scorecardresearch
 

देवता भी बंटे और जल-जंगल, जमीन भी... कैसे बनी तमिलों की 'देव पंचायत'?

तमिलों की भूमि पहले से ही अपनी अलग आस्थाओं और मान्यताओं से समृद्ध थी. ये परंपराएं स्थानीय खासियतों के साथ रची गईं थीं. यहां के गांवों और जनजातियों ने ईश्वर के आह्वान के अपने-अपने तरीके विकसित कर लिए थे. स्थानीय देवताओं को स्थानीय बोलियों में पुकारा जाता था. इस बड़े स्प्रिचुअल मैप में हर देवता और परंपरा को जगह मिली हुई थी.

Advertisement
X
तमिल दर्शन खेतों के किनारों पर उपजा और इसे तमिलों ने गौरव के साथ अपनाया भी है
तमिल दर्शन खेतों के किनारों पर उपजा और इसे तमिलों ने गौरव के साथ अपनाया भी है

उत्तर भारत में लिखे गए प्राचीन ग्रंथों में दक्षिण के मैदानी इलाके का जिक्र द्रविड़ नाम से ही होता है. हमारी पूजा पद्धति में शामिल संकल्प मंत्र में जंबूद्वीप, भारतवर्ष, भरतखंड के साथ मेरोर् दक्षिणे पार्श्वे का जिक्र मिलता है. पौराणिक मेरु पर्वत के पार का दक्षिणी इलाका उसी दंडकवन की ओर ले जाता है, जहां श्रीराम ने वनवासी जीवन बिताया. 

ऐसे में आश्चर्य इस बात पर होता है कि जब रामकथा वाले महाकाव्य में दंडकवन का जिक्र होने के बावजूद उसमें द्रविड़ या तमिऴकम का जिक्र क्यों नजर नहीं आता है. सवाल ये है कि एक तरफ आर्यावर्त को हिमालय से सागर तक बताया जाता है और दूसरी तरफ इससे दक्षिण का प्रतिनिधि द्रविड़ ही नदारद भी रहता है. द्रविड़ समाज इस पर क्या महसूस करता होगा? कल्पना से परे है. 

तमिल भाषा कभी भी संस्कृत की मोहताज नहीं रही
हालांकि ब्राह्मणों ने संकल्प मंत्र में समय के साथ सुधार किए और इसमें 'मदुरै, कुमारी, कांची' जैसे खास तमिल तीर्थस्थलों का भी जिक्र होने लगा. यह सांस्कृतिक सुधार का बड़ा उदाहरण था. यानी वह जानते थे कि बदलते माहौल में सर्वाइव कैसे करना है. मूल संकल्प भले ही ब्राह्मणवादी परंपरा से उपजा हो, लेकिन तमिऴकम का सामाजिक ताना-बाना विविधता से भरा हुआ था. असल में प्राचीन तमिल भाषा देवताओं के आह्वान के लिए कभी संस्कृत की मोहताज नहीं रही. 

Advertisement

तमिलों की यह भूमि पहले से ही अपनी अलग आस्थाओं और मान्यताओं से समृद्ध थी. ये परंपराएं स्थानीय खासियतों के साथ रची गईं थीं. यहां के गांवों और जनजातियों ने ईश्वर के आह्वान के अपने-अपने तरीके विकसित कर लिए थे. स्थानीय देवताओं को स्थानीय बोलियों में पुकारा जाता था. इस बड़े स्प्रिचुअल मैप में हर देवता और परंपरा को जगह मिली हुई थी.

Time Tide And Tamil

'तमिऴकम'- पहचान की प्राचीन विरासत
यह तो साफ है कि द्रविड़ से पहले 'तमिऴकम' शब्द मौजूद था. 'तमिऴकम' शब्द, पहचान की पुरानी विरासत को सामने रखती है. यह 'तमिल' (भाषा और लोग) और 'अकम' (घर या निवास) से मिलकर बना है. यानी तमिऴकम का सीधा अर्थ है, वह भूमि जहां तमिल भाषी और तमिल लोग निवास करते हैं. यह विचार किसी युद्ध से नहीं आया है बल्कि व्याकरण के जरिये ही स्थापित हुआ है. 

तमिल साहित्य का प्राचीन व्याकरण ग्रंथ 'तोल्काप्पियम' तमिऴकम की सीमाओं की परिभाषा गढ़ता है और इसे 'राष्ट्र' के तौर पर सामने लाता है. 

तोल्काप्पियम (सूत्र 50, चिरप्पुप्पायिरम्) में  दर्ज है “वडवेंकटम् तेन्कुमारी आयिदै तमिऴ्कूऱु नल्लुलकम्” यानी, उत्तर में वेंकट (तिरुमला) और कन्याकुमारी के बीच फैला मैदान तमिऴकम है. इलंगोवडिकल का जैन महाकाव्य 'शिलप्पदिकारम्' भी कुछ इसी तरह सीमाओं का निर्धारण करता है. 

तमिल और संगम साहित्य में कई जगह एक काल्पनिक द्वीप  'कुमारिकण्डम्'का जिक्र बार-बार मिलता है. जिसे हिंद महासागर के पूर्व–पश्चिम तक फैला हुआ बताया जाता है. आज भी सिनेमा, राजनीति, सोशल मीडिया में इस काल्पनिक संसार को जीवंत करने की इच्छा हिलोरें मारती रहती हैं.

Advertisement

कैसे पांच हिस्सों में बंटा समाज
तमिऴकम के भीतर भूमि और सत्ता एक-दूसरे में सहज रूप से घुली-मिली थीं. चेर, चोल और पांड्य, तीनों अपने-अपने क्षेत्रों के संप्रभु शासक थे. इनके अलावा छोटे-छोटे सहयोगी राजा और स्थानीय सरदार भी थे, जो सामंतों के तौर पर इस राजनीतिक ताने-बाने को जोड़कर रखते थे. इसी दौरान सामने आती है शासन की तिणै (तिनाई व्यवस्था), जिसमें समाज को भौगोलिक आधार पर पांच हिस्सों में बांटा गया था. 

हर क्षेत्र की अपनी खासियत, अलग कल्चर, लोक देवता, वनस्पति और जीवन शैली थी. जिन्हें पहाड़ (कुरिंजी), वन (मुल्लई), कृषि भूमि (मरुदम), तट (नेयडाल) और बंजर भूमि (पलाई) के तौर पर देखा गया. 

इसमें कुरिंजी यानी हरे-भरे पर्वतीय क्षेत्र शिकारी समुदायों और पर्वतीय जनजातियों की भूमि हैं और इनके देवता मुरुगन (उत्तर में कार्तिकेय) हैं. वहीं मुल्लई हरे मैदानों का प्रतीक है, जिसके देवता मायोन असल में विष्णु के प्राचीन चरवाहा रूप हैं. मरुदम् खेतिहर भूमि और सदानीरा नदियों का हिस्सा है. यहां अच्छी बारिश और फसल के लिए इंद्र की कृपा की कामना की जाती है. यहीं शासक और कृषक निवास करते हैं. यह उर्वरता, श्रम और शासन का प्रतीक है, जहां मानवीय टकराव और घरेलू तनाव भी सामने आते हैं.

नेयडाल यानी समुद्रतट वाला इलाका, जिसके देवता वरुण हैं. वहीं पलाई यानी बंजर जमीन. जब मुल्लई या मरुदम् में सूखा पड़ता है और वह उजाड़ में बदल जाता है तो वह पलाई बन जाता है. इसकी देवी कोत्रवै (दुर्गा) हैं. यह कष्ट, पीड़ा और निराशा की भूमि है. 

Advertisement

इस तरह आज भी स्पष्ट दिखाई देने वाले सांस्कृतिक 'चिह्नों' में 'तमिल गौरव' नजर आता है. इसकी इमेज का कैनवस इसी गौरव से बड़ा होता जाता है और फूलों से लदे पर्वत, समुद्री लहरें,लहलहाते खेत, मधुमक्खियों और पक्षियों से गूंजते वन. यही सबकुछ शृंगार की कविताओं का विषय बनता रहा और संगम साहित्य ने इसे पन्नों पर बड़ी खूबसूरती से उतारा. 

Time Tide And Tamil

तमिल साहित्य और तमिल गौरव
फिर आप तमिल साहित्य का कोई भी ग्रंथ उठाकर देख लें, आपको सभी में एक ही तरीके का तमिल गौरव नजर आएगा. जिसमें तमिलकम की प्राचीनता का वर्णन मिलेगा, इसकी समृद्धि का बखान दिखाई देगा जो इसे एक अलग ही दैवीय भूमि के तौर पर स्थापित करता नजर आता है. पुरनानूरु, अगनानूरु, पट्टिनप्पालै, शिलप्पदिकारम् या फिर मणिमेकलै ऐसी ही साहित्य रचनाएं हैं जो तमिल संस्कृति और समृद्धि का बखान करती हैं. इनमें राजधर्म, पारिवारिक संबंध, समाज और पेशा, संस्कृति और जलवायु, प्रेम और वासना, गृहस्थी के दायित्व आदि का जो आदर्श रचा गया है वह किसी दैवी आदेश से नहीं, बल्कि जीवन के अनुभवों से जन्मा है.

उस युग में, जब भारत और उससे परे की कई सभ्यताएं अपने विचार, आदर्श और निर्देश किसी 'आकाशवाणियों' से अपना रही थीं, तब तमिऴकम ने अपना दर्शन खेतों की मेड़ों से गढ़ा और उसे सम्मान के साथ अपनाया भी. नतीजतन, एक ऐसी सभ्यता बनी जिसने अनेक प्रभावों को आत्मसात किया, कुछ का प्रतिरोध किया और आखिरकार अपनी मूल पहचान को बचाए रखते हुए सबको अपने शब्दकोश में ढाल लिया.

Advertisement

इस तरह 'द्रविड़' आम बोलचाल में शामिल हुआ. इसने तमिऴकम को मिटाया नहीं, बल्कि उसके ऊपर अपनी एक लेयरिंग कर दी. यही वह संधि-बिंदु है, जहां प्राचीन मिट्टी विकसित होती लिपि से मिलती है.

---- समाप्त ----
Live TV

Advertisement
Advertisement