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दिल्ली में कैसे घटीं बेट‍ियां, क्या चोरी-छुपे जेंडर टेस्टिंग और अबॉर्शन जारी है? जानिए- कौन इसका जिम्मेदार

देश का दिल दिल्ली से फिर एक बार गंभीर बहस ने जन्म लिया है. एक मेट्रो स‍िटी जहां कहा जाता है कि हर संसाधन लोगों तक पहुंच रहा. फिर भी यहां लड़कियों की जन्म दर लगातार चार साल से घट क्यों रही है. क्या दिल्ली में अभी भी जेंडर का पता लगाकर अबॉर्शन जारी है या फिर इसके पीछे कुछ और भी वजह है, आइए एक्सपर्ट से जानते हैं.

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सवाल ये है कि आख‍िर क्यों घट रही हैं बेटियां? (Image Generated by Grok)
सवाल ये है कि आख‍िर क्यों घट रही हैं बेटियां? (Image Generated by Grok)

दिल्ली में बेटियों के जन्म का आंकड़ा लगातार चौथे साल गिरा है. सरकार के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि 2024 में राजधानी में हर 1,000 लड़कों पर सिर्फ 920 बेटियां पैदा हुईं. 2023 में यह आंकड़ा 922 था, जबकि 2022 में 929 और 2018 में 933 तक पहुंच गया था. यानी साल-दर-साल बेटियों का जन्म प्रतिशत घट रहा है.

इसके पीछे की वजहों पर बात करें तो ये समाज में पहले से व्याप्त 'बेटे की चाहत' वाली सोच पर तो मुहर है ही. साथ ही इसके पीछे चोरी छुपे चल रहे ऐसे सेंटर हैं जो जेंडर टेस्ट‍िंग यानी अल्ट्रासाउंड के जरिये भ्रूण का लिंग परीक्षण करते हैं. कड़े कानूनों के बावजूद आखिर समाज में बेट‍ियों के प्रति सोच क्यों नहीं बदल पा रही है. आख‍िर बेट‍ियों की घटती जन्मदर के पीछे की वजहें क्या हैं. एक्सपर्ट इस पर अलग तरह की राय देते हैं.

ये हैं सरकार के ताजा आंकड़े

कुल जन्म (2024): 3,06,459 (2023 में 3,15,087)
औसत रोजाना जन्म: 837 (2023 में 863)
लड़कियों का प्रतिशत: 47.9% (1,46,832)
लड़कों का प्रतिशत: 52.1% (1,59,549), अन्य: 78 (0.03%)

क्यों घट रहा है लड़कियों का जन्म?

विशेषज्ञों का मानना है कि यह गिरावट मामूली दिख सकती है लेकिन ट्रेंड खतरनाक है. इसकी वजहों में गैरकानूनी भ्रूण लिंग परीक्षण और गर्भपात को अहम कारण बताया जा रहा है. दिल्ली-एनसीआर में लंबे समय से यह आशंका जताई जाती रही है कि कई जगह अवैध तरीके से Prenatal Sex Determination (जेंडर टेस्टिंग) की जा रही है. दिल्ली के पूर्व एमसीडी हॉस्पिटल एडमिनिस्ट्रेशन डायरेक्टर अरुण यादव ने टीओआई से बातचीत में कहा कि हमें इन गैरकानूनी यूनिट्स पर लगातार कार्रवाई की जरूरत है, न कि सिर्फ छिटपुट रेड्स से कुछ होगा.

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सिर्फ आंकड़े नहीं, गंभीर सामाजिक संकेत

लगातार चार साल से घटता लिंगानुपात साफ इशारा है कि कहीं न कहीं बेटियों के जन्म को लेकर समाज की सोच अब भी बदली नहीं है. कुल जन्म दर में 2.7% की गिरावट और साथ ही लिंगानुपात में कमी दोनों मिलकर ये दिखाते हैं कि आने वाले समय में दिल्ली की जनसांख्यिकी पर इसका असर पड़ सकता है.

प‍ितृसत्ता बड़ी वजह है: समाजशास्त्री

व‍िश्वस्तर समाज शास्त्री जेएनयू के प्रोफेसर व‍िवेक कुमार का कहना है कि दिल्ली जैसे शहरी और शिक्षित कहे जाने वाले इलाकों में बेटियों के जन्म का प्रतिशत कम होना सिर्फ मेडिकल या बायोलॉजिकल फैक्टर से नहीं समझा जा सकता. ये दरअसल हमारे समाज की गहरी पैठी हुई पितृसत्तात्मक मानसिकता का नतीजा है. चाहे वो लिंग चयन हो, भ्रूण हत्या हो या फिर 'बेटा होगा तो वंश आगे बढ़ेगा' जैसी धारणाएं, ये सभी आज भी व्यवहार और फैसलों को प्रभावित कर रही हैं.

प्रो व‍िवेक कुमार आगे कहते हैं कि सवाल ये है कि जब दिल्ली जैसे महानगर में, जहां शिक्षा, कानून और स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सबसे बेहतर कही जाती है, वहां भी बेटियां कम पैदा हो रही हैं तो छोटे कस्बों और गांवों की स्थिति का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है.

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PC-PNDT एक्ट केवल एक कानूनी औजार है, लेकिन अगर सामाजिक मानसिकता में बदलाव नहीं हुआ तो केवल कानून से तस्वीर नहीं बदलेगी. जरूरत है कि शिक्षा व्यवस्था, मीडिया और सरकारी नीतियां मिलकर 'बेटा-बेटी एक समान' की भावना को सामाजिक व्यवहार का हिस्सा बनाएं. वरना डेटा चाहे जितना आए असल जिंदगी में बेटियों के लिए जगह सिकुड़ती ही जाएगी.

'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' का असर समाज में द‍िखना जरूरी

पीएनडीटी एक्ट पर लंबे समय से काम कर रहीं लोरा प्रभु (डायरेक्टर, Centre for Equity and Inclusion) कहती हैं कि अगर आप दूसरे आंकड़े देखें तो तस्वीर और भी चिंताजनक है. महिलाओं की वर्कफोर्स पार्टिसिपेशन बेहद खराब स्थिति में है और जेंडर-बेस्ड वायलेंस लगातार बढ़ रहा है. ये दोनों बातें एक-दूसरे से जुड़ी हैं. जब तक ये स्वीकार नहीं होगा कि बेटी भी परिवार और समाज में आर्थिक योगदान कर सकती है, तब तक उसकी 'वैल्यू' नहीं बढ़ेगी.

लोरा प्रभु के अनुसार आज भी बेटियों को पढ़ाकर शादी कर देना ही लक्ष्य माना जाता है. दहेज की प्रैक्टिस जारी है और उसके बाद घरेलू हिंसा व स्ट्रीट वायलेंस जैसी समस्याएं शुरू हो जाती हैं. साफ शब्दों में कहें तो यानी शिक्षा, रोजगार और सुरक्षा तीनों मोर्चों पर महिलाओं को बराबरी नहीं मिल रही. संसद में भी आजादी के इतने साल बाद सिर्फ 10-15 प्रतिशत महिलाएं ही पहुंच पाई हैं. ये बताता है कि पॉलिसी लेवल पर भी गैप कितना गहरा है.

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वो कहती हैं कि द‍िल्ली में सेक्स रेशियो घट रहा है और महामारी के बाद ये स्थिति और खराब हुई है. 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' जैसे कैंपेन अच्छे नारे हैं लेकिन ये समाज के नैरेटिव में गहराई से उतरना जरूरी है. जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक PC-PNDT एक्ट या कोई भी कानून सिर्फ कागजों में रह जाएगा. असल बदलाव तभी आएगा जब हर इंसान भीतर से जेंडर भेदभाव को खत्म करने की कोशिश करेगा. सरकार और संस्थाओं की जिम्मेदारी है, लेकिन परिवार और समाज को भी ये समझना होगा कि बेटी बोझ नहीं, बराबरी की भागीदार है.

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