसके बाद विद्या ने इस चलन पर भी रोक लगा दी.

वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता ने अपनी किताब द संजय स्टोरी में इसका जिक्र किया है. उनके मुताबिक विद्या सबसे बड़े संपादक और एक शख्स वाले सेंसर बोर्ड बन गए थे. इसी वक्त अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ न सिर्फ रिलीज होने से रोक दी गई थी बल्कि इसके सारे प्रिंट भी नष्ट करवा दिए गए थे. बाद में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद 1977 में ये फिल्म फिर से रिलीज हुई. दूरदर्शन का ये हाल था कि हर जगह उसका पूरा का पूरा स्टाफ संजय गांधी के दौरों को कवर करने में व्यस्त रहता था. टीवी पर हर दूसरा प्रोग्राम, बीस सूत्री कार्यक्रम, परिवार नियोजन और अतिक्रमण हटाने की कवायद पर केंद्रित हो गया था.

मसला यहीं नहीं रुकता. विद्या का खौफ दिल्ली के संपादकों के पार जाकर मुंबई में भी परसने लगा था. राजनैतिक गलियारों में ये मशहूर किस्सा है कि विद्या ने अपने गृह राज्य मध्य प्रदेश के रहने वाले सिंगर किशोर कुमार से कहा कि वे संजय गांधी की सभा में आकर गाएं. फक्कड़ मिजाज के किशोर ने इनकार कर दिया. नतीजतन, अगले दो बरस तक किशोर की आवाज रेडियो से गुल हो गई.

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दिल्ली के गलियारों में एक और बतकही बहुत मशहूर है. इसके मुताबिक विद्या के काम से इंदिरा गांधी इतनी खुश थीं, कि जब दिल्ली में 1982 में ट्रेड फेयर के लिए मैदान और पैवेलियन बनकर तैयार हुए, तो उन्होंने इसका नाम विद्या की बड़ी बेटी के नाम पर प्रगति रख दिया. आज प्रगति मैदान दिल्ली का एक मेजर लैंडमार्क है, मगर इस किस्से की सच्चाई किसी को नहीं पता.

मैदान का नामकरण तो हो गया, मगर सफदरजंग हवाई अड्डे पर कलाबाजियों के शिकार बने संजय के बाद विद्या का सितारा भी कमजोर पड़ने लगा था. राजीव गांधी के सत्ता में आते ही दून स्कूल के बाबा लोग सियासत की शतरंज पर शह मात खेल रहे थे. इनके बीच पुराने अभिजात्य विद्या जम नहीं पाए. जब वीपी सिंह मिस्टर क्लीन राजीव गांधी की मुखालफत कर कांग्रेस से बाहर हुए, तो पीछे से विद्या भी निकल लिए. विद्या चरण शुक्ल ने हवा का रुख भांप लिया था. वह उन कुछ नेताओं में थे, जिन्होंने जन मोर्चा बनाकर राजा मांडा वीपी सिंह को कंधा दिया और इतना ऊपर उठाया कि वे राजीव के मुकाबले दिखने लगें.

उन दिनों का एक किस्सा बयान करते हैं वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय. बकौल राय मौका था जनमोर्चा नेताओं के चेन्नई दौरे का. एंबैसडर कार में सब सवार थे. आगे ड्राइवर के बगल में विद्याचरण शुक्ल. पीछे वीपी सिंह और खुद राय. पत्रकार महोदय ने वीपी सिंह से पूछा कि ये दौरा और रैली तो ठीक हैं, मगर पार्टी कब बनेगी. वीपी कुछ बोलते, उससे पहले विद्या का जवाब आया. अभी उसमें कम से कम दस महीने और लग जाएंगे.

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ये एक जवाब बहुत सवाल चुप कराता था. पहला, मोर्चे में चेहरा भले ही सिंह थे, मगर बैकरूम स्ट्रैटिडी विद्या के निर्देशन में बन रही थी. दूसरा, विद्या को ये पता था कि चुनाव लड़ने के लिए सिर्फ हवा नहीं, उस पर सवारी करने का खटोला यानी दल भी चाहिए. इस वाकये के कुल जमा दस महीने बाद 11 अक्टूबर 1988 को जनता दल बना. फिर 89 में नारा गूंजा, राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है. तकदीर फौरी तौर पर बदली, राष्ट्रीय मोर्चा और वाम मोर्चा की सरकार बनी. बीजेपी ने बाहर से समर्थन दिया और वि्दया चरण शुक्ल की कैबिनेट में वापसी हुई.

इसी दौरान का राय एक और किस्सा सुनाते हैं. हुआ यूं कि इंदिरा के समय से ही विद्या को राष्ट्रपति भवन के पीछे स्थित प्रेजिडेंट एस्टेट में बंगला मिला हुआ था. सबसे बड़ा और भव्य बंगला. एक दिन यहां जन मोर्चा की बैठक हुई. इसमें हरियाणा के खांटी नेता देवी लाल भी आए हुए थे. जब वीपी सरकार बनी, तो ताऊ देवी लाल उप प्रधानमंत्री बने. उन्होंने विद्या से कहा कि मुझे तुम्हारा घर बहुत पसंद है. विद्या ने इशारा भांप लिया और बंगला खाली कर दिया ताऊ के लिए. बकौल राय, विद्या व्यवहार कुशल थे और जानते थे कि राजनीति में ऐसे जेस्चर मौके पर बहुत काम आते हैं.

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एक डेढ़ साल में ही राजनीति की हवा फिर बदली और विद्या ने इसे फिर समय रहते भांप लिया. जनता दल का एक धड़ा अध्यक्ष जी, यानी चंद्रशेखर के नेतृत्व में टूटा और विद्या उनके साथ हो लिए. साथ दिया था तो मंत्री पद मिलना ही था. 1991 में राष्ट्रीय मोर्चा भानुमती के कुनबे की तरफ बिखर चुकी थी. कुछ ही बरसों में विद्या कांग्रेस में लौट आए और जल्द ही नरसिम्हा राव के खास बन गए. कैबिनेट में एंट्री फिर हुई. मगर राव राज जाने के बाद उनके सितारे भी रूठने लगे.

केसरी फकत कोषाध्यक्ष थे और पीछे की कुर्सी पर बैठते थे, जब विद्या ने लगातार सत्ता सुख देखा था. ऐसे में केसरी अध्यक्ष बने, तो विद्या किनारे कर दिए गए. तख्ता पलटा और उनकी जगह सोनिया आईं. लेकिन विद्या आलाकमान की किचेन कैबिनेट में वापस नहीं आ पाए.

2000 में मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों को अलग कर छत्तीसगढ़ बना. विद्या की पारंपरिक सीट महासमुंद इसी में आती थी. अलग हुए राज्य के विधायक दल में कांग्रेस बहुमत में थी. ऐसे में सीएम भी उसी का बनना था. विद्या को लगा कि उनकी बारी आ गई है. मगर ताज सजा ब्यूरोक्रेट से नेता बने अजीत जोगी के सिर. यही जोगी कभी रायपुर के कलेक्टर थे और शुक्ल जी को यस सर यस सर किया करते थे. मगर राजनीति अतीत को अक्सर मुंह चिढ़ाती है. विद्या को ये ताजपोशी नागवार गुजरी, उन्होंने कसम खा ली, कि सूबे में कांग्रेस की जड़ें खोद देनी हैं. 2003 में चुनाव हुए. तब तक विद्या कांग्रेस छोड़ चुके थे. उन्होंने शरद पवार की एनसीपी ज्वाइन कर ली थी. राज्य में वही पार्टी के सर्वे सर्वा थे. उन्होंने हर जगह कांग्रेस कैंडिडेट को ध्यान में रखकर टिकट बांटे.

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जब नतीजा आया तो शुक्ल के हिस्से सिर्फ एक सीट आई, मगर कांग्रेस के हिस्से में उन्होंने खूब सारी खीझ दे दी. दरअसल एनसीपी कैंडिडेट्स के चलते कांग्रेस 90 सदस्यों वाली विधानसभा में 28 सीटों पर हार गई. तब मुस्कुराते हुए विद्या ने कहा था कि राजनीति कलेक्टर की कलम से नहीं चलती. इशारा साफ था. मगर इसके बाद फिर शुक्ल धीमे धीमे हाशिये पर जाने लगे. एनसीपी का ढांचा खड़ा करने के लिए जिस ऊर्जा की जरूरत थी, वो उमर के चलते उनके अंटे में बची नहीं थी. कुछ ही बरस बाद जब वाजपेयी की सरकार गई, तो तय हो गया कि विद्या के पास कांग्रेस में लौटने के अलावा कोई चारा नहीं. लेकिन ऐसी किसी भी कोशिश का अजीत जोगी ने भरसक विरोध किया. फिर भी विद्या पार्टी में लौट आए. लौटे, लेकिन करने को कुछ था नहीं.

ऐसे में उन्होंने एकांतवास चुन लिया था. साउथ दिल्ली के फ्लैट में रहते थे. कभी कभार रायपुर जाते थे. इधर चुनावों की सुगबुगाहट शुरू हुई, तो छत्तीसगढ़ के कई कांग्रेसी छत्रपों ने उनका आशीर्वाद औऱ साथ मांगा. विद्या को सक्रिय होने के लिए ऐसी ही किसी संजीवनी का इंतजार था. वह उम्र को झुठलाकर फिर से सक्रिय हो गए. परिवर्तन यात्रा के दौरान उनका उत्साह देखते ही बनता था.

फिर आया 25 मई का दिन. वही जंगल था और सफारी का फील देती वही राइड. लेकिन समय बेरहम हो चुका था. धमाका हुआ, गोलियां चलीं और तीन विद्या के शरीर में आकर अटक गईं. उन्होंने तब भी धैर्य नहीं खोया. जब मौके पर पत्रकार पहुंचे, तो खून से सने, जमीन पर पड़े विद्या उन्हें निर्देश देने के अंदाज में बोले, उठाकर बैठाओ मुझे. शुक्ल की तबीयत लगातार बिगड़ी. जगदलपुर के अस्पताल में उनकी गोलियां निकाली गईं. फिर रायपुर में इलाज हुआ. और आखिर में एयर एंबुलेंस में वह गुड़गांव के मेदांता मेडिसिटी अस्पताल लाए गए. शुरुआती दिनों के बाद हालत सुधरने लगी थी. एक हफ्ते पहले वह परिवार जनों से इशारों में बात करने लगे थे और वेंटिलेटर से हटाए जाने की बात भी होने लगी थी. मगर फिर इन्फेक्शन शुरू हो गया. बढ़ा और इसके चलते उनके अंग एक एक कर काम करने बंद हो गए. मंगलवार को विद्या चरण शुक्ल ने अंतिम सांस ली.
जंगल से जिस जिंदगी ने रफ्तार पकड़ी थी, वहीं अचानक रुक उसने आखिरी सफर का रुक्का लिया.

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