यह सिर्फ युवा, तकनीक प्रेमी कर्मचारियों से भरा दफ्तर नहीं था बल्कि बिहार की हाई-स्टेक चुनावी लड़ाई में बीजेपी के ‘वार रूम’ का असली नर्व सेंटर था. बीजेपी के सेंट्रल वॉर रूम में 300 से ज्यादा लोगों की टीम ने इस ऐतिहासिक जीत की पटकथा लिखने में दिन-रात एक कर दिए.
हर विधानसभा क्षेत्र में एक उम्मीदवार का अलग वॉर रूम था, जो सेंट्रल वॉर रूम से जुड़ा हुआ था, जहां से हर 24 घंटे में वहां से रिपोर्ट आती थी, जिसके आधार पर रणनीति तय होती और उसे अमलीजामा पहनाया जाता. बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने ये तय किया कि डोर टू डोर कैंपेन की जरूरत है और इसकी अंतिम योजना सेंट्रल वॉर रूम में ही तैयार हुई.
डोर-टू-डोर कैंपेन
सबसे पहले योजनाओं के लाभार्थियों की मैपिंग की गई और फिर व्यापक आउटरीच कार्यक्रम चलाया गया. हाईकमान से संदेश साफ था कि सिर्फ बीजेपी के ही नहीं बल्कि एनडीए के सभी मतदाताओं तक पहुंच बनाओ.
बिहार चुनाव की विस्तृत कवरेज के लिए यहां क्लिक करें
बिहार विधानसभा की हर सीट का हर पहलू, हर विवरण यहां पढ़ें
बीजेपी से जुड़े सूत्रों ने बताया कि यह आउटरीच प्रोग्राम जून में शुरू हुआ था. इसके बाद सितंबर में फॉलोअप किया गया और फिर उम्मीदवारों का ऐलान किया गया. इस दौरान हर मतदाता से व्यक्तिगत रूप से संपर्क किया गया और उन्हें अपने परिवार के साथ मतदान करने का अनुरोध किया गया. इस तरह का आउटरीच प्रोग्राम लगभग 146 सीटों पर किया गया.
एक-एक बूथ पर फोकस: 32,000 बूथ, 100 विधानसभा सीटें
मतदान के दौरान भी तकनीक का पूरा उपयोग हुआ. बीजेपी अपने वोट की वास्तविक-समय में निगरानी कर रही थी. बीएलए (बूथ स्तर एजेंट) लगातार बताते रहते थे कि कौन-कौन वोट डालने नहीं आया.
ऐप्स के ज़रिए सुनिश्चित किया गया कि हर समर्थक वोट करे और ज़मीनी कार्यकर्ताओं को यह जिम्मेदारी दी गई कि वे सभी मतदाताओं को बूथ तक लाएं. हर घंटे वोटिंग पैटर्न का ट्रैक रखा जाता था.
इस चुनाव में महिला मतदाता निर्णायक फैक्टर रहीं. महिलाएं संतुष्ट थीं लेकिन रोजगार चाहती थीं. इसी फीडबैक से महिलाओं के लिए 10,000 रुपये की डायरेक्ट कैश बेनिफिट का विचार जन्मा.
बिखरा विपक्ष, उलझा हुआ संदेश
कांग्रेस ने एंटी-इनकम्बेंसी और कानून-व्यवस्था जैसे मुद्दों से खुद को दूर कर लिया. शायद वहीं से उन्होंने नैरेटिव खो दिया. दशकों तक बिहार की राजनीति सामाजिक न्याय की मजबूत आंदोलनों पर आधारित रही, जिनके केंद्र में राजद और राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस रहती थी. लेकिन इस बार दोनों ही पार्टियां विचारधारा, संगठन और मतदाता विश्वास तीनों मोर्चों पर कमजोर साबित हुईं.
राजद का सामाजिक न्याय का एजेंडा कभी बहुत प्रभावी था, लेकिन चुनाव नजदीक आते-आते यह साफ़ दिखा कि पार्टी लोगों की बदलती उम्मीदों से कट गई है. युवा मतदाता अब विकास, रोजगार और बुनियादी ढांचे की मांग कर रहे थे और इन क्षेत्रों में राजद के पूर्व शासन का रिकॉर्ड उनके खिलाफ गया. उधर कांग्रेस राज्य की जमीनी वास्तविकताओं से बिल्कुल कटी हुई नज़र आई और बिहार के लिए कोई ठोस, विशिष्ट दृष्टि पेश न कर सकी.
कांग्रेस का कैडर तेजी से कमजोर हुआ, जिससे वह गठबंधनों पर निर्भर तो रही, लेकिन खुद कोई ठोस ताकत न दे सकी. राजद भी अत्यधिक परिवार-प्रधान और केंद्रीकृत रही, जिससे आंतरिक लोकतंत्र और नई नेतृत्व क्षमता विकसित नहीं हो पाई.