देश की दूसरी सबसे पुरानी पार्टी शिरोमणि अकाली दल में मचा हुआ घमासान इन दिनों पंजाब की सियासत के सुर्खियों में है. पिछले कई चुनावों में लगातार मिली असफलता ने पार्टी के भीतर असंतोष को बढ़ाया है जिसके चलते कई नेताओं ने सुखबीर बादल के इस्तीफे की मांग तक की थी. हालत तब और गंभीर हो गए जब शिअद ने हाल ही में कोर कमेटी को ही भंग कर दिया. कहा गया कि सुखबीर बादल ने अपने खिलाफ विरोध को शांत करने के लिए ये कदम उठाया. लेकिन यहां सबसे जरूरी बात ये समझना है कि ये पहला मौका नहीं है जब शिअद में इस तरह के विरोध के स्वर उठे हैं. इससे पहले भी पार्टी में कई उतार-चढ़ाव आए हैं लेकिन इतिहास बताता है कि हमेशा शिअद मजबूती के साथ वापसी करती दिखी है.
जानें क्यों उठे विरोध के स्वर
जानकार बताते हैं कि बार-बार चुनावी हार ने शिरोमणि अकाली दल (शिअद) में असंतोष पैदा किया. चुनावी आंकड़े भी शिअद की गिरावट के बारे में बहुत कुछ बताते हैं. पार्टी को 2012 के विधानसभा चुनावों में 34.73 प्रतिशत वोट शेयर हासिल हुआ था जो 2017 और 2022 में गिरकर क्रमशः 30.6 प्रतिशत और 18.38 प्रतिशत हो गया. पार्टी का लोकसभा वोट शेयर भी गिरावट की ओर है. यह 2019 में 27.76 प्रतिशत से घटकर 2024 में 13.42 प्रतिशत पहुंच गया.
बागियों के खिलाफ क्या है शिअद सुप्रीमो की प्लानिंग
जिन 8 नेताओं ने खुलेआम विरोध किया था और सुखबीर बादल को घेरने के लिए "शिरोमणि अकाली दल सुधार लहर" अभियान चलाया, उन्हें अब कार्रवाई का सामना करना पड़ रहा है. कोर कमेटी को भंग करना एक ऐसा ही फैसला था. सूत्रों का कहना है कि पार्टी असहमति को दूर करने के लिए नई समिति के पुनर्गठन की प्रक्रिया में है.
इससे पहले बेअदबी मामले को लेकर भी सुखबीर सिंह पर कई सवाल उठे थे.जिसको लेकर सुखबीर बादल ने माफी मांगी थी. कहा था कि उन्हें पीड़ा है कि वो बेअदबी करने वालों को सजा नहीं दिला सके. इस मामले में सुखबीर ने लिखित माफी भी मांगी है, जिसपर अकाल तख्त फैसला सुना सकती है. बताया जा रहा है कि विरोध को शांत करने के लिए ये सुखबीर की रणनीति का हिस्सा है.
क्या कहता है शिअद का पुराना इतिहास
जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक और इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट एंड कम्युनिकेशन (आईडीसी) के अध्यक्ष प्रोफेसर प्रमोद कुमार का कहना है कि अकाली दल में असंतोष का इतिहास पुराना है लेकिन जब भी पार्टी को नेतृत्व संकट का सामना करना पड़ा है तो यह पार्टी और मजबूत होकर उभरी है. उन्होंने बताया कि 1947 के बाद पार्टी का दो बार कांग्रेस में विलय हुआ. 1966 में जाटों ने मास्टर तारा सिंह को हटा दिया और फतेह सिंह को पार्टी प्रमुख बनाया. संकट 1997 में तब मंडराया जब गुरचरण सिंह टोहरा प्रमुख बन गए. लेकिन 1997 मोगा घोषणापत्र में शहरी हिंदुओं का उदय हुआ जिन्होंने शिरोमणि अकाली दल का समर्थन किया.
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उन्होंने बताया कि आतंकवाद के दौरान और 1992 से पहले अकाली दल का नेतृत्व भी नष्ट हो गया था. ऐसा लग रहा था कि अकाली दल का राजनीतिक वजूद खत्म हो जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. लोकसभा चुनाव में हुए फैसले को लेकर आईडीसी चेयरमैन का यह भी कहना है कि अकाली दल ने इतिहास से सीखा है. अगर उसने कट्टरपंथी तत्वों से हाथ मिलाया होता तो उसने फरीदकोट और खडूर साहिब सीटें जीत ली होतीं, लेकिन इससे हिंदू और दलित मतदाताओं में गलत संदेश जा सकता था.
कैसे शिअद हो सकती है मजबूत
प्रमोद कुमार ने बताया कि अगर पार्टी अपनी बहुसांस्कृतिक परंपराओं को जारी रखती है तो एक मजबूत क्षेत्रीय पार्टी के रूप में उभरेगी. इससे शिअद को फायदा मिलेगा. प्रोफेसर कहते हैं कि कट्टरपंथी तत्वों का विरोध करने और अन्य संस्कृतियों को साधने से मजबूती मिल सकती है.
बता दें कि शिरोमणि अकाली दल में उठी बगावत के बीच शिअद के प्रमुख सुखबीर सिंह बादल ने मंगलवार को संगठन के अहम फैसले लेने वाली अपनी कोर कमेटी को भंग कर दिया था. इस कोर कमेटी में शामिल कई नेताओं ने लोकसभा चुनावों में मिली हार के बाद सुखबीर सिंह बादल से इस्तीफे की मांग की थी.