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ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों के खिलाफ क्यों उठी आवाज? एंटी-इमिग्रेशन रैली में इंड‍ियंस बने निशाना

ऑस्ट्रेलिया में प्रवासियों की बढ़ती संख्या अब सियासत से निकलकर सड़कों पर बहस का मुद्दा बन गई है. विरोध की आड़ में जहर घोलने वाले संगठन और कट्टरपंथी समूह भारतीयों को खासतौर पर निशाना बना रहे हैं. सवाल ये है कि रोजगार, मकान और महंगाई जैसी चुनौतियों का असली हल क्या प्रवासियों को दोष देना है? या फिर ये नाराजगी सिर्फ बहानेबाजी और वोटों की राजनीति का हिस्सा है?

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ऑस्ट्रेलिया में ‘मार्च फॉर ऑस्ट्रेलिया’ रैली में प्रदर्शनकारियों ने जताया व‍िरोध
ऑस्ट्रेलिया में ‘मार्च फॉर ऑस्ट्रेलिया’ रैली में प्रदर्शनकारियों ने जताया व‍िरोध

रविवार को ऑस्ट्रेलिया के करीब 20 शहरों में हज़ारों लोग मास इमिग्रेशन (बड़े पैमाने पर हो रहे प्रवास) के खिलाफ सड़क पर उतरे. इन रैलियों में खास तौर पर भारतीयों को टारगेट किया गया. अब सवाल ये उठता है कि ये प्रदर्शन कर कौन रहा है और भारतीयों से दिक्कत क्यों है?

ऑस्ट्रेलिया की आबादी और भारतीय समुदाय

ऑस्ट्रेलिया एक ऐसा देश है जहां ज्यादातर लोग किसी न किसी वक्त बाहर से आकर बसे हैं. बड़ी आबादी का नाता इंग्लैंड से है. ऑस्ट्रेलियन ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स के मुताबिक भारतीय मूल के लोग यहां दूसरे नंबर के सबसे बड़े प्रवासी समुदाय हैं. यहां आज भी पहले नंबर पर UK है.  जून 2023 तक करीब 8.4 लाख भारतीय मूल के लोग ऑस्ट्रेलिया में रह रहे थे.

हालांकि, पूरी आबादी में भारतीयों की हिस्सेदारी सिर्फ 3.2% है. फिर भी, जब महंगाई बढ़ रही हो, घरों की कीमत आसमान छू रही हो और बेरोजगारी की टेंशन हो तो गुस्सा प्रवासियों पर ही निकलता है. 

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2000 के बाद लगातार बढ़ा भारतीयों का पलायन

डेटा दिखाता है कि साल 2000 के बाद से भारतीयों का ऑस्ट्रेलिया जाना लगातार बढ़ा है. सिर्फ कोविड के सालों में इसमें रुकावट आई.

किसे है दिक्कत?

राजनीतिक पार्टियां चाहे सत्तारूढ़ हों या विपक्षी भारतीय समुदाय के योगदान की तारीफ करती हैं. लेकिन, ऑस्ट्रेलिया में मौजूद व्हाइट सुप्रेमेसिस्ट और नियो-नाज़ी ग्रुप्स रंग, धर्म और पहचान की वजह से भारतीयों की मौजूदगी पर आपत्ति जताते हैं. प्रदर्शन आयोजित करने वाले ग्रुप March for Australia ने अपने पैम्फलेट में भारतीयों को सीधा निशाना बनाया. एक पैम्फलेट जिसमें लिखा हुआ था, '5 साल में जितने भारतीय आए, उतने ग्रीक और इटालियन 100 साल में भी नहीं आए.'

राजनीति की वजह भी

कई लोगों को लगता है कि भारतीय मूल के लोग लिबरल पार्टी (कंजरवेटिव) को सपोर्ट करते हैं. यही वजह है कि डर है कि भविष्य के चुनावी नतीजों पर उनका असर पड़ सकता है. प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज़ की सरकार ने साफ कहा है कि इन रैलियों के आयोजक नियो-नाज़ी एलिमेंट्स से जुड़े हैं.

रैलियों में नियो-नाज़ी और व्हाइट सुप्रेमेसिस्ट

सोशल मीडिया पर जो लोग इस रैली को बढ़ावा दे रहे थे, उनके प्रोफाइल से साफ झलकता है कि वे कौन हैं. उनमें से ज्यादातर महिलाओं से नफरत करने वाले (Misogynists) हैं,  व्हाइट सुप्रेमेसिस्ट (सिर्फ गोरों का राष्ट्र चाहने वाले) हैं और क्लाइमेट चेंज डिनायर है. इनमें से बहुत से ट्रम्प सपोर्टर, एंटी-अबॉर्शन एक्टिविस्ट्स और ढेरों साजिश सिद्धांतों के समर्थक हैं. 

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रैलियों में National Socialist Network (NSN) नाम का नियो-नाज़ी ग्रुप भी मौजूद रहा. इस ग्रुप का लीडर थॉमस सीवेल मंच से भाषण देता दिखा.

सीवेल का ग्रुप पहले भी ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासी आबोरिजिनल्स की सभाओं पर हमला कर चुका है. सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो में सीवेल नाज़ी-स्टाइल के निशान पहने रैली को संबोधित करता दिखा और भीड़ जयकारे लगाती रही. 

सोशल मीडिया पर नफरत

एक शख्स जारोड हैम्पटन ने खुद को व्हाइट नेशनलिस्ट बताते हुए X (पहले ट्विटर) पर लिखा कि अब वक्त आ गया है कि हमें हमारा WHITE NATION वापस दो.

एक और अकाउंट Anti-Feminist Australia ने 24 घंटे में दर्जनों पोस्ट डालकर NSN की तारीफ की और यहां तक लिख डाला कि महिलाओं को वोटिंग राइट देना सबसे बड़ी गलती थी, क्योंकि वे भावनाओं से प्रभावित होकर फैसले लेती हैं.

इमिग्रेशन के खिलाफ पुरानी आवाज

क्रेग केली, जो पहले सीनेटर रह चुके हैं, लगातार पोस्ट करते हैं कि क्लाइमेट चेंज एक 'फरेब' है. रिन्यूएबल एनर्जी एक 'भ्रम' है और सस्ती बिजली के लिए ज्यादा कोयला जलाना चाहिए. 

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