लोकसभा चुनाव की मतगणना वाली तारीख यानी 4 जून एक ऐसा दिन रहा जिसे जम्मू-कश्मीर के दो पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती जल्द से जल्द भूलना चाहेंगे. हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के उपाध्यक्ष उमर बारामूला निर्वाचन क्षेत्र से हार गए जबकि पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की प्रमुख महबूबा अनंतनाग से हार गईं. सबसे बड़ा उलटफेर उत्तरी कश्मीर में देखने में मिला जहां "इंजीनियर राशिद" के नाम से मशहूर निर्दलीय उम्मीदवार अब्दुल राशिद ने उमर अब्दुल्ला को 2 लाख वोटों के बड़े अंतर से हरा दिया.
एनसी नेता उमर अब्दुल्ला की बारामूला सीट से हार और भी बड़ी इसलिए हो जाती है क्योंकि राशिद ने दिल्ली की उच्च सुरक्षा वाली तिहाड़ जेल से चुनाव लड़ा, जहाँ वह गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत बंद है. राशिद को जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद गिरफ्तार किया गया था. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि इंजीनियर राशिद की जीत कई मायनों में भारतीय लोकतंत्र की जीत है.
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उन्होंने जेल में रहते हुए अपना नामांकन पत्र दाखिल किया था. उनके परिवार को इस बात पर भी संदेह था कि उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति मिलेगी या नहीं. हालांकि अभी वह केवल एक आरोपी हैं और दोषी साबित नहीं हुए हैं, इसलिए चुनाव आयोग ने उनका नामांकन स्वीकार कर लिया. यहीं से उनकी चुनावी यात्रा की शुरूआत हुई. बिना पैसे, बिना किसी संगठनात्मक ढांचे और बगैर चुनावी रणनीति के राशिद के बेटे अबरार अहमद ने कुछ दोस्तों की मदद से रोड शो शुरू किया. कुछ ही दिनों में इस अनोखे अभियान ने बड़ी भीड़ को खींचना करना शुरू कर दिया. सहानुभूति ने उन्हें जनता से जुड़ने में मदद की. बच्चों से लेकर युवाओं और यहां तक कि बुजुर्गों ने भी उनके रोड शो में जमकर हिस्सा लिया.
अपने पिता के लिए दो सप्ताह में ही ऐतिहासिक अभियान चलाने वाले अबरार अहमद कहते हैं, 'मैंने 20 समर्थकों के साथ शुरुआत की. मेरा इरादा लोगों से मिलना और उन्हें हमारा उद्देश्य समझाना था. जब मैंने देखा कि लोग बड़ी संख्या में हमारे साथ जुड़ रहे हैं, खासकर युवा जो हमारे साथ नंगे पैर भी आए, तो मुझे लगा कि हम जीत सकते हैं. बिना किसी पैसे, बड़ी पार्टी या चुनावी रणनीति के यह सपना सच हो सकता है.' राजनीतिक पर्यवेक्षकों के अनुसार जेल में बंद नेता के लिए एक संगठित अभियान का यह एक दुर्लभ उदाहरण है. लोगों ने इस उम्मीद में अपना समर्थन दिया कि राशिद की जीत से जेल से बाहर निकल जाएंगे.
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इंजीनियर राशिद के लिए सहानुभूति की लहर ने उमर अब्दुल्ला और जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के सज्जाद गनी लोन जैसे दिग्गजों के चुनावी अभियान पर पानी फेर दिया. जेल में बंद अपने पिता के लिए अबरार अहमद का अभियान इस बात की केस स्टडी भी है कि कैसे मोटी रकम, उचित चुनावी रणनीति, मजबूत सोशल मीडिया टीम और दो बड़े प्रतिद्वंद्वियों के चुनावी अनुभव के बाबजूद जमीन पर अपनी छाप छोड़ी जा सकती है और चुनाव को अपने पक्ष में मोड़ा जा सकता है. इंजीनियर राशिद के लिए एक और बात जो कारगर साबित हुई कि उनके अभियान ने वहां बहिष्कार की हवा को अगल तरह से हवा दिया (मौजूदा नेताओं के खिलाफ) जो पहले कभी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बहिष्कार की अलगाववादी विचारधारा से प्रभावित था.
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मतदाताओं का यह वर्ग राशिद के समर्थन में इसलिए भी निकलकर आया क्योंकि उन्हें लगा कि राशिद को लोगों का साथ देने की सजा दी जा रही है. अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद, जब कश्मीर में हर राजनीतिक दल ने फिर से इसकी बहाली के मामले में आत्मसमर्पण कर दिया, तब इंजीनियर राशिद अपनी आवाज बुलंद कर रहे थे. जिसके कारण लोगों को लगा कि उन्हें अपने सिद्धांतों से समझौता न करने के लिए प्रताड़ित किया गया. जब उत्तरी कश्मीर में यह नाटकीय पटकथा लिखी जा रही थी, तब दक्षिण और मध्य कश्मीर में दो पुराने प्रतिद्वंद्वियों, एनसी और पीडीपी, के बीच पारंपरिक चुनावी लड़ाई देखने को मिली.
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जहां तक अनंतनाग संसदीय क्षेत्र का सवाल है, पीडीपी के लिए बहुत कुछ दांव पर लगा था. क्योंकि निर्वाचन क्षेत्र के परिसीमन के बाद यहां से पार्टी प्रमुख महबूबा मुफ्ती चुनावी मैदान में थीं. यह अब दक्षिण कश्मीर की वह सीट नहीं रह गई थी जिसे पीडीपी का गढ़ माना जाता था. अनंतनाग में अब पुंछ और राजौरी को भी जोड़ दिया गया था. इसलिए इस बार यहां समीकरण बदल गए थे और एक मजबूत गुज्जर नेता मियां अल्ताफ अहमद को मैदान में उतारने की एनसी की रणनीति को एक मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा था. पुंछ और राजौरी में गुज्जर वोट बैंक काफी संख्या में हैं इसलिए गुज्जर वोट नेशनल कॉन्फ्रेंस के पक्ष में एकजुट हो गया.
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इसके साथ ही अनंतनाग और कुलगाम के पारंपरिक पीडीपी समर्थक क्षेत्रों में कम मतदान ने यह सुनिश्चित किया कि महबूबा के पास अपनी रणनीति या मौजूदा स्थिति को बदलने की बहुत कम गुंजाइश बचे. दरअसल, अनंतनाग में महबूबा की हार को पार्टी के लिए एक और झटका माना जा रहा है. अनंतनाग सीट से अपनी जीत के बाद मियां अल्ताफ ने कहा, 'मैं लोगों को उनके भारी समर्थन के लिए धन्यवाद देता हूं. यह लोगों की जीत है. मैं लोगों के लिए काम करने की पूरी कोशिश करूंगा. महबूबा जी मेरी बहन जैसी हैं. चुनाव में हार-जीत लगी रहती है.'
कश्मीर के लिए यह आम चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहा. यहां इस बार अब तक का सबसे अधिक मतदान हुआ, जिसमें पहली बार मतदान करने वाले अधिकांश लोगों ने बदलाव के लिए अपना वोट डाला. लोगों ने लोकतंत्र में अपनी आस्था जताई. साथ ही यह भी उम्मीद जताई कि जम्मू-कश्मीर में जल्द ही विधानसभा चुनाव होंगे.