
अगस्त की शुरुआत शाहरुख खान फैन्स के लिए वो खुशखबरी लेकर आई जिसका इंतजार उन्हें तीन दशकों से था. 71वें नेशनल फिल्म अवॉर्ड्स में शाहरुख को फिल्म 'जवान' के लिए 'बेस्ट एक्टर' का नेशनल अवॉर्ड मिला. एक सुपरस्टार के तौर पर शाहरुख के पास क्या कुछ नहीं है- दर्शकों का बेशुमार प्यार, ढेर सारे अवॉर्ड और बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्डतोड़ कामयाबी. मगर वो जनता जो शाहरुख की एक्टिंग की मुरीद है, उसे अपने सुपरस्टार के खाते में इस नेशनल अवॉर्ड की कमी बहुत खलती थी.
वजह ये है कि शाहरुख को उनके स्टारडम के जलवों से इतर लोग एक दमदार एक्टर भी मानते हैं. हालांकि, लोगों को इस बात में एक विडंबना नजर आई कि शाहरुख को ये नेशनल अवॉर्ड उस फिल्म के लिए मिला जो एक एक्टर की परफॉरमेंस हाईलाइट करने से ज्यादा, एक सुपरस्टार का कद ऊंचा करने के लिए डिजाईन की गई लगती है. यही वजह है कि 'जवान' में एक्टिंग के लिए शाहरुख को मिला नेशनल अवॉर्ड एक संदेह की नजर से भी देखा जा रहा है.
'जवान' के लिए शाहरुख को नेशनल अवॉर्ड मिलने पर संदेह क्यों?
डायरेक्टर एटली की 'जवान' वो फिल्म है जिसने शाहरुख की ऑनस्क्रीन इमेज में एक नया आयाम जोड़ा है. इस फिल्म में शाहरुख ऐसे अवतार में नजर आए जैसे स्क्रीन पर वो पहले कभी नहीं दिखे.

डबल रोल में शाहरुख रॉ एक्शन, स्वैग भरी अदाबाजी और धुआंधार डायलॉगबाजी करते नजर आ रहे थे. डायरेक्टर एटली ने फिल्म में वो सारा मसाला बराबर मात्रा में मिलाया था जिसे धीरे-धीरे जनता साउथ की फिल्मों से जोड़कर देखने लगी है. हालांकि, एक समय एय मसाला बॉलीवुड ने ही मैनुफैक्चर किया था. 'जवान' एक मास एंटरटेनर फिल्म थी और इसमें वो सारे गुण थे जो इस तरह की फिल्मों में होते हैं. मगर इस फिल्म का एंटरटेनमेंट के इस पॉपुलर स्कूल से आना ही शाहरुख के अवॉर्ड के प्रति लोगों की तिरछी नजर का भी कारण बन रहा है.
'जवान' के लिए मिला नेशनल अवॉर्ड शाहरुख ने विक्रांत मैसी के साथ शेयर किया जिन्होंने फिल्म '12वीं फेल' में दमदार परफॉरमेंस दी थी. ये फिल्म देखने के बाद हर कोई विक्रांत की परफॉरमेंस का मुरीद हो गया था. एक ऐसी फिल्म जो अपने हीरो के सफर को तल्लीनता से फॉलो करती है और उसके हर भाव और अभाव को, प्रेम और संघर्ष को धीमी आग पर पकाते हुए, उसके विजयोल्लास तक जाती है.
'12वीं फेल' का ट्रीटमेंट और विक्रांत का काम काफी गंभीर था और इसलिए उनके नेशनल अवॉर्ड जीतने पर किसी को कोई हैरानी नहीं थी. मगर उनके साथ ये अवॉर्ड शेयर करने वाले शाहरुख की बात कुछ अलग तरह से की जा रही है.
'जवान' में नेशनल अवॉर्ड लायक नहीं थी शाहरुख की परफॉरमेंस?
'जवान' में शाहरुख की परफॉरमेंस एंटरटेनिंग तो बहुत थी. इस बात का सबूत ये है कि 2023 में ही बड़े पर्दे पर 4 साल बाद शाहरुख की धमाकेदार वापसी कराने वाली और उन्हें एक्शन अवतार में लेकर आई फिल्म 'पठान' के करीब 3.5 करोड़ टिकट बिके थे. जबकि इससे 8 महीने बाद आई 'जवान' के 3.9 करोड़ टिकट बिके थे. मगर एक तथाकथित 'गंभीर' फिल्म ना होकर एक पॉपुलर एंटरटेनमेंट देने वाली फिल्म होने के कारण 'जवान' के लिए शाहरुख को नेशनल अवॉर्ड मिलना बहुत लोगों को हैरान कर रहा है.
शाहरुख की फिल्मोग्राफी में कई फिल्में हैं जिनमें लोगों को उनका अभिनय 'गंभीर' लगता है और कहा जा रहा है कि इन फिल्मों में उनका काम नेशनल अवॉर्ड के लिए ज्यादा डिजर्विंग था. 'स्वदेस', 'चक दे इंडिया', 'पहेली' और 'देवदास' जैसी फिल्मों में शाहरुख के काम का हवाला देते हुए लोग 'जवान' में उनके काम को नेशनल अवॉर्ड के लिए 'कम डिजर्विंग' मान रहे हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पॉपुलर एंटरटेनमेंट देने वाली फिल्मों में एक्टिंग को लेकर एक किस्म का पूर्वाग्रह रहता है? क्या एक फिल्म अगर एंटरटेनमेंट दे रही है तो उसमें एक्टर्स का काम गंभीर नहीं होता?
क्या 'जवान' में सॉलिड नहीं थी शाहरुख की एक्टिंग?
इस चर्चा की शुरुआत इस सवाल से की जा सकती है कि बेहतरीन एक्टिंग आखिर होती क्या है? वैसे तो किसी भी आर्ट फॉर्म के प्रति एक दर्शक का रिएक्शन बहुत व्यक्तिगत होता है. मगर अधिकतर फिल्म क्रिटिक्स इस बात से सहमत होंगे कि एक एक्टिंग परफॉरमेंस 'रेगुलर' से अलग या बेहतरीन तब हो जाती है जब एक सिचुएशन में रियेक्ट करने की एक्टर की चॉइस, सबसे नेचुरल चॉइस से अलग होती है और दर्शक को सरप्राइज करती है.
उदाहरण के लिए- गुस्सा आने पर चिल्ला देना एक बहुत नेचुरल रिएक्शन है, हर व्यक्ति ऐसा करता है. मगर सिनेमा के पर्दे पर जब एक एक्टर गुस्सा दिखाने के लिए चिल्लाना ना चुनकर कुछ और करता है, तब कुछ नया होता है जिससे दर्शक सरप्राइज होते हैं. गुस्से का भाव दिखाने के लिए एक एक्टर के पास भी कई चॉइस होती हैं. वो चाहे तो चीख सकता है. या फिर बिना कुछ बोले कुछ तोड़-फोड़ सकता है. वो चाहे तो केवल चुप रहकर अपने एक्सप्रेशन होल्ड कर सकता है और आप केवल सीन-संवाद और सिचुएशन से समझ लेंगे कि आपका हीरो अंदर ही अंदर उबल रहा है.
पहली चॉइस में शायद आप एक्टर की एक्टिंग से इम्प्रेस ना हों क्योंकि गुस्से में चिल्ला देना तो नॉर्मल है. दूसरी चॉइस से भी आप शायद थोड़े कम इम्प्रेस हों. मगर तीसरी चॉइस में आप ज्यादा इम्प्रेस होंगे क्योंकि यहां आपको एक्टर के गुस्से की इंटेंसिटी और उसकी परफॉरमेंस में संयम दिखेगा. यानी एक एक्टर के काम का मकसद जिस इमोशन या मैसेज तक आपको पहुंचाना है, उस मकसद को पूरा करने के लिए की गई उसकी चॉइस से तय होता है कि उसका काम दर्शक को कितना इम्प्रेस करेगा.
अब इस पैमाने पर 'जवान' में शाहरुख के किरदार और उनकी एक्टिंग चॉइस को देखिए. फिल्म में उन्होंने दो किरदार निभाए. दोनों अलग-अलग उम्र, अलग-अलग दौर के किरदार हैं. दोनों ने देश की सेवा के लिए वर्दियां पहनी हैं, मगर दोनों के मकसद अलग-अलग हैं. क्या फिल्म में इन दोनों किरदारों के मकसद को पूरा करने में शाहरुख कामयाब हुए? बिल्कुल हुए. क्या दोनों किरदारों के एक्सप्रेशन, बॉडी लैंग्वेज, बोलचाल के तौर-तरीके अलग-अलग थे? बिल्कुल थे.

'जवान' के पहले ओपनिंग एक्ट में एक अनजान पहाड़ी में गांव में चीनी सैनिकों से लड़ रहा, पट्टियों में लिपटा विक्रम राठौर अपनी पहचान भूल चुका भारतीय सैनिक है. इस किरदार में शाहरुख के एक्सप्रेशन एक ऐसी टोन में हैं, जिसमें आपने शाहरुख को कभी नहीं देखा. 'जवान' के दूसरे ओपनिंग एक्ट में चेहरे पर पट्टियां लपेटे मेट्रो ट्रेन हाईजैक करने निकला आजाद राठौर, लोगों की भलाई करने चला एक पुलिसवाला है. वो बूढ़े की एक्टिंग कर रहा एक जवान लड़का है और उसके बात-बर्ताव में आप नोट कर सकते हैं कि वो जो दिख रहा है, वैसा है नहीं.
इन दोनों एक्ट्स का मकसद दर्शक के मन में ये संशय पैदा करना था कि शाहरुख के ये दो किरदार देखने में तो लगभग एक जैसे लगते हैं, मगर ये अलग-अलग लोग हैं. क्या इस मकसद में शाहरुख कामयाब हुए? अगर आपने 'जवान' देखी है तो इसका जवाब आप खुद से पूछ सकते हैं.
फिल्म के मैसेज के लिए 'जवान' में आजाद के किरदार को इतना विश्वसनीय भी लगना था कि उसे सच में आत्महत्या करते किसानों, लचर स्वास्थ्य व्यवस्था की भेंट चढ़ती जानों और हथियार खरीद में घोटालों से कमजोर पड़े देश के जवानों की चिंता है. दूसरी तरफ, ये सब करने के साथ दोनों किरदारों में 'लार्जर दैन लाइफ' बने रहना भी एक बड़ा टास्क था. मास फिल्मों में ये एक बहुत बड़ा चैलेंज होता है क्योंकि ये किरदार ऐसे हीरो हैं जिनके एक्शन की अविश्वसनीयता आपको एंटरटेनमेंट देती है.
ट्रेन हाईजैक वाले सीक्वेंस में तुतलाकर 'सो स्वीट' बोलना हो, या इतनी गंभीर सिचुएशन में डांस करना, आजाद का किरदार हो या विक्रम का, जवान में शाहरुख की बहुत सारी एक्टिंग चॉइस ऐसी हैं जिनकी उम्मीद आप उनसे नहीं करते. शायद यही वजह रही कि इस फिल्म में उनका काम फैन्स को बहुत पसंद आया. अगर किसी को 'जवान' बतौर फिल्म बहुत खास ना भी लगी हो तब भी शाहरुख की एक्टिंग चॉइस ने उन्हें भी सरप्राइज किया होगा.
क्यों 'गंभीर' सिनेमा से कमतर समझा जाता है मास सिनेमा?
मास एंटरटेनर फिल्मों का संसार अपने आप में एक बहुत अद्भुत संसार होता है. एक सहज, सरल सिनेमेटिक नैरेटिव में कई तरह के इमोशंस की बरसात करते हुए दर्शकों को मैसेज डिलीवर करना इस तरह की फिल्मों का मकसद होता है. और सबसे बड़ा चैलेंज होता है ये सब करते हुए फिल्मों को एंटरटेनिंग बनाए रखना.
मास फिल्में सोशल मैसेज डिलीवर करते हुए, बिजनेस को भी दमदार बनाए रखने पर फोकस रखती हैं और इसलिए इनके मेकर्स का लक्ष्य होता है थिएटर्स में ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाना. शायद यही वजह है कि सिनेमा का नैतिकतावाद इस तरह की फिल्मों को बहुत ऊपर रखकर नहीं देखता. फिल्ममेकर्स के व्यापारिक हितों की तरफ भी नजर रखने की वजह से ही शायद मास फिल्मों को गंभीरता से नहीं लिया जाता और सिनेमा विचारक इन्हें 'ग्राउंडब्रेकिंग' नहीं मानते.
संभवतः इन्हीं कारणों से 'जवान' जैसी मास फिल्मों में एक्टर्स के काम या दूसरे तकनीकी पहलुओं को बिना विश्लेषण कमतर आंकने की एक धारणा बन चुकी है. ये कुछ वैसा ही है जैसे ग्राफिक्स वाली सुपरहीरो फिल्मों को शुद्धतावादी फिल्म विश्लेषक सिनेमा मानते ही नहीं हैं और इन फिल्मों में एक्टर्स की परफॉरमेंस को जज करने से बचते हैं.
लेकिन जहां एक आम फिल्म में फिजिकल रूप से मौजूद सेट या रियल लोकेशन पर शूट करना एक्टर को उसके सीन का वातावरण बनाकर देता है, वहीं ग्रीन स्क्रीन के सामने सिचुएशन की कल्पना करके कैमरे के सामने एक्टिंग करना भी एक बहुत मुश्किल काम है. यही वजह है कि अब पिछले कुछ सालों से ऑस्कर्स जैसे मंच पर भी भारी VFX वाली फिल्मों में एक्टर्स की परफॉरमेंस को वजनदार आंका जाने लगा है.
क्या पहले पॉपुलर मसाला फिल्मों के लिए एक्टर्स को मिला है नेशनल अवॉर्ड?
भारत के नेशनल फिल्म अवॉर्ड्स में पहले भी एक्टर्स को पॉपुलर मास फिल्मों के लिए अवॉर्ड मिलते रहे हैं. क्रिटिक्स के फेवरेट एक्टर्स में से एक नाना पाटेकर के करियर में तमाम ऐसी फिल्में और एक्टिंग परफॉरमेंस हैं जिन्हें नेशनल अवॉर्ड के 'लायक' माना जाता है. मगर उन्हें पहला नेशनल अवॉर्ड 'बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर' कैटेगरी में फिल्म 'परिंदा' (1989) के लिए मिला था.
विधु विनोद चोपड़ा की 'परिंदा' को तकनीकी रूप से बेहद मजबूत और ग्राउंडब्रेकिंग फिल्म थी लेकिन किसी भी पैमाने पर इसे पैरेलल या आर्ट स्टाइल सिनेमा नहीं कहा जा सकता. ये एक पॉपुलर स्टाइल की फिल्म थी. इतना ही नहीं, नाना पाटेकर को उनका पहला 'बेस्ट एक्टर' का नेशनल अवॉर्ड 'क्रांतिवीर' (1994) के लिए मिला था, जो एक विशुद्ध मास एंटरटेनर फिल्म थी.
अमिताभ बच्चन ने अपने करियर की शुरुआत से ही पॉपुलर फिल्मों के साथ-साथ कई 'गंभीर' फिल्में भी की थीं, जिनमें उनका काम फिल्म विश्लेषकों ने बहुत पसंद किया था. मगर अमिताभ को उनका पहला 'बेस्ट एक्टर' का नेशनल अवॉर्ड 1990 में आई खालिस मास एक्शन फिल्म 'अग्निपथ' के लिए मिला था. और 'अग्निपथ' तो वो फिल्म थी जिसे क्रिटिक्स ने बहुत रगड़ा था. मगर जमकर नेगेटिव रिव्यू पाने वाली 'अग्निपथ' में भी अमिताभ की एक्टिंग को नेशनल अवॉर्ड्स ने सम्मान दिया था.
इसी तरह 'जवान' एक फिल्म के तौर पर भले ग्राउंडब्रेकिंग ना रही हो मगर इसमें शाहरुख ने अपने एक्टिंग वाले औजारों को भरपूर इस्तेमाल किया है. इसका ये मतलब नहीं है कि 'स्वदेस' या 'पहेली' में उनका काम नेशनल अवॉर्ड्स के लिए कम 'लायक' था. इन फिल्मों को वजनदार इनकी कहानी, मैसेज की गंभीरता और दर्शक पर इनका असर बनाता है. लेकिन इसका ये भी मतलब नहीं है कि सिर्फ एक पॉपुलर मास फिल्म होने की वजह से 'जवान' में शाहरुख की एक्टिंग परफॉरमेंस को नेशनल अवॉर्ड्स के 'लायक' ना माना जाए और उनकी इस जीत को सेलिब्रेट करने की बजाय तिरछी नजर से देखा जाए.