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दिंडोरी लोकसभा सीट: बीजेपी का गढ़, NCP देती है कड़ी टक्कर

परिसीमन के पहले दिंडोरी लोकसभा सीट मालेगांव का हिस्सा हुआ करती थी. उस वक्त यह जनता दल का गढ़ भी कहा जाता था. 1957 में प्रजा समाजवादी पार्टी के यादव नारायण जाधव सांसद बने. फिर 1962 में कांग्रेस सत्ता में आई. माधव लक्ष्मण जाधव लोकसभा पहुंचे. 1967 और 1971 में झामरू मंगलू कहांडोल कांग्रेस की टिकट से सांसद बने.

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दिंडोरी लोकसभा सीट.
दिंडोरी लोकसभा सीट.

महाराष्ट्र की दिंडोरी लोकसभा सीट 2008 में परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई थी. इसके बाद यहां 2009 में बीजेपी के हरीशचन्द्र चव्हाण ने जीत हासिल की. वो 2014 के लोकसभा चुनाव में भी जीतने में सफल रहे. उन्होंने एनसीपी की भारती प्रवीण पवार को चुनाव हराया. चव्हाण ने 542,784 वोट हासिल किए. जबकि पवार को 295,165 वोट मिले.  

क्या है इस सीट का इतिहास...

परिसीमन के पहले दिंडोरी लोकसभा सीट मालेगांव का हिस्सा हुआ करती थी. उस वक्त यह जनता दल का गढ़ भी कहा जाता था. 1957 में प्रजा समाजवादी पार्टी के यादव नारायण जाधव सांसद बने. फिर 1962 में कांग्रेस सत्ता में आई. माधव लक्ष्मण जाधव लोकसभा पहुंचे. 1967 और 1971 में झामरू मंगलू कहांडोल कांग्रेस की टिकट से सांसद बने.

फिर 1977 में हरिभाऊ महाले भारतीय लोक दल की टिकट से सांसद का चुनाव जीते. लेकिन 1980 में झामरू मंगलू कहांडोले ने कांग्रेस को एक बार फिर जीत दिलाई. 1984 में कांग्रेस के सीताराम भोये जीते तो 1989 में हरिभाऊ महाले ने जनता दल को वापसी करवाई. 1991 में फिर कहांडोले सांसद बने. 1996 में कचरू भाऊ राऊत ने इस सीट पर बीजेपी की एंट्री करवाई. लेकिन 1998 में झामरू मंगलू कहांडोले जीते. 1999 में हरिभाऊ महाले जनता दल (S) को जीत दिलाने में सफल रहे.

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हालांकि, 2004 में हरीशचन्द्र चव्हाण जीते. इसके बाद दिंडोरी लोकसभा सीट के अस्तित्व में आने के बाद 2009 और 2014 में वो दोबारा यहां से जीत दर्ज करने में सफल हुए.

परिसीमन के बाद कैसे बदल गया जातीय समीकरण...   

मालूम हो कि दिंडोरी गुजरात से नजदीक है. इस कारण यहां के अधिकतर लोगों का रोजगार गुजरात में ही है. जानकारों का कहना है कि इस भौगोलिक स्थिति के कारण यहां की राजनीति पर भी असर होता है. दिंडोरी की पहचान यहां के स्वामी समर्थ आध्यात्मिक केंद्र और गुरुकुल के रूप होती है. धार्मिक जगह होने के साथ-साथ यहां गावों में आपको आधुनिकता नजर आएगी. लेकिन इसके बावजूद आदिवासी बहुल इलाके अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

बताया जाता है कि मुस्लिम बहुल इलाके में एक वक्त निहाल अहमद का बोलबाला था. लेकिन मालेगांव के धुलिया से जुड़ने के बाद इस लोकसभा सीट के समीकरण पूरी तरह बदल गए. वहीं, सुरगना और पेठ में कम्युनिस्टों का वर्चस्व आज भी कायम है. हर चुनाव में एक से डेढ़ लाख वोट कम्युनिस्ट पार्टी ले जाती है.

क्या है विधानसभा सीटों का इतिहास...

दिंडोरी लोकसभा सीट बीजेपी के पास होने के बावजूद यहां की 5 विधानसभा सीटों पर केवल एक भी विधायक बीजेपी से है. यहां विधानसभा सीटों पर राष्ट्रवादी कांग्रेस का वर्चस्व है. दिंडोरी विधानसभा सीट पर राष्ट्रवादी कांग्रेस (एनसीपी), कलवण में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (M),चांदवड में बीजेपी, निफाड में शिवसेना और येवला पर एनसीपी का राज है.

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