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लोकसभा चुनाव में हार के बाद क्या मुलायम के फॉर्मूले पर वापस लौटेंगे अखिलेश?

अखिलेश यादव और मुलायम सिंह ने सपा नेताओं के साथ सोमवार बैठक की. इस बैठक के बाद माना जा रहा है कि संगठन में बड़े स्तर पर बदलाव किया जा सकता है. साथ ही इस बात की भी चर्चा जोरों पर है कि अखिलेश यादव दोबारा से पार्टी को मजूबती प्रदान करने के लिए अपने पिता मुलायम सिंह के राजनीतिक फॉर्मूले को अपना सकते हैं.

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मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव
मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव

लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के प्रचंड लहर में सपा-बसपा गठबंधन के बावजूद उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव अपनी पार्टी की करारी हार नहीं रोक सके. इस हार के बाद सपा में मंथन का दौर शुरू हो गया है. सोमवार को पूरे दिन अखिलेश यादव और मुलायम सिंह ने सपा नेताओं के साथ बैठक की. इस बैठक के बाद माना जा रहा है कि संगठन में बड़े स्तर पर बदलाव किया जा सकता है. साथ ही इस बात की भी चर्चा जोरों पर है कि अखिलेश यादव दोबारा से पार्टी को मजूबती प्रदान करने के लिए अपने पिता मुलायम सिंह के राजनीतिक फॉर्मूले पर वापस लौट सकते हैं.

उत्तर प्रदेश में 90 के दशक में मुलायम सिंह यादव ने सपा की नींव रखी थी. सूबे में सियासी जमीन तैयार करने के लिए मुलायम सिंह ने जमीन से जुड़े नेताओं को तवज्जो देने के साथ-साथ जातीय समीकरण का विशेष ख्याल रखा. मुलायम सिंह ने यादव समुदाय के साथ-साथ मुस्लिम, ओबीसी, दलित, राजपूत और ब्राह्मण समुदाय का समीकरण बनाया था.

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दिलचस्प बात यह है कि मुलायम सिंह ने इन जातियों के सिर्फ वोट पर ही ध्यान नहीं दिया बल्कि इन जातियों के नेताओं को भी पार्टी में खास महत्व देते थे. इनमें कुर्मी समुदाय के बेनी प्रसाद वर्मा, गुर्जर समुदाय से रामशरण दास, क्षत्रिय समुदाय से मोहन सिंह, ब्राह्मण चेहरे के तौर पर जनेश्वर मिश्रा, मुस्लिम समुदाय के आजम खान, भूमिहार समुदाय से कुंवर रेवती रमण सिंह, यादव समुदाय से अंबिका चौधरी-पारसनाथ यादव-बलराम यादव, कुशवाहा समुदाय से हरिकेवल प्रसाद, शाक्य समुदाय के रघुराज शाक्य और पासी चेहरे के तौर राम सागर रावत प्रमुख नेता थे. इसी का नतीजा था कि मुलायम सिंह यादव पार्टी गठन के बाद हुए पहले ही चुनाव में सत्ता के सिंहासन तक पहुंच गए.  

मौजूदा समय में सपा की कमान अखिलेश यादव के हाथों में है, लेकिन मुलायम की तरह से उनके पास जमीनी नेता नहीं है और जो हैं भी उन्हें अखिलेश ने आगे नहीं बढ़ाया है. मुलायम और अखिलेश की सपा में यह बुनियादी फर्क नजर आ रहा है. मुलायम जिस फॉर्मूले के जरिए सूबे से लेकर देश में अपनी पहचान बनाई, अखिलेश यादव ने उससे दूरी बना ली और बीजेपी ने सूबे में अपनी जगह बनाने के लिए इसी समीकरण को अपना लिया.

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मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक विरासत संभाल रहे अखिलेश यादव को लगातार तीसरे चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा है. पहले सत्ता में रहते हुए 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा को 5 सीटें मिली. ये सभी पांच सीटें मुलायम परिवार के सदस्य जीते थे. इसके बाद 2017 में अखिलेश यादव अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाया, लेकिन सपा के राजनीतिक इतिहास में सबसे कम 47 विधायक ही जीत सके औैर साथ ही सत्ता भी गंवानी पड़ी.

इसके बाद 2019 में नरेंद्र मोदी के विजय रथ को उत्तर प्रदेश में रोकने के लिए अखिलेश यादव ने बसपा सुप्रीमो मायावती के साथ गठबंधन किया, लेकिन इसमें भी वह पूरी तरह से फेल रहे. बसपा से गठबंधन होने के बाद भी सपा अपनी परंपरागत सीट कन्नौज, बदायूं और फिरोजाबाद सीट गंवा बैठी. हालांकि सपा को इस बार भी पांच सीटें ही मिली हैं, लेकिन यह सीटें मैनपुरी, आजमगढ़, रामपुर, मुरादाबाद और संभल है. जबकि बसपा जीरो से 10 के आंकड़े पर पहुंच गई है.

अब माना जा रहा है कि अखिलेश यादव पार्टी की करारी हार के बाद संगठन में कई बदलाव कर सकते हैं, इसमें पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष से लेकर कई और नेताओं की छुट्टी हो सकती है. अखिलेश यादव साल 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर संगठन में जमीन से जुड़े नेताओं को तवज्जो देने की दिशा में मंथन कर सकते हैं. संगठन में होने वाले बदलाव में गैर-यादव पिछड़ी जातियों को तरजीह दी जाएगी. अखिलेश यादव ने सपा के चारों फ्रंटल संगठन लोहिया वाहिनी, समाजवादी युवजन सभा, मुलायम सिंह यूथ ब्रिगेड और समाजवादी छात्रसभा को भंग करने का मन बना चुके हैं.

मुलायम सिंह यादव के दौर में जिस प्रकार प्रदेश अध्यक्ष की कमान गुर्जर समुदाय के रामशरण दास के हाथों में थी. इसी तरह अब अखिलेश यादव भी सूबे में पार्टी की कमान अब गैर यादव को दे सकते हैं. इस कार्ड के जरिए अखिलेश यादव गैर-यादव पिछड़ी जातियों को अपने साथ लाने की कवायद कर सपा की खोई हुई सियासी जमीन लाने की कोशिश करेंगे.  

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