प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को 2019 में सत्ता से हटाने के लिए विपक्ष में एकजुटता की कोशिशें तेज हो गई हैं. तीसरे मोर्चा बनाने की कवायद को लेकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सक्रिय हैं. ममता ने दिल्ली में विपक्षी दलों के तमाम नेताओं के साथ मुलाकात की और उसके बाद कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी मिलीं.
सोनिया से मुलाकात के बाद मोदी को हराने के लिए ममता ने 2019 के लिए वन-टू-वन फाइट का फॉर्मूला दिया. सोनिया गांधी और कांग्रेस को ममता का ये फॉर्मूला रास आया या नहीं, इसको लेकर पार्टी ने कोई संकेत नहीं दिए हैं लेकिन राजनीतिक जानकारों की मानें तो राहुल के नेतृत्व वाली कांग्रेस को ममता का ये फॉर्मूला शायद ही मंजूर हो.
ममता ने सोनिया से मुलाकात के बारे में कहा, 'मैंने उनसे कहा कि जो पार्टी जहां मजबूत है, वहां उसको दमदारी से लड़ना चाहिए. हम चाहते हैं कि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों को बीजेपी से मुकाबले के लिए मदद करे. यह आमने-सामने की लड़ाई ही भारतीय जनता पार्टी को खत्म करेगी.
बीजेपी के असंतुष्ट नेता अरुण शौरी ने कहा कि वन टू वन फार्मूले से मोदी के आसानी से हराया जा सकता है. तालमेल और सीट बंटवारे का जिम्मा राज्य के बड़े मजबूत नेता को दिया जाए. मोदी के खिलाफ विपक्ष को 69 प्रतिशत वोट का टारगेट रखना चाहिए.
ममता के वन-टू-वन फॉर्मूले के मुताबिक यूपी में एसपी-बीएसपी, बिहार में लालू की आरजेडी, महाराष्ट्र में एनसीपी. तमिलनाडू में डीएमके और पश्चिम बंगाल में खुद ममता बनर्जी की पार्टी की बोलबाला है. यूपी में 80 लोकसभा, पश्चिम बंगाल में 42, बिहार में 40, महाराष्ट्र में 48 और तमिलनाडु में 39 सीटें हैं. यानी कुल मिलाकर करीब आधी सीटों पर ममता चाहती हैं कि कांग्रेस स्थानीय दलों के सामने सरेंडर कर दे.
ये सही है कि कांग्रेस इन पांचों राज्यों में जूनियर पार्टनर (सपा, बसपा, टीएमसी, वामदल, आरजेडी और डीएमके) है. ऐसे में उसके लिए यहां संभावनाएं काफी सीमित हैं. ममता के फॉर्मूले को स्वीकार किया तो कांग्रेस यहां क्षेत्रीय दलों की मर्जी पर निर्भर रहेगी. सवाल उठता है कि कांग्रेस अगर इस फॉर्मूले को मान भी लेती है तो उसे फायदा क्या होगा. जिन दूसरे राज्यों में वो अकेले लड़ने वाली है जैसे कर्नाटक, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात वहां ये छोटे दल उसे कोई फायदा नहीं पहुंचाएंगे. फिर कांग्रेस बिना किसी फायदे के इन दलों के प्रभाव वाले राज्यों की अपनी संभावनाएं भला क्यों कुर्बान करेगी.
विधानसभा चुनाव में तो वैसे ही क्षेत्रीय दलों का बोलबाला रहता है, पार्टी का गांधी ब्रांड लोकसभा में ही कुछ दम दिखा पाता है अगर पार्टी लोकसभा चुनाव में भी इन दलों के जूनियर पार्टनर की तरह रही तो उसके रिवाइवल की उम्मीदें हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगे. पार्टी अपने भविष्य को लेकर ये जोखिम मोल लेगी ऐसा लगता नहीं है.
दरअसल कांग्रेस भी इन्हीं क्षत्रपों को 2019 में एकजुट करके मोदी के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरने की कवायद कर रही है. लेकिन कांग्रेस जूनियर पार्टनर के तौर पर नहीं बल्कि गठबंधन के सबसे मजबूत दल के रूप में इसकी अगुवाई करना चाहती है. ऐसे में कांग्रेस के मंसूबों से उलटा ममता का फॉर्मूला है. जाहिर है कांग्रेस के लिए इसे स्वीकारना आसान नहीं होगा.