सूचना प्रौद्योगिकी में आ रहे बदलाव के बीच कभी हर दिल अजीज माने जाने वाले खतों का संसार खत्म हो गया है. अब चिट्ठी-पाती से मिलने वाली खबर की जगह फोन, मोबाइल, ई-मेल तथा चैटिंग ने ले ली है.
दूरदराज या सात समंदर पार रहने वाले अपनों की कुशलक्षेम के इंतजार में लोग कभी डाकिए की बेसब्री से राह देखते थे. पति-पत्नी, प्रियतम-प्रेयसी के बीच तो खतों के अल्फाज की कहानी कुछ अलग ही हुआ करती थी, जो दिलों को कभी श्रृंगार, तो कभी वियोग रस से सराबोर करती नजर आती थी, लेकिन आज सबकुछ बदल-सा गया है. रिश्तों को जोड़ने वाली पाती की जगह अब प्लास्टिक और धातु के यंत्रों ने ले ली है, जिनमें भावनाओं का वैसा प्रकटीकरण नहीं हो पाता, जो खतों से हुआ करता था.
समाजशास्त्री स्वर्ण सहगल का कहना है कि पत्रों की भाषा में एक अजीब-सी मिठास होती थी, जिससे दिल को अद्भुत खुशी का अहसास होता था, लेकिन अब ऐसा नहीं रह गया है. उन्होंने कहा कि आधुनिक संचार प्रौद्योगिकी का होना अत्यंत आवश्यक है, परंतु चिट्ठी-पत्री के अस्तित्व को भी बनाए रखना चाहिए.
खतों के महत्व को बहुत-सी फिल्मों में भी दर्शाया गया है. ‘बॉर्डर’ फिल्म को एक उदाहरण के रूप पेश किया जा सकता है, जिसमें पत्रों के जरिए सरहद के रखवाले फौजियों और उनके परिजनों के मन की खुशी तथा व्यथा झलकती है. {mospagebreak}चिट्ठियों में लिखे जाने वाले ‘अत्र कुशलम् तत्रास्तु’ ‘आदरणीय पिताजी को सादर चरण स्पर्श ’ ‘आगे समाचार यह है कि मैं यहां पर ठीक से हूं और आशा करता हूं कि ईश्वर की कृपा से आप भी कुशल होंगे’ ‘ज्यादा क्या लिखूं..’ जैसे वाक्य अब जैसे अतीत में कहीं गुम हो गए हैं. संदेश का सबसे सशक्त माध्यम माने जाने वाले अंतर्देशीय लिफाफे और पोस्टकार्ड पूरी तरह उपेक्षित हैं.
भारतीय डाक विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी एमएस कुमार के अनुसार संचार के नए-नए माध्यमों के चलते अब खतों का दौर समाप्त सा हो गया है. अब लोग लंबे इंतजार की बजाय सेकंडों में कहीं भी संपर्क स्थापित कर लेते हैं. अब अंतर्देशीय और पोस्टकार्ड का इस्तेमाल करने वाले बहुत कम लोग ही मिलेंगे. उन्होंने कहा कि पत्रों की दुनिया को बचाए रखने की जरूरत है. इसका एक गौरवशाली अतीत है, जिसे भूल जाना किसी भी लिहाज से उचित नहीं होगा.
(सात दिसंबर को पत्र दिवस पर विशेष)