एक समय था जब औरतों को घर पर ही रहने की नसीहत मिला करती थी. वो घर के बाहर नहीं जा सकती थीं, अपनी पसंद का कुछ काम नहीं कर सकती थीं और किसी अंजान आदमी से बात तक नहीं कर सकती थीं. इसके बाद अगर उनके पति की मृत्यु हो जाए, तो समाज के लिए वो किसी बोझ से कम नहीं बन जाती. उसे घर के एक कोने में डाल दिया जाता था. पूजा-पाठ और भगवान का नाम जपने में ही उसकी बाकी बची जिंदगी निकल जाती था. आज समय जरूर बदल गया है, लेकिन आज भी लोगों की सोच कुछ हद तक वही है. वो विधवा औरतों को आज भी किसी से घुलने मिलने की अनुमति नहीं देते.
इन्हीं संघर्षों पर डायरेक्टर प्रवीन अरोड़ा ने फिल्म 'ढाई आखर' बनाई है. इसकी कहानी एक विधवा औरत के संघर्ष और उसके सपनों के बारे में है. फिल्म मशहूर हिंदी लेखक अमरीक सिंह दीप के उपन्यास 'तीर्थाटन के बाद' पर आधारित है. आज फिल्म थिएटर्स में रिलीज हो गई है. फिल्म इससे पहले कई फिल्म फेस्टिवल्स में भी जा चुकी है जहां उसे काफी अच्छा रिस्पांस मिला है. लोगों ने फिल्म की जमकर तारीफ की है. कैसी है 'ढाई आखर' फिल्म, आज हम आपको बताएंगे.
क्या है फिल्म की कहानी
फिल्म की कहानी 1985 में उत्तर प्रदेश के लखनपुर की हर्षिता (मृणाल कुलकर्णी) नाम की एक विधवा औरत की है, जिसने अपने पूरे जीवन में अपनी खुशियों के लिए संघर्ष किया है. हर्षिता घर में बिना किसी को बताए एक दिन अपने प्रेमी लेखक शरद (हरीश खन्ना) से मिलने हरिद्वार जाती है, जहां वो उसका ख्याल रखता है. इसी बीच घरवालों को हर्षिता के पास से कुछ चिट्ठियां भी मिल जाती है, जिससे उन्हें पता लगता है कि वो हरिद्वार अपने प्रेमी से मिलने गई हैं. घरवाले उसके कमरे में पड़ी हुईं सभी चिट्ठियों को जला देते हैं. इसी बीच हर्षिता शरद को अपने संघर्षों के बारे में बता रही होती है. उसके कुछ ख्वाब होते हैं जो उसका पति (रोहित कोकाटे) उसे पूरा करने नहीं देता, वो उसे मारता पीटता है और घर से बाहर भी नहीं जाने देता. ऐसे में शरद उसका सहारा बनता है लेकिन हर्षिता के घरवालों को ये सब मंजूर नहीं होता. अब क्या हर्षिता अपने सपनों को पूरा करने में कामयाब हो पाई की नहीं, ये आपको फिल्म देखकर ही पता लगेगा.
देखें फिल्म का ट्रेलर:
सीट से बांधे रखेगी फिल्म
फिल्म लगभग 90 मिनट की है, जो आपको शुरू से लेकर आखिरी तक बांधे रखती है. ये शुरू से ही अपने मुद्दे पर आ जाती है, वो किसी बिल्डअप का इंतजार नहीं करती. इसका स्क्रीनप्ले काफी टाइट रखा गया है, जो आपका ध्यान नहीं भटकाता. डायलॉग भी उस समय के हिसाब से अच्छे हैं, जिस दौर में इस फिल्म को सेट किया गया है. डायरेक्टर प्रवीन अरोड़ा का काम और उनकी मेहनत फिल्म में साफ झलकती है. उनका डायरेक्शन कमाल का रहा, और इसे शूट भी अच्छा किया गया. फिल्म का म्यूजिक काफी अच्छा है, वो फिल्म की थीम के साथ एकदम सटीक बैठता है. गानों के बोल इरशाद कामिल ने लिखे हैं जो इस बार भी अपना काम बखूबी करके गए हैं. वहीं फिल्म में गानों को अपनी आवाज कविता सेठ ने दी जिन्होंने उनमें चार चांद लगाए.
फिल्म में सभी एक्टर्स का काम अच्छा रहा. सभी ने अपने किरदार और उसके नेचर के हिसाब से अच्छा काम किया. मृणाल कुलकर्णी अपने रोल में फिट नजर आईं. उनके इमोश्नल सीन्स आपको फिल्म के दौरान रुला दें, इस तरह का काम उन्होंने किया है. हरीश खन्ना जो फिल्म में एक लेखक का रोल निभा रहे हैं, उनका काम अच्छा रहा. उन्होंने अपने किरदार को बखूबी निभाया. रोहित कोकाटे का रोल काफी भयानक लगा, जो उन्होंने अपनी लाजवाब एक्टिंग के जरिए फील कराया. उनके जितने भी सीन्स फिल्म में मौजूद हैं, उन सभी में उन्होंने सबसे बेहतर काम किया है. बाकी सपोर्टिंग एक्टर्स भी अपने रोल में फिट लगे और फिल्म को अच्छे से सपोर्ट किया.
क्यों देखनी चाहिए ये फिल्म
अगर आपको फीमेल ओरिएंटेड फिल्में देखने का शौक है और आप ऐसी फिल्में देखना पसंद करते हो जिनमें किसी तरह का मेसेज है, तो ये फिल्म आपके लिए ही बनी है. फिल्म समाज को एक आइना दिखाने का काम करती है और आज के समय में औरतों पर हो रहे अत्याचारों को भी सभी के सामने रखती है. अगर आप ऐसी ही फिल्में देखने का शौक रखते हैं, तो ये फिल्म आपके दिल को जरूर छू जाएगी.
क्यों नहीं देखनी चाहिए ये फिल्म
अगर आपको मसाला, कॉमेडी या एक्शन से भरी फिल्में देखना पसंद है, तो आप इस फिल्म को नजरंदाज कर सकते हैं. फिल्म की कहानी 1985 में सेट की गई है, और अगर आप आज के जमाने के हैं जिन्हें स्टोरी में कुछ नया देखना पसंद है और पुरानी कहानियां बोर कर देती हैं. तो ये फिल्म आपके लिए नहीं बनी है.
स्टोरी: पर्व जैन